रविवार, 13 जुलाई 2014

तीन आदर्श

मातृत्व का आदर्श - जीजामाता

सूर्य से पहले अभिवादन करे पूर्व दिशा को
शिवबा से पहले अभिवादन जीजामाता को


$img_titleऐसा कहाँ गया है। शिवबाने स्वयंपराक्रम से हिन्दवी साम्राज्य निर्माण किया। परंतु जिसकी कोख से यह तेजस्वी वीर ने जनम लिया उसको प्रणाम करना अत्यंत आवश्यक है।
शिवाजी महाराज के जन्म से पूर्व ८ शतकों तक मुस्लिम के सतत आक्रमणों के कारण हिंदु समाज दुर्बल स्वत्वहीन बन गया था। उसकी प्रतिकार शक्ती लुप्त हो गयी थी। गुलामी की चूभन भी मिटती जा रहीं थी। ‘यहीं हमारी नियती है। भगवान रखेगा वैसा रहना है|’ ‘यह मानसिकता बन गयी थी। हम ‘स्वामी’ है। की भावना समाप्त होकर किसी ना किसी मुस्लिम राजा की नोकरी करना और उनका पक्ष ले कर दुसरे मुस्लिम राजाओं से लडना अर्थात हिन्दुओंसे ही लढना उनको काटना, मारना। मुस्लिम राजा की विजय अपनी विजय मानना यहीं मानसिकता बनी थी। हम हिन्दु है यह कहलानें में भी हीनता का भाव अनुभव होता था। राजा अर्थात वह मुसलमान ही होगा हम राजा नहीं बन सकते ऐसा क्षुद्रता का भाव हिन्दु समाज में भरा था। हिन्दुओं की उदासीनता के कारण विस्मृती में खोयी अस्मिता को जगानेवाली, हिन्दु राष्ट्र का चाणक्य नीती के अनुसार पुनर्निर्माण करनेवाली, हिन्दुस्थान को यवन भूमि बनने से रोकनेवाली, एक दृढ संकल्पित महिला १७ वी शताब्दी में सिंदखेड के राजा लखुजी जाधव के कुल में जन्मी नाम था जिजा।
बाल्यकाल से ही हिन्दु देवालयों,श्रद्धास्थानों का मुस्लिमोंद्वारा अपमान, महिलाओं का अपहरण, यह घटनाएँ नित्य देखती थी। यह देखकर उसका मन व्याकुल हो उठता-किसकी विजय के लिये हिन्दु मर रहे है? यह शौर्य वे अपनी स्वतंत्रता के लिये क्यों नहीं दिखा सकते? उनको कौन प्रेरित करेगा? उसके उन प्रश्नों का उत्तर देने में कोई भी समर्थ नहीं था। बाल जिजा के मन पर एक-एक खरोंच उठ रहा था।
लखुजी राजे जाधव के घर पर प्रति वर्ष रंग पंचमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाता था। १६०५ की रंगपंचमी महत्वपूर्ण थी। उस दिन मालोजी भोसले अपने पुत्र शहाजी को लेकर उपस्थित थे। शहाजी और जिजा परस्पर गुलाल खेलने लगे। मालोजी ने माजक में कहाँ, ‘बहोत ही योग्य जोडी है दोनों की। मालोजी समतुल्य होने के कारण मालोजी के साथ यह रिश्ता करने की जाधवराव की इच्छा नहीं थी। जाधव जैसे देवगिरी के यादव वंशज थे वैसे भोसले भी सिसोदिया राजपूत वंश के थे। अपनी सांपत्तिक स्थिती की बात मालोजी को खलती रहीं थी। कहा जाता है कि एक दिन उसको सपना आया की खेत में विशिष्ट स्थान पर खोदने से उसको विपुल धन मिलेगा, वैसा ही हुआ। निजामशहा ने भी मालोजी का दर्जा बढाया। निजामशहा का यह अप्रत्यक्ष आदेश है यह मानकर जिजा-शहाजी का विवाह ठाठ बाट से संपन्न हुआ।
वीररमणी तपस्विनी
शहाजी-जिजा का सहजीवन प्रारंभ हुआ। शहाजी राजा के मन में महत्वाकांक्षा जगी कि दक्षिण में मुस्लिम राज्यों पर हिन्दुओंका जीना दुर्भर होगा। इस उद्देश्य से दोनों में मित्रता नही हो ऐसा शहाजी का प्रयत्न चल रहा था। हिन्दुओं का स्वतंत्र राज्य निर्माण करने की भी शहाजी की कल्पना थी। शहाजी राजा को परिवार की ओर देखने को समय हीं नहीं मिलता था। परंतु जिजाबाई ने ससुराल के सभी लोगों का मन अपने शालीन व्यवहार से जीत लिया था।
फिर भी एक शल्य उसके मन में था। शहाजी राजे निजामशाही के आधार स्तंभ तो लखुजी जाधव  निजामशहा के-शत्रु की सेवा में। मायके ससुराल संबंधोंमें दरार बढ रहीं थी। ऐसी अवस्था में जिजा को पुत्र हुआ।  उसका नाम संभाजी रखा। निजामशहा ने लखुजी राजा को छलकपट से मारा। चीढकर दोनों कुल एक हो गये परंतु मुस्लिमों की विश्वासघाती वृत्ति से जीजा दुखी हुई। यवन विरोधी हिन्दु शक्ती खडी करने की अनिवार्यता बार-बार उसके मन में प्रतीत होने लगी। अर्भस्थ शिशु पर भी उसके संस्कार हाते रहे। ऐसी अवस्था में शिवनेरी पर शिवबा का जन्म हुआ। दिन था-१९/२/१६३० फाल्गुन कृष्ण तृतीया शके १५५१।
शहाजी राजा का सहवास बाल शिवबा को कम ही मिलता था। मुस्लिम अत्याचारों सें व्यथित  होकर जिजाबाई ने शिवबा के मन में स्वतंत्रता की आकांक्षा निर्माण की।  यवन हमारें देश के शत्रु है यह धीरे धीरे उसके मन में बैठने लगा। विजापुर के दरबार में बादशाह को उसने प्रणाम नही किया। बंगलोर में शहाजी राजा के साथ कुछ दिन रहते बाद जिजाबाई के ध्यान में आया कि विलासिता पूर्ण वातावरण में रहनें से वह शिवबा को अपनी चाह के अनुसार संस्कार नहीं दे सकेगी। अत:बंगलोर से पुणे में दादोजी कोंडदेव के संरक्षण में शिवबा के साथ जाकर रहने का निर्णय लिया। जिजाबाई की दृढ धारणा थी कि हिन्दुओंकी दैन्यावस्था-गुलामी दूरके लिये मुझे अपने पुत्र को ही तैयार करना है। गर्भावस्था से लेकर यहीं विचार प्रबल था। वैसे ही संस्कार बाल शिवाजी को देने हेतु पुणे जैसा और कोई स्थान नहीं था। पति को छोडकर इतने दूर रहना लोकापवाद था। परंतु यह एक महान योजना का अंश है ऐसी स्पष्ट कल्पनके कारण वह लोकापवाद सहन करती रहीं।
प्रभावी गृहस्थी
मुझे ही परिस्थिती बदलने वाला पुत्र निर्माण करना है। यह ध्यान में रखते हुए जिजाबाई ने दादोजी कोंडदेव की सहायता से शिवबा को युद्धकला के साथ- साथ रामायण, महाभारत के माध्यम से जीवन दृष्टी भी प्रदान की। दृढ धर्मनिष्ठा, महापुरूषोंको  के प्रति श्रद्धा, सादगी, शुद्ध चारित्र्य, स्वाभिमान आदि गुणों का बीजारोपण भी दोनों ने अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से किया। स्त्रीमाँ के समान है। उसका अपमान राष्ट्र का अपमान है। यह महत्वपूर्ण संस्कार दिया। पद्मिनी की कथा बताते हुए यवनोंको राज्य में स्त्री कितनी असुरक्षित है यह बताकर स्त्री का सम्मान तुम्हें ही पुन: प्रस्थापित करना है यह आकांक्षा जगायी।
कसबा पेठ के पुराने गणेशमंदिर का जीर्णोद्धार करके विघ्ननाशक देवता का आशीर्वाद प्राप्त किया और रहनेके लिये लालमहल बनवाया। अपराधियों को दंड दे कर धाक निर्माण किया। मालव क्षेत्र में चलनेंवालें आपसी झगडे न्याय देने हेतु बाल शिवबा और जिजाबाई के सामने लाने की पद्धति दादोजी कोंडदेव ने निर्माण की। प्रत्यक्ष न्यायदान का ही यह प्रशिक्षण था। रांझा के पाटील ने एक महिला का विनयभंग किया। अपराधी को शिवबा के सामने लाया गया। वह क्या न्याय देता है? सबकी आँखे उस ओर लगी रहीथी। उस पाटील की प्रतिष्ठा विचार न करते हुए शिवबा ने उसके हाथ पैर तोडने का दंड दिया। जिजा के संस्कार प्रभावी रहें। न्यायदान में किसी का पद, प्रतिष्ठा या रिश्तोंका दबाव नहीं होना चाहिए। उस क्षेत्र में रहने वाले मावल बालकोंको योजनापूर्वक शिवबा के साथ जिजाबाई ने युद्ध का प्रशिक्षण दिया। जिजामाता उनको भी संस्कारक्षम कथाएँ बताती थी। उनके गुणोंका शक्तीबुद्धि का उपयोग देश के शत्रु के साथ लडने के लिये सामुहिक रूपसे करने की प्रेरणा उनके मन में जगायी। यह करते करते सामाजिक समरसता की घूँटी भी पिलायी। भविष्य में प्राणोंकी बाजी लगानेवाले साहसी सरकारी भी शिवबा को इसीप्रक्रिया से प्राप्त हुए।
स्वराज्य संस्थापना की शपथ
स्वराज्य संस्थापना की कल्पना में साकार करते करते एक दिन शिवबा अपने साथियों को रायरेश्वर स्वयंभू शिव मंदिर में ले गया और अपने रक्त का अभिषेक करते हुए स्वराज्य स्थापना की प्रतिज्ञा ली। यह देखकर सभी साथियों ने भी शिवबा का अनुकरण किया। स्वतंत्र, ‘सार्वभौम हिन्दु साम्राज्य हो यह ईश्वर की इच्छा है। ‘ यह भाव स्वयं के और सभी के  मन में जगाया। जिजामाता को इसका पता चला तब उसने उनको शाबासी दी। इसे प्रोत्साहित होकर शिवाजी ने तोरणा किला जीतकर स्वराज्य का श्रीगणेश किया।
एक बार शिवबा और जिजामाता चौसर पट खेल रहे थे। शिवबा ने पुछा,‘ क्या शर्त रखना है विजय मिलने पर?’ जिजामाता के सामनेवाली खिडकी से कोंडाणा किले पर लहराने वाला हरा झंडा दिख रहा था। विधर्मीयोंकी अन्यायी सत्ता की वह निशानी थी। जिजामाता ने तुरंत कहां,‘ मेरी विजय होने पर वहाँ भगवा निशान चाहियें।’ कितनी सूचक व प्रेरक शर्त। आज बेट द्वारका जाते समय श्रीकृष्ण मंदिर से पहलेही जो आँखों को चूभता है वह भी अतिक्रमणकारियोंका हरा झंडा। परंतु आज कोर्स जिजामाता नहीं जिसकी आखोंमें वह चूभेगा।
सौभाग्य वा स्वराज्य
शिवबा का प्रताप विजापुर दरबार तक पहुँचा तब उसको रोक लगाने हेतु बादशाह ने शहाजी राजे को अकस्मात बंदी बनाया और पैरोंमें बेडियां डालकर विजापुर के रास्ते पर घुमाया। शिवाजी शरण आयेगा। शहाजी के प्राणोंकी भीक माँगेगा, ऐसी उसकी अपेक्षा थी। स्वराज्य या सौभाग्य ऐसा प्रश्न खडा हुआ तब जिजामाता ने स्वराज्य को अग्रक्रम दिया और कांटे निकलने की नीति अपनायी। दिल्ली के बादशाह से संधान बाँध कर उनको दोस्ती का आश्वासन देकर उनका दबाव विजापुर के बादशाह पर डाला।
शहाजी राजे का ज्येष्ठ पुत्र संभाजी भी विजापुर दरबार में था। अफझल के साथ १६५५ में युद्ध पर गया था। ऐसा कहां जाता है की अफझल खान ने कपट से उसकी हत्या की। जिजाबाई वह भूल नहीं पायी। अत: अफझल खान को मिलने जाते समय शिवबा को याद दिलायी। यहीं वै अफझलखान है जिसनें संभाजी को कपट से मारा है। अफझल खान इतना पराक्रमी हैकि तुम उसके साथसंधि करो- मिलने मत जाओ ऐसा कायरता का संदेश नहीं दिया।
शुद्धिकरण की नींव रखी
अफझलखान के मन में शहाजी राजे के बारे में द्वेषभाव था। शिवबा तंग करने के लिये उसने बजाजी qनबालकर को अचानक बंदी बनाया। गलें में संखल बाँधकर हाथी के पैरो तलें कुचलने की सजा दी। नार्सक राजे पांढरे ने मध्यस्थी करके वहसजा रद्द करने के लिये यशस्वी प्रयत्न किये। परंतु खान ने एक शर्त रखी। बजाजी को मुसलमान बनना पडेगा। बजाजी ने भी बादशाह  अपनी बेटी से उसका विवाह करायेगा ऐसी शर्त लगायी। बादशाह ने वह तुरंत मान्य की। यह घटना फलटन का qनबालकर परिवार व शिवबा को बहुत ही अपमानास्पद लगी। परंतु हिन्दु धर्म में पुन: उसको लाने का कोई रास्ता नहीं था। एक बार नित्यक्रमानुसार जिजामाता शिखर शिंगणापुर में दर्शन करने गयी तब वहाँ बजाजी को बुलाया और जैसे ही उसनें जिजामाता को देखां, उनके पैंर पकडकर रोने लगा, तब  जिजामाता ने उसको पुन: हिन्दु धर्म स्वीकारने के लिये कहां। बजाजी तो आने के लिये उत्सुक था ही। जिजामाता ने मंत्रीमंडल को बुलाया-धर्मांतरण कैसे गलत जबरदस्ती से था और अब तक यह मामला एक तरफा रहने के कारण हिन्दु समाज का कितना संख्यात्मक राष्ट्रात्मक नुकसान हुआ है। इसलिये इच्छा होने पर शुद्धिकरण नीति कैसी आवश्यक है यह समझाया- बजाजी पुन: हिन्दु बन गया। उसको समाज में प्रतिष्ठा दिलाने के लिये शिवबा की पुत्री सखुबाई का विवाह बजाजी पुत्र के साथ करवाया। शुद्धिकरण की प्रक्रिया को प्रतिष्ठा देने के लिये जिजामाता ने यह एक अति साहसी, क्रांतीकारी कदम उठाया।
इसका परिणाम बहुत ही दूरगामी हुआ। मुस्लिमोंको भी धक्का लगा। हिन्दु समाज की मानसिकता बदली  परंतु बाद के काल में शासनकर्ताओं को समाज नेताओंको यह भान नहीं रहा और मस्तानी का पुत्र समशेर बहादूर को मुस्लिम ही रहना पडा।  जिजामाता का अभिनंदन इसलिये अधिक करना चाहिये की एक स्त्री ने यह राष्ट्र हितके लिये सामाजिक क्रांति करायी। स्वराज्य के मंत्रिमंडल के कामों में शुद्धिकरण का एक स्वतंत्र विभाग बनाया। मेधातिथी तथा देवल  ऋषि के ५०० साल बाद स्वधर्में लोटने का मार्ग खुला करनेवाली, अलौकिक दृष्टि वाली एक महिला थी यह अभिमानास्पद था। नेताजी पालकर, पिलाजी तथा बाजी प्रभू देशपांडे का घर वापसी उदाहरण प्रसिद्ध है। केवल हिन्दु धर्म में वापस लाने तक बात सीमित नहीं थी। परंतु धार्मिक अत्याचार करके धर्मांतरण करने वालों को कठोर दंड शिव छत्रपति देते थ। गोवा के पोर्तुगीज लोगोंने धर्मांतरित हिन्दुओं को वापस देने को नकारने पर पोर्तुगीजों का शिरच्छेद किया। गवर्नरको घबराकर अपना आज्ञापत्र वापस लेना पडा। आज भारत के अनेक भागों में जबरदस्ती से धर्मांतरण और उत्पीडन हो रहा है। काश! स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों ने शिवचरित्र पढा होता। स्वा. सावरकर ‘छ: स्वर्णिम पृष्ठों में लिखते है..
मुस्लिम धर्म में गये हिन्दुओं को वापस लानाधर्म विरूद्ध है। इस हिन्दु धर्मीयों की धारणा के कारण मुस्लिमों को इस्लामी धर्म के संरक्षण के लिये कुछ भी चिन्ता करनेका कारण नहीं रहा। उनकी एकमेव चिन्ता थी की अपना धार्मिक आक्रमण लगातार बढाकर हिन्दुओं के पास  राजसत्ता आयी तो भी इस्लामी धर्म सत्ता की कक्षा भारत भर फैलान के  भगीरथ प्रयत्न चलाना है।
जिजामाता कार्य को और एक प्रशस्तीपत्र
अफझल खान अतुलित बलशाली, हिन्दु द्वेष्टा सरदार था। उसको मारकर शिवाजी,जिजामाता को मिलने राजगढ गयें, तब उन्होंने कहां, ‘संभाजी का बदला लिया,पराक्रम की शर्थ की मेरी आखें तृप्त हो गयी। भगवान की कृपा से यहस्वर्ण दिन आया है। अफझल खान वध से हिन्दुओं की शक्ति और मुस्लिम भयव्याप्त हुए।
सिद्दी जौहरने पन्हालगढ को घेर लिया था। दूसरी और से शाहिस्तेखान आक्रमण कर रहा था। कोई सेनापति नहीं था। फिर भी मराठी सेना ने वृकयुद्ध के सहारे छापे मारे। पन्हाळगढ का घेरा इतना पक्का था कि चींटी  भी घुस नहीं सकती थी। सिद्दी जौहर पर बाहर से आक्रमण करने से ठीक होगा ऐसा शिव छत्रपती सोच रहे थे। अपना पुत्र इस प्रकार फंस गया है यह देखकर जिजामाता स्वयं हाथ में शस्त्र लेकर सिद्ध हुई। नेताजी पालकर ने उनको रोका। शिवबा बहोत चतुराई से पन्हालगढ से निकल गये। माँ बेटे की भेट हुई इसका शब्दों में वर्णन करना असंभव है।
१६४२ से शहाजी राजे, जिजामाता की भेट नहीं हुई थी। स्वयं को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये पति विरह के दावानल में झोंककर उनकी तपस्या चल रही थी। १६६१ में शहाजी राजे महाराष्ट्र में आये। स्वराज्य प्राप्ति का जिजाबाई को सौंपा हुआ कार्य पुत्र के द्वारा सफल हुआ देखकर अनको बहोत आनंद  हुआ। परंतु वापस जाने के लिये वे मजबूर थे। तीन वर्ष बाद उनकी अपघाती मृत्यू हो गई। जिजाबाई सती जाना चाहती थी। परंतु शिवबा ने ने उनको रोका। स्वराज्य स्थापना के  कार्य में उन्होंने अपरंपार संकट झेले थे। परंतु शहाजी राजा का दु:ख जबरदस्त था। फिर भी खवास खान के आक्रमण का समाचार मिलते ही मंगलोर की ओर नौदल मोर्चे में व्यस्त शिवबा को उन्होंने पत्र लिखकर सचेत किया और उसका पराभव करने की सूचना दी। ‘हमारी मनोकामना पूर्ण करनेवाले सुपुत्र आप है।’ ऐसी आशा प्रकट की। विश्वासघातकी बाजी घोरपडे को और सावंत उनको भी छोडना नहीं था। राज्यकर्ता में कितना स्वाभिमान व चतुरस्त्रता चाहिए इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। १६६५ में  अपनी दिव्यचरिता मातोश्री की सुवर्णतुला शिवबा ने सूर्यग्रहण के समय की और वह सारा सुवर्ण दान कर दिया।
शिवाजी हर संकट के बाद अधिक बलशाली होता है यह देखकर औरंगजेब ने और एक चाल चली। जयसिंह और दिलेर खान को संयुक्त मोर्चे की आज्ञा दी। जयसिंह एक नैष्ठिक हिन्दु कहलाता था। वह दुसरे क हिन्दु को - जो हिन्वी स्वराज्य स्थापना के लिये कृतसंकल्प था। उसको  नामोहरम करनें में तैय्यार हुआ। शिवबा तो तह करना पडा। जब वह औरंगजेब से मिलने आग्रा गया तब उसको औरंगजेब ने कैद किया। औरंगजेब की कैद से शिवबा कैसे बाहर निकले यह सब जानते है। परंतु वे जब वापस आकर माँ को मिले तब जिजामाता को कितना आनंद हुआ होगा। आगरा में शेर की घुफा में जाना, प्राण बचाकर आना यह योजना अद्भूत थी । उसमें जिजामाता भी सहभागी थी।
प्रथम विवाह कोंडाणा का
जिजामाता स्वराज्य की प्रेरणा सभी में कितनी बलिष्ठ निर्माण की थी यह तानाजी मालुसरे कोंडाणा लेने के लिये अपने पुत्र का विवाह छोडकर जाते है इससे सिद्ध होता है।  परंतु धीरे धीरे जिजामाता ने अपना निवास पाचाड में किया। राज्यव्यवस्था से अपना मन हटाकर वे ईश्वरभक्ति में समय व्यतीत करने लगी। अब उनका पुत्र सक्षमता से राज्य संभाल रहा था। स्वप्न साकार हो रहा था।
स्वप्न साकार हुआ
अब जिजामाता की  एक ही इच्छा थी, ऐसे दिग्विजयी पुत्र का राज्याभिषेक देखने की। वह भी समारोह अत्यंत गरिमामय रीती से संपन्न हुआ। जिजामाता का जीवन कृतार्थ हुआ। इसी दिन के लिये जीवनभर उन्होंने प्रयास किये थे। वह उनके बेटे का राज्याभिषेक ही नही था। अपितु हिन्दु अस्मिता सिंहासनाधिष्ठित हो रही थी। हिन्दु शब्द उच्चारने के लिये थर्राने वाले हिन्दु का स्वत्व, स्वाभिमान आज गर्व से सिंहासन पर अभिषिक्त होने वाला था। यह हो ऐसी ईश्वर की इच्छा थी। क्योंकी यह ईश्वरीय देश है।  ईश्वरी इच्छापूर्ती का साधन बनने की कृतकृत्यता उसमें थी। यह समारोह देखने के बाद अपना जीवित कार्य पूर्ण हो गया है, यह शरीर छोडना चाहिए ऐसा उन्होंने सोचा और केवल दो सप्ताह के अंदर सचमुच वह चल बसी। इतने वर्ष अत्यंत ममता से लालन-पालन किया हुआ अपना पुत्र तथा स्वराज्य जनता को सौंपकर उन्होंने शरीर का मोह छोड दिया।

पुस्तक -जिजाऊ मातृत्व का महान मंगल आदर्श - सेविका प्रकाशन


धन्य जिजाई
स्वयं झुका है जिसके आगे हर क्षण भाग्य विधाता।
धन्य धन्य है धन्य जिजाई ,जगत वंद्य माता ।।धृ ।।
जाधव कन्या स्वाभिमानिनी क्षत्रिय कुल वनिता।
शाह पुत्र शिवराज जननी तू अतुलनीय माता। ।
माँ भवानी अराध्य शक्ति से तुझको बल मिलता।।१।।
राज्य हिन्दवी स्वप्न युगों का
अश्व टाप शिव सैन्य, काँपती मुगल सलतनत मन में ।
अमर हो गई तव वचनों हित सिंहगढ की गाथा ।।२।।
हर हर, हर-हर महादेव हर घोष गगन गुंजा।
महापाप तरू अफझलखां पर प्रलयंकर टूटा।
मूर्तिभंजन अरिशोणित से मातृचरण धुलता ।।३।।
छत्रपति का छत्र देखकर तृप्त हुआ तनमन ।
दिव्य देह के स्पर्श मात्र से सार्थ हुआ चंदन।
प्रेरक शक्ति बनी हर मन की जीवन जनसरिता  ।।४।।


देवी अहल्याबाई होलकर


$img_titleकर्तृत्व का महामेरू

राष्ट्र सेविका समिती ने प्रारंभकाल से ही देवी अहल्याबाई को कर्तृत्व के आदर्श रूप में माना है। गंगाजल के समान शुद्ध, पुण्यश्लोक, देवी अहल्याबाई अपने इतिहास का एक सुवर्णपृष्ठ है। देवी अहल्याबाई के प्रति अपने जनसामान्योंकी श्रद्धा, आदर तथा अपनेपन की भावनाओं को प्रतिबिम्बित करनेवाली एक लोककथा बतायी जाती है।
लोकमाता अहल्याबाई
वर्षा ऋतु में नर्मदा उफनती हुई बह रही थी। उसकी लहरे होलकर जी के राजगृह की दीवारोंसे टकरा रही थी। गांजा के नशें में धुत कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे। अचानक उन लोगोंमें से एक उठकर अपने हाथोंसे दीवार को सहारा देता हुआ खडा हो गया। अन्य साथी भी उसके बुलानें पर हाथों से दीवार को सहारा देने लगे। वहां खडे अन्य लोगोंने जब पुछा कि वे इस प्रकार क्यों खडे है, तब उत्तर आया, ‘क्या इतना भी नही समझते हो? अरे, अपनी माताश्री अंदर है। आओ, तुम लोग भी आ कर माँ को बचाने के काम में जुट जाओ।’
नशें में बेहोश व्यक्ति भी अहल्याबाई की सुरक्षा के बारें में कितना सजग है यह देखकर ऐतिहासिक सत्यासत्यता के अतिरिक्त जनमानस की भावना का दर्शन होता है।
व्यक्तिगत जीवन
देवी अहल्याबाई का जन्म जन्म इ. १७२५ में वर्तमान अहमदनगर जिले के जामखेड तहसील के चौडी नामक छोटे से ग्राम में हुआ। माणकोजी शिंदे की यह कन्या १२ साल की हुई। एक बार पेशवे महाराज ने शिव मंदिर में शिवजी के पूजा में लीन अहल्या को देखा । उन्होंने मल्लरराव से इस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने को कहां और २० में १७७३ इस शुभ दिन अहल्याबाई का विवाह खंडेराव के साथ संपन्न हुआ। वैभवसंपन्न होलकर कुल में गुण संपन्न अहल्याबाई ने पदार्पण किया। ऐसा ही मानसिक अवस्था में वह सन १७४५ में पुत्र मालेराव एवं सन १७४८ में कन्या मुक्ताबाई की माता बनी। पुत्र की दुराचारी वृत्ति से व्यथित सुभेदार मल्हरराव ने अहल्याबाई की योग्यता को परखते हुए उन पर कारोबार का अधिकाधिक दायित्व सौंपना शुरू किया।
अग्निपरीक्षा के क्षण
दि. २४ मार्च १७५४ में कुंभेरी की लडाई में खंडेराव की मृत्यू हुई। मल्हरराव के आग्रह पर अहल्याबाई ने सती होने का निश्चय बदलकर प्रजजनों की माता बनाना श्रेष्ठ माना। अहल्याबाई राजनीति का एक-एक पाठ मल्हरराव से ग्रहण कर पति के चिरवियोग का दु:ख कम करने का प्रयास कर रहीं थी। तभी सन १७६१ में उनको माँ की ममता देनेवाली उनकी सांस गौतमाबाई का स्वर्ग वास हुआ। और तीन साल के बाद ही सन १७६४ में उनके गुरू, मार्गदर्शक पितृसदृश आधारस्थान मल्हरराव की मृत्यू हो गई।
अब शासन का संपूर्ण दायित्व अहल्याबाई पर आया। उनका पुत्र मालेराव अपने दादजी जैसा दूरदर्शी राजनीति कुशल नहीं था। राजकार्य से भी उसे अधिक रूचि थी। जंगली जानवरों का शिकार खेलने में रूचि थी। पूजापाठ के लिये आनेवाले पंडितों कोजूतों में तथा दान पात्रोंमें बिच्छू इ. रखना और उनके दंश से पीडित पंडितों की  चीखें सुननें में उसे असुरी आनंद मिलता था। इन हरकतों को धेखकर तथा एक दर्जी के दुवर्तन से आशांकित मालेराव ने उसकी क्रुरता से की हुई हत्या से व्यथित अहल्याबाई ने अपने पुत्र को माहेश्वर में स्थानबद्ध किया। वहाँ पर ही उसकी मृत्यू हो गई।
देवी अहल्याबाई की कन्या मुक्ताबाई का पति यशवंत फणसे, एक होनहार युवक था। मुक्ताबाई का पुत्र जो जन्म से ही कुछ दुर्बल था, उसकी मृत्यु हुई। उनकी उत्तराधिकारी बनाने का देवी अहल्याबाई का सपना टूट गया। यशवंतराव इस सदमे को सह नहीं सका। उससे वो बीमार हो गये। तीन साल के अंदर ही वह भी अपने पुत्र के रासते चल पडें। मुक्ताबाई ने पति के साथ सती होने का निश्चंय किया। अहल्याबाई अपनी कन्या को इस निश्चय से परावृत्त नहीं कर पायी। देवी तीन दिकतक अपने कक्ष से बाहर नहीं आयी। नियती को अपनी विजय का आभास हुआ। परंतु लोकमाता अपनी भूमिका नहीं भूल सकी। अहल्याबाई ने राजकर्तव्य क कठरो;तापूर्वक पालन करते हुए मन:शांति एवं आत्मिक बल के लिये धर्मकृत्य में समय बिताती रही।
सदैव प्रतिकूल परिस्थितीयों और दुर्भाग्य से संघर्ष करने के कारण शरीर क्षीण होता गया। दि. १३ अगस्त १७९५ श्रावण ९भाद्रपद० कृष्ण चतुर्दशी का दिन. गंगाजल सम निर्मल जीवन प्रवाह अखंड शिवनाम स्मरण करते हुये शिवप्रवाह में विलीन हुआ।
श्रेष्ठ प्रशासक
देवी अहल्याबाई ने संस्थशन का कार्यभार संभाला। तब अनेक संकट उनके सामने थे। राज्य का पुराना अधिकारी गंगाधर चंद्रचूड राघोबादादा के सहयोग से बडी सेना लेकर इंदौर आ धमके। अहल्याबाई ने अपनी सेना के महिला पथ को सतर्क किया। और राघोबाको कहाँ, ‘मेरे पुरखोंनेअपने परिश्रम और पराक्रम से यह राज्य प्राप्त कियाहै। आक्रमण करने वालोंको मूंहतोड उत्तर दिया जाएगा। ‘अहल्याबाई ने पत्र भेजा कि, मेरी महिला सेना पर आपने विजय प्राप्त तो की तो भी आपको कोई बड्डपन नहीं मिलेगा। परंतु उल्टा हुआ तो आपकी हंसी उडाई जायेगी। इसका विचार करकेही आप युद्ध के लिये आगे बढे|’
राघोबा दादा हालात को समझ गयें उन्होंने देवी अहल्याबाई को संदेश भेजा। ‘मै आपसे लडाई नही अपितु आपके उकलौते पुत्र की मृत्यू परशोक प्रकट करने आया हूँ|’ अहल्याबाई ने प्रत्युत्तर भेजा। ‘शोक प्रकट करने के लिये इतनी बडी सेना का क्या काम? आप अकेले पधारे, घर आपका है। आपका स्वागत है|’ राघोबा बाजी हार गये। पालकी में बैठकर आयें। इस तरह से देवी ने राज्य को युद्ध के संकट से बचाया।
नारो गणेश नाम के अधिकारी की प्रमाणिकता पर देवी अहल्याबाई को संदेह था। इसलिये उस बंदी बनाया। तुकडोजी होलकर ने देवी अहल्याबाई को पुछे बिना ही उसे  रिहा कर दिया और पूर्व पद पर बिठा दिया। लेकिन अहल्याबाई अपने प्रशासन में यह परिवर्तन सहन नहीं करेगी इस भय से वह बहोत बेचैन हुआ। इसलिये महादजी शिंदे के पास जाकर अहल्याबाई को समझाने की प्रार्थना की। महादजी ने कहां, ‘श्रीमंत पेशवे, मुगल, भोसले इनमें किसी को कुछ समझाना है तो समझा सकता हूँ। किन्तु अहल्याबाई के बारें में यह असंभव है। क्योंकि वह बहुत सोच समझकर निर्णय लेती है अत: उसे बदलना कठिन है।
देवी अहल्याबाई के प्रशासन को दिया गया यह एक मौलिक प्रमाणपत्र  ही है।
सेनापति तुकोजी, सेना के व्य के लिये धन की माँग करता था। उसके बारें में सेना खर्च के लिये राज्य कोष पर निर्भर नही रहना चाहिए ऐसी स्पष्ट विचारधारा थी।  आवश्यक मात्रा में धन जरूर देती थी। परंतु पहले दिये गये धन का पुरा हिसाब प्राप्त होने के उपरान्त ही अगले किश्त देने की उनकी नीति थी।
वीरता का परिचय
देवी अहल्याबाई ने बार बार अपने अधिकारी नही बदले। परंतु किसी का एकाधिकार न हो इसके संदर्भ में वो सतर्क रहती थी। सेना में भर्ती के बारे में वो ध्यान देती थी। कर्नल बॉयड इंदौर में रहकर संस्थान की सेना को प्रामाणिकता से प्रशिक्षित करने के लिये लिखित रूप से वचनबद्ध था। अपराधी चाहे कितना भी बडा हो, इसकी गलती माफ नहीं की जाती थी। निर्धारित राशी से अधिक धन किसीसे नहीं लिया जोता था। देवी अहल्याबाई ने बार- बार युद्ध नही किया। एक बार चंद्रावत से युद्ध उसने होलकर शासन से किये हुए विद्रोह के कारण हुआ। अहल्याबाई को सामान्य महिला समझकर उन्होंने बडी भूल की। अहल्याबाई ने सेनानि शरीफभाई को बडी सेना के साथ भेजा और स्वयं युद्ध का संचालन किया। होलकर सेना की विजय हुई। सौभाग्य सिंह को तोफ के मूँह बाँधकर उडा दिया। उससे सारे देवी के शरण में आये।
न्याय व्यवस्था
देवी अहल्याबाई की निष्पक्ष न्याय व्यवस्था निश्चित ही अनुकरणीय एवं अभिमानास्पद है। महत्पुर के राजमूतोंने अपनी शिकयत प्रस्तुत करने पर देवी अहल्याबाई ने संबंधित कर्मचारियों को बुलाया और ११ सूत्रीय पत्रक दिया जो उनकी न्यायबुद्धि का द्योतक है।
रघुनाथसिंह निवाडी नामक एक रसोइयां के मरने के बाद वह निपुत्रिक ही थश ऐसे समझकर उसकी ४२६ रू. ३ आने ६ पाई की संपत्ती राजकोष में जमा कर दी गई। परंतु उनका एक पुत्र है। ऐसा पता चलने पर वह राशि तुरंत उस पुत्र को वापस देने को आदेश नदे दिया।
उनके राज्य में न्याय पाना बहोत ही सरल था। नागरिकों की उकने न्याय पर इतनी श्रद्धा थी कि उनकी आज्ञा न मानना वे पाप समझतो थे। श्रीमंत पेशवे द्वारा भी अगर किसीपर अन्याय हुआ तो देवी स्वयं उनसे बात करके न्याय दिलवा देती थी।
लुटेरे भील बने शूर सैनिक
उन दिनों भीलोंका उपद्रव बढा था। उनको कुछ सामंतो का आश्रय था। देवी अहल्याबाई ने उनके मुखिया को दरबार में बुलाया और लुटमार करके यात्रियों को परेशान करके का कारण पुछा-‘सीधे रास्ते से जीने का कोई साधन न होने के कारण यात्रियों को लुटना पडता है। ‘यह जवाब सुनकर उन्हें शस्त्र, वेतन और इज्जत देने की इच्छा देवी अहल्याबाई ने प्रकट की औरभीलों पर यात्रियों की सुरक्षाकी जिम्मेदारी सौंपी गयी। यात्रियों से एक कौंडी करके रूप में लेने की व्यवस्था शुरू की गयी, जो ‘भील कौंडी’ नाम से प्रसिद्ध है।
डाक व्यवस्था
इसवी १७८३ मेंअहल्याबाई ने महेश्वर से पुणे तक डक व्यवस्था चलाने का दायित्व पद्मसी नेन्सी नामक कंपनी को सौपा था। डाक लाने-ले जाने के लिये २० जोडियां थी। डाक पहुँचने में विलंब होने पर प्रतिदिन उत्तरोत्तर देर राशि में कटौती होती थी। कुछ हानि होने पर कंपनी से क्षतिपूर्ति ली जाती थी।
अपमानों का चिन्ह मिटाया
तीर्थयात्रा करते समय देवी अहल्याबाई ने जब भग्न मंदिरोंके अवशेष देखे तो उनका मन पीडा से व्यथित हुआ। इन मंदिरोंमें फिर से पूजन, धार्मिक ग्रंथों का पठन हो इसलिये योजना बनाई। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से बद्री नारायण से लेकर रामेश्वर तक व द्वारका से लेकर भुवनेश्वर तक अनेक मंदिरो का पुन:निर्माण किया। धर्मस्थल शासनावलंबी न हो स्वावलंबी हो इसलिये उन्होंने उनको भूखंड दान दिये। इस प्रकार के धार्मिक कार्य के लिये संपूर्ण व्यय देवी अहल्याबाई ने अपनी व्यक्तिगत संपत्ती से ही किया। व्यक्तिगत संपत्ती का हिसाब के समान रखती थी। व्यक्तिगत धर्म से अधिक महत्व राष्ट्र धर्म को देती थी। उन्होंने धर्म धर्म क्षेत्र को राजाश्रय दिया। परंतु राष्ट्रीय स्वरूप भी प्रदान किया। राजनीतिक प्रदेश भिन्न होंगे परंतु उनको सांस्कृतिक एकात्म रूप दिया अहल्याबाईने। उनके मानव धर्म का लाभ पशु-पक्षियों को भी मिला। अनेक विद्वान अभ्यासकोंको राजाश्रय दिया। गंगाजल की कावड निर्धारित स्थान पर और निर्धारित समय पर पहुँचाने की व्यवस्था स्थायी रूप से की है। बुनकर उद्योग को प्रोत्साहन स्वरूप अन्न, वस्त्र, निवारा, उद्योग के लिये धन एवं तैयार कपडे बेचने की वयवस्था की। महेश्वर को राजधानी बनाते समय वहाँके ग्रामजनों का पूर्ण सहयोग लिया। अपनी राजधानी सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बनाने के पयास किये। राजकीय व धार्मिक दृष्टि से देवी अहल्याबाई का जीवन बेजोड था।
जयजयतु अहल्यामाता
हे कर्मयोगिनी । जयतु अहल्यामाता। जयजयतु अहल्यामाता ।
युगो युगों तक अमर रहेगी यशकीर्ति की गाथा। जय जयतु अहल्या माता  ।।धृ।।

दीप ज्योतिसम तिल तिल जलकर, स्वार्थ भावना परे त्यागकर
पूज्य बन सकी सतत प्रवाहित, उज्जवल जीवन सरिता ।।१।।

कर्म भविष्य की प्रबल धारणा, कभी किसी से की न याचना
यज्ञ रूप जीवन ज्वाला में प्रखर हुई तब आभा ।। २।।

जीवन भर स्वजनों का सह दु:ख, कर्तव्यों से हुई न परमुख
नीलकंठ सम गरल पानकर क्षण-क्षण जीवन बीता ।।३।।

अन्न क्षेत्र धर्मात्म चलायें मंदिर घाट कुएँ खुदवाएँ
परार्थ- सुख जीवन को सार्थक दिव्य चरित्र की गाथा ।।४।।


नेतृत्व की तेजस्वी ज्योति - रानी लक्ष्मीबाई



$img_title१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम को अपने नेतृत्व से नया आयाम देनेवाली साहसी, शूर युवती का चरित्र नित्य प्रेरणा देनेवाला है। उनकी तेजस्विता स्वदेशाभिमान, स्वातंत्र्य प्रेम अभूतपूर्व था।
उनका जन्म वाराणसी में कार्तिक कृ. १४ नवम्बर १८३५ को हुआ। मोरोपंत तांबे तथा भागिरथी की यह कन्या का मनकर्णिका मनु छबेली नाम से परिचित थी। ब्रह्मावर्त में दुसरे बाजीराव पेशवा के आश्रय से तांबे परिवार रहता था। बाजीराव के पुत्र रावसाहब और नानासाहब के साथ मनु की भी शिक्षा प्रारंभ हुई। पेशवा ओंके सान्निध्य से उनके मन में स्वतंत्रता का स्फुल्लिंग सुलग उठा। उसकी ही प्रलयंकार ज्वालांएँ १८५७ में प्रकट हुई।
तेजस्वी बाल्यकाल
मनु के बालजीवन की एक दो घटनांएं प्रसिद्ध है। वह छोटी थी तब उसको गंगा माता के किनारे जाकर बैठने की आदत थी। ऐसे ही एक दिन घांट पर नदी प्रवाह में पैर डालकर वह बैठी थी तब दो- चार अंग्रेजी सिपाही आये और घाटों पर बैठनेवाले सभी को हटाने लगे और ‘मॅडम आ रही है उठो, हटों ‘का शोर मचा। सभी लोग डर के मारे भागने लगे परंतु मनु वैसे ही बैठी रही। ऐसा देखकर सिपाही गुस्सा हो गये। छोटी सी मनु निर्भयता से उनको पुछती है। कौन आ रहा है? सबको क्यूँ हटा रहे हो? ‘जब पता चला की कोई अंग्रच अधिकारी की पत्नी आ रही है तो मनुने कहां, ‘वह कौन होती है हमें हटानेवाली? गंगामैय्या हमारी है। हम नहीं हटेंगे।’ वे जबरदस्ती से हटाने लगे तो वह चिल्लाकर प्रतिकार करती रहीं। नानासाहब और रावसाहब घुडसवारी का अभ्यास कर रहें थे तब घोडा एकबार बेकाबू हो गया। और नाना साहब गिर गये। मनु ने यह देखा तो वह जोर से हंस पडी। नानासाहब को बहोत गुस्सा आया। नोकर उनको उठाकर ले गये। दुसरे दिन मनु उन्हें देखने गई। नाना साहब का गुस्सा उतरा नहीं था। मनु आती हुई देखकर उन्होंने दीवार की ओर मुंह फेर लिया। मनु के पुछने पर उन्होंने बताया कि, ‘हम गिर गये, और तुम हस रहीं थी? अगर तुम गिर जाती तो? ‘मनु अबतक मजाकी मानसिकता में थी। अब गंभीर होकर बोली, ‘एक तो मै घोडे पर ऐसी पकड रखूंगी की घोडा बेकाबू होकर मै कभी गिरूंगी नहीं और यदा कदा गिरूंगी तो रोऊँगी नहीं। जो कुछ होगा धैर्य से सह लूँगी’ मनु की नियती ही मानो बोल रहीं थी।
राज परिवार के होने का कारण नाना साहब राव साहब हाथी पर बैठ रहे थे। छोटी मनु के मन में भी हाथी पर बैठने की इच्छा हो रही थी तब उसको कहां गया, ‘तुम तो आश्रित की बेटी हो, राजवंश के लोग ही हाथी पर बैठते है। ‘मनु को घोर अपमान महसूस हुआ। उसने कहां कि आप भी देखेंगे की मेरे दरवाजें पर ४-४ हाथी झूलेंगे। और सचमुच मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर पंत नेवालकर से हुआ। हाथी पर बैठकर रानी की शांन सेही उन्होंने झांसी में प्रवेश किया। तुरंत उसने एक हाथी बहोत सजाधजाकर ब्रह्मावर्त में भेट रूप भेज दिया। ऐसी है यह मानिनी।
नेवालकर पूर्व इतिहास
गंगाधर पंत के पूर्वज रघुनाथराव इ. स. १७७० में झांसी के सूबेदार बने। उनके भाई शिवराम भाऊ १७७१ में सूबेदार बने। बसई समझौते के पश्चात १८०४ में अंग्रेजी और शिवराम भाऊ में समझौता हुआ उसके अनुसार झांसी का राज्यवंश परंपरागत शिवरामभाऊ के वंशजों को ही मिलेगा ऐसा तय हुआ। शिवरामभाऊ के पुत्र गंगाधर राव इ.स. १८४२ में झांसी के अधिपति बने। ३० लाख रू. आमदनीवाला हिस्सा अंग्रजों ने झांसी में व्यवस्था हेतु रखी अपनी सेना की व्यवस्था के लिये रख लिया।
वैभव संपन्नता
गंगाधर राव के राज्य में शासन तथा न्याय की उत्तम व्यवस्था थी। ठाकुर, बुंदेले का विद्रोह उन्होंने दबाया। परंतु वे रसिक, कलाप्रेमी थे। कलाकारों को आश्रय देते थे। उनका महालक्ष्मी का मंदिर जगमगाता था। उनके पास ९२ हाथी, १०० घोडे ,५०० घुडसंवार और ५००० पदाति थे। स्थान-स्थान पर बगीचे, तालाब नाट्यगृह थे।
ऐसे सुंदर, वैभव संपन्न राज्य की स्वामिनी मनु बनी थी। गंगाधर राव को पुत्र नहीं था। पत्नी का स्वर्गवास हुआ था। कला सक्त राजा को संभालने वाली रानी आयेगी तो वह झांसी को बचायेगी। अंग्रजों की आखें इस राज्य पर गडी थी। मनु जैसी दृढ निश्चयी , देशप्रेमी युवती उनसे टक्कर ले सकती है। इस राजनीतिक उद्देश्य से यह विवाह हुआ ऐसे माना जाता है।
१८४२ में गंगाधर पंत और मनु का विवाह हुआ। दोनों की आयु में अंतर था। १८५१ में लक्ष्मीबाई को पुत्र हुआ परंतु वह अल्पायु रहा। इस आघात से गंगाधर राव का स्वास्थ्य गिरने लगा। राजवैद्या की दवाइयां व रानी लक्ष्मीबाई की सेवा का विशेष उपयोग नहीं हो रहा था। अत: एक बालक गोद लेने का निर्णय किया। गोद लिये हुए बालक का नाम दामोदर रखा गया। इस समारोह में झाँसी राज्य के पॉलीटिकल एजेंट एलिस, सेना का प्रमुख अधिकारी मेजर मार्टिन मोरोपंत आदि लोग उपस्थित थे। कंनी सरकार को दत्तक विधान की स्वीकृती देने हेतु आवेदन पत्र गंगाधर राव ने भेजा। समय-समय पर अंग्रेजी को दी हुई सहायता एवं उनके साथ किये हुए संधी की ९ वी शर्त का स्मरण दिलाया गया।
झांसी अनाथ हुई
आखिर गंगाधर राव का शरीर दि. २० नवंबर १८५३ को शांत हुआ। झांसी शहर शोक सागर में डूब गया। लक्ष्मीबाई पर कुटराघात हुआ। मेजर मार्टिन और एलिस ने सांत्वनापत्र भेजा परंतु उसी समय उन्होंने राज्य का खजाना मुहरबंद किया। शिंदे की ६वी टुकडीको उसके संरक्षण का दायित्व दिया। श्री. गंगाधर राव के पत्र का उत्तर नहीं आने पर लक्ष्मीबाई ने १९ फरवरी १८५४ को गवर्नर जनरलके पास पुन: आवेदन पत्र भेजा।
विस्तारवादी नीति
लॉर्ड डलहौसी की नीति थी कि किसी का भी दत्तक विधान मंजूर नहीं करनाऔर वह राज्य कंपनी राज्य से जोडना तथा अंग्रेजी राय का विस्तार करना। अत: रानी लक्ष्मीबाई के पत्र का एकही उत्तर आनेवाला था आया भी। झांसी का राज्य अंग्रजी राज्य में विलीन करो। ‘दत्तक विधान को मान्यता नहीं दे सकते। ‘एलिस यह पत्र लेकर रानी लक्ष्मीबाई के दरबार में पहुँचा। तब सिहनी जैसी गरजकर वो बोली, ‘ मै मेरी झांसी नहीं दूंगी। ‘एलिस को ऐसी अपेक्षा नहीं थी। अपनी भुमि, अपने राज्य विदेशियों को सौंपकर गुलाम बनना स्वीकार करना रानी के लिये असंभव था। परंतु अंग्रेजी बलशाली थे। उनकी हडपनीति के शिकार झांसी जैसे पंजाब, सातारा,  नागपूर, अयोध्या,  आदि अनेक राज्य थे।
महारानी लक्ष्मीबाई ने राजनीति के तहत अपना गुस्सा पी लिया और प्रतिशोध का अवसर खोजती रहीं। जांसी आते ही युद्धकाल का अपना शौक पति को बताकर महिला पथक तैय्यार करवाये थे। उसने कभी गहनें की वस्त्र की चाह नहीं रखी। इसका गंगाधरराव को आश्चर्य लगता था। उन दिनों में महिलाओं को घर से बाहर मैदान में आना समाज को पान्य नहीं था। परंतु रानी लक्ष्मीबाई ने अपना शौक पूरा करने के लिये पति को मना लिया। उसका अब उपयोग होगा यह सोचकर रानी ने अपने व्यक्तिगत आपत्ती के कारण शोक में न डूबते हुए महिला सैनिकों का अभ्यास चलता रहे यह देखा।
विस्फोट की ज्वालाएं
७ मार्च १८५४ को झांसी राज्य की स्वतंत्रता पूरी तरह समाप्त हुई। अंग्रेजों की सत्ता आकर १०० साल पूरे होनेवाले थे। अंग्रेजों के अत्याचार बढते ही जा रहें थे। अपनी भारत माता का धीरे-धीरे गुलामी की शिकंजे में फसाने का उनका कुटिल षडयंत्र सभी के ध्यान में आया था। विदोह की ज्वाला भीतर ही सुलग रहीं थी। ३१ मई सार्वत्रिक विद्रोह एक साथ करने की योजना में अनेक लोग सम्मिलित हो रहे थे। रोटी और कमलपुष्प का संकेत चिन्ह था। परंतु अचानक १० मई १८५७ को विस्फोट हुआ मेरठ की छावनी में बंदूक की गोलियों को गाय या सुअर की चरबी लगायी जाती है वह मूंह से खोलना पडता था। यह धर्मविरूद्ध आचरण का पाप हम कर रहें है, ऐसी भावना फैलती गयी। सैनिक जब बाजार में जाते थे। तब महिलायें उन्हें चिढाती थी या कभी चूडियाँ भेट करती थी। चरबी की घटना के कारण छावनी में क्षोभ फैलाव १० मई को मंगल पांडे ने विद्रोह कर दिया उसको तोप से उडाया गया। अन्य ९० सैनिकों को १० साल के लिये कारावास में भेजा गया। इस घटना ने तो आग में घी डाल दिया। अंग्रेज अधिकारियों की हत्या करना, उनके बंगलों को आग लगाना, कारागृह तोडना आदि का सिलसिला चल पडा। सैनिक अपनी छांवनी छोडकर दूसी छावनीयों में जाकर वहां विद्रोह की ज्वाला जलानें में लगे। ४ जून १८५७ को झांसी सेना की ७ वी टुकडी झांसी के किलें में प्रवेश कर अपना अधिकार जमा लिया। गोरे अधिकारी गोलियों से भूने जाने लगे। उन्होंने किले में आश्रय लिया। क्रांतिकारी वहां भी पहुँचे। वहां भी गोलियां चली। अंग्रजों ने संधि का निशान फहराया। किला क्रांतिकारियों की घोषणा थी। ‘खुल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अंमल रानी साहिब का’ ८ जून को किला रानी को सौंपकर क्रांतिकारी दिल्ली की ओर बढे।
८ जून १८५७ से ४ अप्रैल १८५८ तक रानी का अत्यंत गौरवशाली कार्यकाल रहा। परंतु उनको घर के शत्रुओंसे ही निपटना पडा। साशिवराव पारोलकर झांसी के राज्य उत्तराधिकारी के नाते खडे और करेरा का किला अधिकार में लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने  सेना की सहायता से वह किला जीत लिया।  ओरछश के दीवान नत्थे खां का आकमण भी रानी ने सफलता पूर्वक लौटाया। उसे युद्ध का खर्चा वसूल किया।
तेजस्वी व्यक्तिमत्वकी धनी
रानी लक्ष्मीबाई अत्यंत तेजस्विनी थी। दरबार में वह अत्यंत आत्मविश्वास से शुभ्र वेश धारण कर या पुरूषी वेश पहन कर फेटा बांधकर आती थी। कुशल रीती से न्याय करना, गुणवंतो का सम्मान करना, निर्भयता धैर्यशीलता, साहस ये  ये उनके कुछ विशेष गुण थे। शूरवीर सैनिकों को भी उदार उदार मन से सहाय्य करती थी। युद्ध में घायाल हुए सैनिकोंकी वह खुद पुछताछ करके मलमपट्टी करती थी। बहोत घायल या मरणोन्मुख सैनिककी अंतिम इच्छा पुछती थी। कुछ सैनिक उनके मातृस्पर्श की अपेक्षा रखते थे। उनके मन में विश्वास थाकी हमारी रानी हमारे परिवार की पूरी चिन्ता करेगी। मातृत्व की झालर होनेवाला जैसा नेतृत्व यहीं हमारी परंपरा है। नेता के बारें में पूर्ण विश्वास यहीं नेता का बल है।
अपने ११ मांस के कार्यकाल में रानी लक्ष्मीबाई ने काफी शस्त्र व बारूद का संग्रह किया। तोपें व बारूदे बनाने के कारखाने भी प्रारंभ किये। दूरदर्शिता के कारण उसने समझ लिया था अग्रेजो से घनघोर युद्ध करना पडेगा। और सच २१ मार्च को ह्यू रोज झांसी में पहुंचा। मार्ग में सागर, वाणपूर,शहागढ,के क्रांतिकारियों पर विजय प्राप्त की थी। ह्यू रोज ने मौके के स्थान पर मोर्चे लगायें। रानी लक्ष्मीबाई के पास शक्तीशाली ८० तोपे थी। खुदाबक्ष और गौसखान ये ये दो अत्यंत एकनिष्ठ तोपची थे। बारूद खाद्य सामुग्री आदि में स्त्रियां भी पीछे नहीं ती।
एक बुंदेला सैनिक ने अंग्रजों का मोर्चा लगाने का मौके का स्थान बताया। रानी साहिबा के निवास स्थान के सामने वाले मैदान पर ही गोल-बारूद का कारखाना थां। वहां एक गोला आकर गिरा। जोरदार धमाका हुआ और अपरिमित हानी हुई
दि. १ अप्रैल को २० हजारकी सेना लेकर सहाय के लिये तात्या टोपे आ रहें थे। उनके सैनिक प्रशिक्षित तो थे नही। रास्ते में उनको घेरकर अंग्रजों ने हमला किया तो उनको भागना पडा। फिर भी अंग्रेज झांसी के किलें में घुंस नहीं पाये। झांसी के नागरिक, हर सैनिक ने प्रतिकार किया। भेदवृत्तीके जयचंद की कुछ कमी नहीं रहती, ऐसा ही एक जयचंद निकला उसने किले का दरवाजा खोल दिया। अंग्रज आसानी से अंदर घुंस गये। रानी चडिका अवतार लेक वहां दौड गई और शत्रु की जोरदार कत्तल करना शुरू किया लेकिन अंग्रेज की संख्या जादा होने के कारण उन्हें लौटना पडा। झांसी के रास्ते रास्ते पर नागरिकों की कत्तल लगातार तीन दिन होती रहीं। शव ही शव बिखरे थे। दुर्गंध सभी और फैल गयी। रानी महाल भी टूट गया। उनका अमूल्य ऐसा ग्रंथ संग्रह भी उध्वस्त किया गया। काफी क्षति पहुंची थी। परंतु वे हमारी बुद्धी तो नहीं जला पायें।
प्रजावत्सल रानी माँ का ह्रदय अपने लोगांकी यह दुर्दशा देखकर द्रवित हुआ। वह अतीव निराश हो गयी। फिर भी सभी से की हुई बात के अनुसार किले से बाहर निकलकर राव साहब की सेना से मिलकर प्रयत्न करने का तय हुआ। इस युद्ध में रानी ने युद्ध का उत्कृष्ट संचालन किया।
सर ह्यू रोज को यह पता चलने पर वह आश्चर्यचकित हुआ। झांसी पे कालपी १३० मील की दूरी २२ घंटो के अंदर काटकर वहीं कोलपी पहुंची। तात्या टोपे ने युद्ध का नेतृत्व किया परंतु यश नहीं मिला। परंतु विचलित न होते हुए रानी ग्वालियर की ओर बढी। परंतु शिंदे साथ नही मिली। युद्ध में सेना की व्यूहरचना बडी ही कुशल थी। उस दिन उनके हाथ में नेतृत्व नहीं था। इस भीषण रन में उनकी सखी सुंदराबाई पर हमला करनेवालोंपर उसने मौत के घाट उतार दिया। महारानी लक्ष्मीबाई पकडकर देनेवालों को २०,००० रु. का इनाम अंग्रज सरकारने रखा था। रणक्षेत्र में ही उनकी प्राणज्योत शांत हुई। गंगादास बाबा ने कुटी में ही उनपर अग्नि संस्कार कर दिये। ‘मै क्या मेरा एक बाल भी अंग्रजों को नही मिलेगा’ यह उनकी प्रतिज्ञा उन्होंने सच कर दिखायीं। वह दिन था दि. १८ जून १८५८ ज्येष्ठ शुद्ध ७
क्रांतियुद्ध में सतत अग्रेसर रहकर हजारों वीरों का स्फूर्ति स्थान होनेवाली रानी लक्ष्मीबाई की युद्धकुशलता किसी पुरूष से कई गुना श्रेष्ठ थी। उनकी तेजस्विता का प्रभाव शत्रु पर ही पडा था। राजमाता के नाते उन्होंने काफी समाज कार्य किया। सामान्य लोगों में वो घुल-मिलकर बातचीत करती थी। उनके सुखदुख पुछती थी। अपनों के लिये ममतामयी माँ होनेवाली यह सुजनता की मूर्ति राष्ट्रीय भावना से प्रेरित हुई थी। हाथ में तलवार लेकर रणरागिणी बनकर बिजली जैसी चमकती थी तब शत्रु थर्रा गये।

अध्ययन हेतु पुस्तके 
१) झांसी की रानी-वृंदावनलाल शर्मा 
२) क्रांतिकथाएँ- श्रीकृष्ण सरल

खड्गधारिणी तुम्हें देत मानवंदना,
शत्रुसंहारिणी तुम्हारी आज अर्चना  ।।धृ।।
 शाम शांत धी मूर्ति तेजोमयि दिव्यकांति
अश्वारूढ देवि क्रान्ति! बार बार वंदना  ।।१।।
स्वाभिमरन दीप्त ज्योति बिजलीसे चंचल गति
वीरों को दे रहीं चंडीमूर्ति चेतना  ।।२।।
बीत गया वत्सरशत युद्धानल सर्व शांत
स्वतंत्र राष्ट्र आज स्मरें तुम्हारी तप: साधना  ।।३।।
राणी लक्ष्मी अमर नाम आर्य नारी का विक्रम
पुण्यरूप लो हमारी नम्र पूज्य भावना  ।।४।। 
जय जय कार करो लक्ष्मी का
जय जयकार, जयजयकार.जय जयकार करो लक्ष्मी का जो रणचंडी अवतार ।।धृ।।
तांबे कुल में जनम लिया, जिन मातुपिता यश फैलाया

रानी बन झांसी में आयी,राजवंश का मान बढाया
सैनिक शिक्षण दे सखियों को, महिला पथक किया तैय्यार ।।१।।
हुआ आक्रमण जब झांसी पर, शासन छोडो बोला गोरा
मेरी झांसी कभी न दूँगी, कडक बिजली काँप उठी घरा
रक्षण करने हिन्दु राष्ट्र का, हुई भवानी तब साकार  ।।२।।
स्वतंत्रता के प्रथम समय की, सेनानी यह वीर शिरोमणि
किया युद्ध का सफल संचलन, सरण में चमकी थी रणलक्ष्मी
दुष्ट दुर्जनोंका महिषासुर का मर्दिनी ने ही किया संहार ।। ३।।
एक बार पुनि आज दुहिते करती माता तुझे स्मरण है
पारतंत्र्य की लोह शृंखला, करने लगी पुन: झन झन है
स्वतंत्रता की ग्योति जलाओ, सुनो हमारी आर्त पुकार  ।। ४।।
                                                                                 संकलित 

नमामो वयं मातृभूः पुण्यभूस्त्वाम्
त्वया वर्धिताः संस्कृतास्त्वत्सुताः
अये वत्सले मग्डले हिन्दुभूमे
स्वयं जीवितान्यर्पयामस्त्वयि ।।१।।

नमो विश्वशक्त्यै नमस्ते नमस्ते
त्वया निर्मितं हिंदुराष्ट्रं महत्
प्रसादात्तवैवात्र सज्जाः समेत्य
समालंबितुं दिव्यमार्गं वयम् ।।२।।

समुन्नामितं येन राष्ट्रं न एतत्
पुरो यस्य नम्रं समग्रं जगत्
तदादर्शयुक्तं पवित्रं सतीत्वम्
प्रियाभ्यः सुताभ्यः प्रयच्छाम्ब ते ।।३।।

समुत्पादयास्मासु शक्किं सुदिव्याम्
दुराचार-दुर्वृत्ति-विध्वंसिनीम्
पिता-पुत्र-भ्रातृंश्च भर्तारमेवम्
सुमार्गं प्रति प्रेरयन्तीमिह ।।४।।

सुशीलाः सुधीराः समर्थाः समेताः
स्वधर्मे स्वमार्गे परं श्रद्धया
वयं भावि-तेजस्वि-राष्ट्रस्य धन्याः
जनन्यो भवेमेति देह्याशिषम् ।।५।।

भारत माता की जय।।







प्रार्थना का हिन्दी में सरल अनुवाद

१) हे मातृभूमे, हे पुण्यभूमे, ये तरी कन्याएं- जिनका संवर्धन और संस्करण तूने किया है – वे तुझे वंदन करती है, हे वत्सले, मंगले, हिन्दुभूमे तेरे लिए हम स्वयं अपना जीवन समर्पण कर रही है।

२) हे विश्वशक्ति, तुझे नमस्कार। इस महान् हिन्दु राष्ट्र का निर्माण तूने किया है। यह तेरी ही कृपा है कि हम इस दिव्य मार्ग का अवलंबन करने के लिए सुसज्जित होकर संगठिम हुई है।

३) जिस सतीत्व ने इस राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाया है जिसके सामने समग्र विश्व नम्र होता है, उस आदर्श, पवित्र सतीत्व को हे अम्बे अपनी प्रिय कन्याओं को प्रदान करो।

४) दुराचार और दुर्वृत्तिओं का विध्वंस करनेवाली दिव्य शक्ति हमे प्रदान करे, तथा पिता, पुत्र, बंधु और पति इन सबको सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाली दिव्य-शक्ति हमें प्रदान-करो।

५) हम सुशील, सुधीर, समर्थ और संगठिम बने, स्वधर्म और स्वमार्ग पर अत्याधिक श्रद्धा करें। हम भावी तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ जननी बन सकें, यह आशीष दो।

समिति की प्रार्थना

राष्ट्र सेविका समिति प्रार्थना भारतीय नारी की आशा आकांक्षाओं की नितांत सुन्दर अभिव्यक्ति है। जीवन के प्रारंभसे ही प्रार्थना करने की मानवीय प्रवृत्ती रही है। जिन जीवनमूल्यों के कारण भारत गौरव शिखारका उच्च स्थान सम्मानपूर्वक प्राप्त कर सका उनको सुरक्षित, अबाधित रखने के लिए समुचित शक्ति (शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मिक) प्राप्त करना आवश्यक है। मानवी प्रयत्नके साथ-साथ दैवी कृपा भी हो तो मणिकांचन योग कहा जायेगा। इसलिये अपने से श्रेष्ठ शक्ति के सम्मुख नम्रतापूर्वक अपनी मनोकामना व्यक्त करने में लाचारी नहीं क्यों कि वह श्रेष्ठ दैवी शक्ति हमारी मनीषा पूर्ण करेगी इसका हमें विश्वास है। अपनत्व का यह नाता शब्दों से प्रगट करना (सर्वथा) असम्भव है।

प्रार्थना का उद्देश्य व्यक्ति विशेष के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है। कोई केवल तपस्या के लिये, कोई शक्ति के प्राप्ती के लिये, तो कोई सुखशांति के लिये प्रार्थना करता है। भक्तिभाव से की हुई प्रार्थना में समर्पणभाव भी रहता है। ऐसी प्रार्थना से व्यक्तिगत जीवनमें सुप्तशक्तियोंका विकास होकर जीवन तेजस्वी होगा ऐसा विश्वास रहता है। सभी धर्मो और पंथो में प्रार्थना का स्वतंत्र स्थान है। अपने इष्टदेवता के सम्मुख मन से अथवा भावूपर्ण शब्दों से उच्चारण करना ही प्रार्थना है। ध्येय का ध्रुवतारा सतत दृष्टि के सामने स्थिर रहने के लिये तथा वहाँ तक हमें पहुँचना ही है, इसका ध्यान रखने के लिये प्रार्थना आवश्यक है।

समिती की प्रार्थना सामूहिक होती है। समाज की आशा आकांक्षाए केन्द्रित होनेपर निर्माण होनेवाली प्रचण्ड शक्ति परिस्थिती में आमुलाग्र परिवर्तन ला सकती है। सामुहिक प्रार्थना हमें व्यक्तित्व की संकुचित सीमा से समाष्टि के विशाल परिघि तक पहुंचाती है। हम सब एक है ऐसी अनुभूति निर्माण करनेका सामथ्र्य सामूहिक प्रार्थना मे है। मै से हमतक पहुँचने के लिये सामूहिक प्रार्थना नितान्त आवश्यक है। जो कुछ माँगना है वह सबके लिये, अपने समाज के लिये, अपने राष्ट्र के लिये। व्यक्तित्व की संकुचित सीमा से समष्टि की विशाल परिघि में प्रवेश करना इस कारण सुलभ होता है। ऐसे ही राष्ट्रीय प्रार्थना का उदय हुआ था।

Greatest pleasure of the greatest number यह आधुनिक संकल्पना नही। हमारे पूर्वजोने ऋषि मुनियोंने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय यही उद्दिष्ट सामने रखकर वैदिक काल में सामूहिक प्रार्थना की थी।

प्रार्थना संस्कृतमें क्यों?

प्रारंभ में समिती शाखाओं में मराठी भाषा में प्रार्थना बोली जाती थी। किन्तु समिति का प्रचास, विस्तार जब महाराष्ट्र से बाहर अन्य प्रांतो मे होने लगा तब सबको समझने वाली, मन में उत्साह तथा चेतना जगानेवाली पूरे भारत वर्ष में परिचित ऐसी संस्कृत भाषा में प्रार्थना लिखी गई। संस्कृत सुसंस्कारित लोगोंक भाषा है। वह अन्य भारतीय भाषाओंकी जननी होने के कारण भारत में मान्यताप्राप्त है। वह हमारे ज्ञानका भांडार है। उसको देववाणी या गीर्वाणवाणी भी कहा जाता है। भारत के सभी प्रांतों को एक सूत्र में ग्रथित कर उनमे सामंजस्य, एकात्मता, प्रेमभाव निर्माण करने का संस्कृत भाषा एक श्रेष्ठ माध्यम है। कार्य का अखिल भारतीय स्वरूप ध्यानमें रखते हुए समिति की प्रार्थना संस्कृत भाषा में लिखी गई।

शाखा स्थानपर परम पवित्र भगवे ध्वजके सम्मुख नियमित रूपसे बोली जानेवाली प्रार्थना यह अपना मंत्र है। उससे हमें प्रेरणा मिलती है। मननात् त्रायते इति मन्त्रः। शब्दों को मंत्र का सामथ्र्य तभी प्राप्त होता है जब उनके शब्दों का अर्थ का चिंतन, मनन, निदिध्यास के लिये की हुई तपस्या सफल होती है। हर मंत्र का एक विशिष्ट तंत्र होता है। तंत्र याने आचरण के नियम। मंत्र व तंत्र के सामंजस्य से ही मंत्र सफल (सिद्ध) होता है। वह अपना सुरक्षा कवच होता है। इसलिये प्रार्थना के प्रत्येक शब्द का अर्थ समझ लेना, उसपर चिंतन करना, उसके अनुसार आचरण करना सभी सेविकाओं का आद्य कर्तव्य है।

तपःपूत शब्दों का शुद्ध उच्चारण लाभदायी तथा अशुद्ध उच्चारण हानिकारक होता है।

‘दुष्टः शब्दो स्वरतो वर्णतो वा। मिथ्या प्रयुक्तः न तमर्थमाह। स वाग्वज्रोयजमानं हिनस्ति। यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात।।' इस प्रसिद्धध उक्ति से यह स्पष्ट होता है की केवल शुद्ध उच्चारण ही पर्याप्त नही है, अर्थ भी समझना चाहिये। बिना अर्थ समझे मंत्र पठन करना बोझ ढोने जैसा है।

‘प्रार्थना' शब्द मे दो पद है। प्र-अर्थना। यह एक निवेदन है, परन्तु इसके पीछे तपस्या की शक्ति है। प्रार्थना में भक्ति के साथ-साथ समर्पण भावना होती है। आन्तरिक सुप्तशक्तिओंका विकास होकर जीवन तेजस्वी होता है। दैवी गुणों से युक्त तेजस्वी राष्ट्रशक्ति का निर्माण यह हमारी महती आकांक्षा है। वह प्रार्थना के प्रत्येक शब्द में प्रकट होती है। हम दैवी राष्ट्र के अनुचर है उसीके कारण संपूर्ण विश्व में सुखशान्ति का साम्राज्य आएगा ऐसा हमारा विश्वास है।

प्रार्थना के अन्त में ‘भारत माता की जय' ऐसा बोलते है। ‘भारत हमारी माता है' यह संस्कार इससे दृढ होता है। मेरी माँ को कलंक लगेला ऐसा आचरण तथा व्यवहार नही करना चाहिये। ऐसा नैतिक भाव मनमें निर्माण होगा तब अनिर्बंध आचरण पर रोक लगेगी।

१)अन्वय - हे मातभूः हे पुण्यभूः त्वया वर्धिताः संस्कृताः
वयं त्वत्सुताः त्वाम नमामः। अये वत्सले, मंगले
हिंदुभूमे, (वयं सर्वाः) स्वयं जीवितानि त्वाम् अर्पयामः।
अर्थ - हे मातृभूमे, हे पुण्यभूमे भारतमाते, तूने ही पाली हुई संस्कारित की हुई हम तेरी कन्यायें तुझें वन्दन करते है। हे वत्सले, मंगले हिंदूभूमे हम स्वयं अपने जीवन तेरे चरणों में अर्पण करते है।।१।।

२)अन्वय - नमो विश्वशक्त्यै नमः ते नमः ते।
त्वया महत् हिन्दुराष्ट्रं निमितम्।
तव एव प्रसादात् दिव्यमार्ग समालम्बितुं वयं अत्र समेत्य सज्जाः।
अर्थ - हे विश्वशक्ति (आदिशक्ति) तूने ये महान हिन्दुराष्ट्र का निर्माण किया है। तुझे बार-बार प्रणाम। तेरी ही कृपासे हम सब दिव्य मार्ग का अवलंबन करने के लिये तैय्यार होकर यहाँ संघटित हुए है।।२।।

३)अन्वय - येन नः एतत् राष्ट्रं समुन्नामितं यस्य पुरतः समग्रं जगत् नम्रं (भवेत्) हे अम्ब, तद् आदर्शयुक्तं पवित्रं सतीत्वं (तव) प्रियाभ्यः सुताभ्यः प्रयच्छ।
अर्थ - हे माँ जिससे सारा राष्ट्र उन्नत हुआ, जिस के सम्मुख सम्पूर्ण जगत् विनम्र हुआ ऐसा पवित्र सतीत्व तुम अपनी प्रिय कन्याओंको प्रदान करो।।३।।

४)अन्वय - हे मातृभूमे (त्वं) इह सुदिव्यां, दुराचार दुर्वृत्ति विध्वंसिनीम् पिता पुत्र भातृन् भतारं च एव सुमार्ग प्रति प्रेरयन्तीम् शक्तिम् अस्मासु समुत्पादय।
अर्थ - हे मातृभूमे, हम सेविकाओं में दुराचार, दुवृत्तिओं का विध्वंस करनेवाली दिव्य शक्ति का आप निर्माण करें जिससे हम पिता, पुत्र, बन्धु तथा पती को सन्मार्गपर चलने की प्रेरणा दें सके।

५)अन्वय - वयं (सर्वाः) सुशीलाः, सुधीराः, समर्थाः (अत्र) समेताः। (अस्मभ्यं) स्वधर्मे, स्वमार्गे, परं श्रद्धया चलन्त्यः (तथाच) भावि तेजस्वी राष्ट्रस्य धन्याः जनन्यः भवेम इति आशिषं देहि।
अर्थ - हे मातृभूमे, हम सुशील, सुधीर, समर्थ (चारित्र्यवती, धैर्यवती, बलवती) सेविकाएँ संगठित होकर भविष्य में इस तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ माताएँ बने तथा अतीव श्रद्धासे अपने मार्गपर, स्वधर्मपर चलनेवाली बनें ऐसा आशिष आप हमें दें।।५।।

प्रार्थना का आशय इस प्रकार का है -

अपनी प्रार्थना का प्रारंभ मातृभूमि की वंदना से है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'। यह संस्कार हमें बचपन से ही मिलता था। अतएव हम राष्ट्ररूप में समर्थता से खडे थे। किन्तु आज व्यक्तिशः हम धर्म का पालन करते है परंतु धर्मसंरक्षण के लिये राष्ट्ररूप में खडा रहना पडता है यह बात हम अनेक शताब्दियों से भूल गये। इस विस्मृती के कारण हमारा समाज दुर्बल, स्वत्वहीन तथा दस्यवृत्तिवाला बन गया। व्यक्तिगत आदर्श तथा धर्मपालन उच्च, ध्येयवाद के पीछे सशक्त राष्ट्रभाव खडा होने पर ही राष्ट्र जीवित रहता है, तत्वज्ञान टिकता है। इसीलिये प्रथम मातभूमि को वन्दन किया है।

मेरी मातृभूमी पुण्यभूमि भी है। जन्मदात्री माँ विशिष्ट समय के पश्चात् शिशु को स्तन्य देना बंद करती है परंतु यह मातृभूमि जीवन के अंतिम क्षणतक पोषण करती है। इतनाही नही तो जीवनांत पर भी अपने आंचल में प्रेम और क्षमा की यह मूर्ति है। वात्सल्य और क्षमा ऊपरी नही है अपितु अंतः प्रेरणा है। उसमें मांगल्य का भाव है। हमारी मातृभूमि का हिन्दुत्व ही एकमात्र स्वत्व है जिसके रक्षणार्थ हम यहाँ रहते है। इस हिन्दुभूमि को केवल हिन्दु ही पवित्र मानता है ऐसा नही तो चौदहवी शताब्दि में भारत में आया हुआ विदेशी प्रवासी लिखता है कि, It's dust is purer than air and its air is purer than purity itself. It's delightful plains resemble the gardens of paradise. If it is asserted that paradise is in India be not surprised, because paradise itself is not comparable to it. यहाँ का व्यक्ति नगांधिराज हिमालय को देवतात्मा मानता है। देवताओंको भी इस भूमि में मोक्षप्राप्ति के लिये जन्म लेना पडता है। ‘दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।' इस प्रसिद्ध उक्तिसे सुचित होता है की जीवन के अंतिम सत्य की अनुभूती होने के लिए ऋषिमुनि महात्माओंने यही जन्म लिया है। जो-जो पवित्र, मंगलमय है वह सब यहाँ ही केन्द्रिभूत हुआ है। योगी अरविन्द कहते है कि, ‘यह भूमि केवल माटी नही, भौतिक पदार्थो से बना हुआ पुंज नही, तो वह है दिव्यत्व का साकार रूप।' अपनी मातृभूमि दैवी शक्ति की अभिव्यक्ति है।

हमारे देश का प्रत्येक कण अपने पूर्वजों के त्याग, तपस्या, बलिदान से अनुप्राणित हुआ है। यह महानता, पवित्रता, तपःसाधना हमें पूर्वजों से विरासत से प्राप्त हुई है। हमने वह आत्मसात करनी है। ऐसी मातृभूमि ने हमें संवर्धित संस्कारित किया है। इन्ही संस्कारों से हमारा मन तथा बुद्धि विकसित हुई है। ऐसी तेरी कन्याएं संगठित होकर तुझे अभिवादन करती है।

हमारी मातृभूमि वत्सलता का मूर्तिमंत प्रतिक है। मांगल्य इसके कण-कण में प्रकट होता है। ‘चरण पावन चल रहे थे, राम प्रभु और जानकी के। धूलिकण इस धरती के माँ, करे पुनीत मलिन तन मन।' यह हमारी आकांक्षा है। यह भूमी हिन्दुओंकी है। हिन्दुभूमि का नाम लेते ही ध्यान आता है।

हिमालयात् समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम्।
तं देवनिर्मित देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।

हिन्दु अर्थात् दैवी गुणों के लिए साधना करनेवाला, तेजस्वी, दुर्बलरक्षक, दुष्टनिर्दालक, धर्मनीतितत्व का प्रतिष्ठाता यह उसकी पहचान है। यहाँ के मूलनिवासी, राष्ट्रोत्थानार्थ सर्वत्याग करनेवाले, रक्षणार्थ लडनेवाले, उत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील हिन्दु ही है।

१)आसिन्धु सिन्धुपर्यंता यस्य भारत भूमिका । मातृभूः पितृभूश्चैव सवै हिन्दुरितिस्मृतः ।।

हिंदूहृदयसम्राट स्वातंत्र्यवीर वि. दा. सावरकरजीने हिन्दु की यही पहचान दी है।

हे हिन्दुभूमे, हम सेविकाएं तेरे चरणो पर अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प प्रतिदिन दोहराते है। यह जीवन तेरे लिये ही है। इसका एक-एक क्षण तेरे ही सुख के लिये समर्पित है। यह समर्पण स्वेच्छापूर्वक, निरपेक्ष प्रेम तथा श्रद्धासे किया है। प्रलोभन या किसी दबावसे नही। इस समर्पण से हमारा जीवन कृतार्थ होगा ऐसी हमारी श्रद्धा है, यही हमारा परम सौभाग्य है।

२)नमो विश्वशाक्त्यै -.......

अब हम विश्वशक्ति को वंदन करते है। विश्वशक्ति (आदिशक्ति) से पहले मातृभूमि को वंदन क्यों?

वास्तव में यह भूमी विराट विश्व का एक छोटासा भाग है। इस विराट विश्व का नियंत्रण करनेवाली एक शक्ति है वह जगज्जननी आदिशक्ति है जिसने यह विशाल हिन्दुराष्ट्र का निर्माण किया। राष्ट्र का अर्थ केवल भूखंड नही तो इतिहास, पंरपरा, संस्कृति आदि का समावेश राष्ट्र संकल्पना में होता है। इस राष्ट्र ने ‘कृष्णन्तो विश्वमार्य' का उद्घोष किया। विश्व को मानवता का पाठ पढाया। ऐसे महान राष्ट्र के हम घटक है। उसकी सेवा करने की प्रेरणा हमें प्राप्त हुई यह आदिशक्ति की असीम कृपा है उस शक्ति को हमारा प्रणाम।

जिस विराट दिव्यशक्ति ने इस मातभूमि का निर्माण किया उस विश्वशक्ति को तो प्रथम वंदन करना हमारा कर्तव्य है। किन्तु मातृभूमि ने ही हमको इस विराट दिव्य आदिशक्ति का परिचय कराया है। मातृभूमि के पुजारी होने के कारण हमारी स्थिती इस प्रकार हो गई।

‘गुरु गोविन्द दोनो खडे काके लागू पाव।
बलिहारी गुरू आपकी गोविन्द दियो बताय।।'

वास्तव में गुरु और परमेश्वर दोनो सामने खडे होते हुए भक्त गुरु को प्रथम वन्दन करता है। क्योंकि परमेश्वर तक पहुँचाने का मार्ग गुरु ही दिखलाता है। इसी लिये गुरु को प्रथम वंदन। ऐसी ही हमारी धारणा है। मातृभूमि ने ही विश्वशक्ति तक जाने का मार्ग दिखाया है। इसीलिए मातृभूमि को प्रथम वंदन। हे विश्वशक्ति तेरी ही कृपा से हम सब संगठित होकर राष्ट्र भक्ति का प्रखर दिव्यमार्ग स्वीकारने को सिद्ध हुए है।

३) समुन्नामितं येन राष्ट्रं न एतत् .....

इस राष्ट्र की एक विशेषता है, जिसके कारण संपूर्ण विश्व उसके सामने नतमस्तक होता है। वह है भारतीय स्त्री का पवित्र शील, विशुद्ध चारित्र्य। शीलवती, चारित्र्यसंपन्न, त्यागी निष्ठावान स्त्री भारत माँ का सबसे विशेष आभूषण ही नहीं अपितु राष्ट्र का मानबिंदु है। आधुनिक भौतिक प्रगति से भी यह आभूषण मूल्यवान है। परंतु पश्चिम विचारधारा का अन्धानुकरण हमे पदभ्रष्ट कर रहा है। हम हमारी तेजस्विता तथा सतीत्व खो रहे है। मन का समाधान हमसे दूर भाग रहा है। छोटे से कारण को लेकर अपने पती को छोडनेवाली स्त्री कहाँ और कसौटी के, संकटो के क्षणों मे भी पति का साथ न छोडनेवाली उसको अच्छे कार्य की प्रेरणा देनेवाली, उसकी माता बनकर रहनेवाली भारतीय स्त्री कहाँ! जगज्जननी के पास हम सेविकाए मांग रही है यही विशुद्ध, पवित्र शील, निष्ठा, त्याग, संयम, स्नेहशील मातृत्व जो हम में, बाधाओं के हिमालय को पार करसकने की जिद तथा क्षमता निर्माण करे। सती अर्थात् केवल जलना ही नही। सतीत्व यह एक असिधाराव्रत है। अविवाहित स्त्री भी सती हो सकती है। सतीत्व की शक्ति प्राप्त करना किसी साधारण स्त्री का काम नही। अग्नि धारण करनेवाला पात्र भी उतना ही समर्थ चाहिये, अन्यथा पात्र भी जल जाएगा। मन की यह शक्ति से जीवन विकसित करने का कार्य केवल भारतीय स्त्री ही कर सकती है। वनवास में पति का साथ देनेवाली सीता, पति के हृदय का, तेजस्विता का स्फुल्लिंग सतत प्रज्वलित रखनेवाली द्रौपदी, मृत्यु के विकराल मुख से अपने पति को जीवित निकालनेवाली सावित्री हमारा आदर्श है। हे माँ हम तेरी लाडली कन्याएँ है ना? सीता का असीम त्याग, द्रौपदी का प्रखर तेज, सावित्री का कठोर निश्चय तथा परम्परागत विरासत तुम हमें प्रदान करोगी यह विश्वास है। सतीत्व का यह आभरण तू तेरी प्रिय कन्याओं को प्रदान कर जो केवल भारत का नही अपितु अखिल विश्व का तारण करेगा।

४) समुत्पादयास्मासु ......

एक ही स्त्री कन्या, बहन, पत्नी तथा माता की भूमिकाएं निभाती है। इस प्रत्येक भूमिका में अपने परिवार को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा वह देती है। जीवनरथ का सारथ्य कुशलता से करती है। परिवार में कोई दुष्प्रवृत्त, दुराचारी, राष्ट्रद्रोही न बने इसलिये निरंतर सजग रहना उसका सार्वकालिन कर्तव्य है। घर ऐसा स्थान है जहाँ मानव गढता है। उसकी आकांक्षा, कर्तव्यबुद्धि यहाँ पुष्ट होती है। अपने परिवार के घटकों में दुराचार दिखाइ पडा तो उसे नष्ट करने की हिंमत, हे जगजज्जननी हमें दो। क्षणिक सुखों का आकर्षण, उनके पिछे लगने पर घरमें आनेवाला पैसा जिस मार्ग से आ रहा है उसपर नियंत्रण रखने की जारूकता तथा क्षमता हममें निर्माण करो। इस प्रकार पिता, पुत्र, भाई तथा पति इन सबको सन्मार्गपर चलने की प्रेरणा हम दे सके ऐसी दिव्य शक्ति हमें दो। दुराचार से बचाना, सन्मार्गपर चलनेकी प्रेरणा देना यह ठिक है ही लेकिन दुर्वृत्ति निर्माण ही नही होगी यह प्रयास करने की शक्ति दो। समाज के भयसे शायद दुराचार नही होगा, किन्तु मनमें दुष्ट प्रवृत्ति रहेगी, वह भी नष्ट करनी है।

५) सुशीलाः सुधीराः समर्थाः समेताः ....

शीलवती, धैर्यशालिनी, शरीर और मन से सुदृढ महिलाएं राष्ट्र निष्ठा के सूत्र से संगठित होने पर तेजस्वी राष्ट्र निर्माण कर सकती है। शारीरिक दुर्बलता होने पर भी आत्मिक तथा मानसिक बल से वह अद्भूत कार्य कर सकती है। इसीलिये आत्मबल बढाने हेतु नित्य दैनंदिन प्रार्थना करने की प्रवृत्ति निर्माण करने के लिये एकत्रित आना, संगठित होना आवश्यक है। महान ध्येय के लिये व्यक्तिगत भेदभाव, तथा वैषम्य और क्षुद्रभाव पर विजय पाकर ध्येयपथपर हमने चुने हुए दिव्य मार्ग पर स्वमार्ग पर, स्वधर्म पर अर्थात् स्वकर्तव्य पर अविचल श्रद्धा रखकर ही हम हमारा ईप्सित प्राप्त कर सकते है। भविष्य में इस तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ माताए हम बने ऐसा आशीर्वाद, हे जननी तुम हमे दो।

हमारी प्रार्थना माँग नही, कृतसंकल्प का उच्चारण और स्वयंप्रयास का निश्चय है।
संकलित 

शनिवार, 12 जुलाई 2014

गुरुपूर्णिमा उत्सव


गुरुब्रह्मा गुरुविष्णु गुरुदेवो महेश्वर:
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम:||

अखण्डमण्डलाकारम् व्याप्तं ये चराचरम्
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:||

मातृवत् लालयेत् च पितृवत् मार्गदर्शिका
नमो गुरुसत्तायै श्रध्दाप्रज्ञायुतौ च य:||

अज्ञानतिमिरान्धकारस्य  ज्ञानाञ्जनसदाकया
चक्षुन्मीलितम् येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:||

रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने कहा है -
गुरु विनु भवनिधि तरइ न कोई
जो विरञ्चि शंकर सम होई ।

                किसी संत ने कहा-गुरु यदि पूर्णिमा का चन्द्रमा है तो शिष्य मावस का चाँद,गुरु मूल है तो शिष्यफूल ,गुरु प्राण है तो शिष्य शरीर,गुरु सामर्थ्य है तो शिष्य पात्र,गुरु स्नेह है तो शिष्य श्रध्दा,गुरु अनुशासन है तो शिष्य अनुगमन,गुरु सिध्दि है तो शिष्य साधना,गुरु प्रेरणा है तो शिष्य सक्रियता। अनेक आधातों  के होने पर भी आज सनातन धर्म अस्तित्व में है तो उसका एक बहुत बड़ा कारण भारत की गुरु शिष्य परम्परा है।
     
        भारतीय संस्कृति में गुरु शिष्यों की एक लम्वी श्रखला रही है-देवताओं के गुरु वृहस्पति,दानवों के गुरु शुक्राचार्य,राम के गुरु वसिष्ठ,विश्वामित्र,बाल्मीकि,कृष्णगुरु संदीपनि,गर्गाचार्य,दुर्वासा,पाण्डवगुरु द्रोणाचार्य,कृपाचार्य,चन्द्रगुप्त के गुरु चाणक्य,कवीर के रामानन्द,सूर के बल्लभाचार्य,स्वामी दयानन्द के गुरु विरजानन्द,शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास,रामकृष्ण परमहंस के तोतापुरी,स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस,स्वतन्त्रता से पूर्व लोगों में भारत भक्ति का संचार करने वाले जन-जन के गुरु रवीन्द्र नाथ टैगोर।       आजकापर्वअपनेगुरुकेपूजनकापर्वहैगुरुकेप्रतिसमर्पण,आत्मविश्लेषण,आत्मावलोकन,आत्मानुशासन,आत्मनिरीक्षण का पर्व है। 

सोमवार, 30 जून 2014

अपनी क्षमता के आधार पर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करें : श्रीदेवी गोयल

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नागपुर, अक्तूबर 7: महिलाओं में अपार शक्ति होती है। आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें इस शक्ति की अनुभूति हो सके और उस अनुभूति के आधार पर वे समाज में प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त कर सके।
इस आशय को स्पष्ट करते हुए पूर्व पुलिस महासंचालक होमगार्ड एवं नागरी सुरक्षा (महाराष्ट्र) सुश्री श्रीदेवी गोयल ने कहा कि महिलाओं द्वारा अपनी क्षमताओं को बढ़ाना वर्तमान में अतिआवश्यक है। वे राष्ट्र सेविका समिति के विजयादशमी एवं स्थापना दिवस समारोह को सम्बोधित कर रही थीं।
कार्यक्रम में शामिल सभी सेविकाओं को संबोधित करते हुए सुश्री गोयल ने कहा कि अपनी क्षमताओं को पहचानो, अपने अन्दर की शक्ति को जानो और समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ एकजुट होकर उसका सामना करो। उन्होंने कहा कि अपनी संस्कृति, परंपरा, एवं जीवन मूल्यों का अनुसरण करो तभी जीवन का यथार्थ समझने में सहजता होगी और महिला को समाज में उचित सम्मान भी मिल सकेगा।

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राष्ट्र सेविका समिति के इस कार्यक्रम में समिति की प्रमुख कार्यवाहिका सुश्री अन्नदानम सीताक्का, विदर्भ प्रान्त की कार्यवाहिका सुश्री सुलभा गौड़, नागपुर महानगर कार्यवाहिका सुश्री करुणा साठे, व्यासपीठ पर विराजमान थीं। पूर्व प्रमुख संचालिकाद्वय वन्दनीय उषाताई चाटी व प्रमिलाताई मेढे की विशेष उपस्थिति रही। 
शस्त्र पूजन के साथ कार्यक्रम का प्रारंभ हुआ। पारंपरिक शस्त्रों के साथ आधुनिक अग्नि प्रक्षेपास्त्र तथा दूरसंचार उपग्रहों के मॉडल की भी पूजा की गई। तत्पश्चात सेविकाओं द्वारा शारीरिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए जिसके अंतर्गत पिरामिड, योगासन व सूर्यनमस्कार, दंडयोग, सामूहिक गीत आदि का समावेश था। 
अपने सरल किन्तु हृदय को स्पर्श करनेवाले शब्दों में सुश्री गोयल ने सहभागी सेविकाओं को बताया कि भारत में युगों से यह मान्यता रही है, जहां महिलाओं का आदर होता है वहां देवता वास करते हैं। वर्त्तमान युग में महिलाओं को ऐसा सम्मान का स्थान यदि प्राप्त करना है तो उन्हें शक्ति की उपासना कर अपनी क्षमताओं का विकास करना होगा। जीवन में सभी कठिनाइयों पर दृढ़ रहते हुए उनका सामना करना होगा और परिवार की रीढ़ होने के नाते नारी द्वारा अपने परिवार को भी एकसाथ रखना होगा।
 भारत में महिलाओं को ‘शक्तिस्वरूपा’ माना गया है, इस बात की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा कि  आधुनिक काल में भी महिलाओं ने अपनी इस शक्ति का परिचय दिया है। कुछ वर्ष पूर्व नागपुर के न्यायालय परिसर में महिलाओं के उग्र भीड़ ने अक्कू यादव नामक एक बदमाश को ख़त्म कर दिया था। इसका स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि एक पुलिस अधिकारी के नाते उसका समर्थन करना उनके लिए ठीक नहीं है, फिर भी एक महिला के नाते जो हुआ वह अच्छा हुआ ऐसा उनका मानना है।
फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के लिए जो पागलपन का दौर आज युवा पीढ़ी में दिखाई देता है उसपर कठोर प्रहार करते हुए सुश्री गोयल ने युवा महिलाओं और युवतियों को नसीहत दे दी कि वे अपना फोटो, एवं व्यक्तिगत जानकारी फेसबुक पर न डालें। ऐसी जानकारी का गलत इस्तेमाल होता है और बाद में संकटों का सामना करना पड़ता है। इससे अपनी पढाई और अपने ध्येय प्राप्ति के मार्ग पर अपना ध्यान केन्द्रित करना अधिक योग्य है।
प्रमुख कार्यवाहिका सुश्री सीताक्काजी ने अपने उदबोधन में कहा कि महिलाएं शक्ति का भंडार है। ‘शक्ति नित्यत्व नियम’ यह शक्ति के संरक्षण का ही नियम है। ब्रह्माण्ड की सभी शक्ति एक ही है पर उसके अविष्कार भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देते हैं। महिलाएं उसी शक्ति का एक स्वरूप है और ऐसी शक्तिस्वरूपिणी महिलाओं का संगठन समाज में व्याप्त सभी बुराइयों को मूल से विनाश कर सकता है। 

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पौराणिक काल के ‘रक्तबीज’ दैत्य की कहानी का सन्दर्भ देते हुए न्होंने कहा कि माँ दुर्गा को भी उस दैत्य को मरने हेतु चंडिका का रूप धारण करना पड़ा था और उसके शरीर से रक्त की एक बूँद भी जमीन पर नहीं गिरने दिया, और माता ने उसका संहार किया था।
आज उस रक्तबीज के अनेक रूप दिखाई देते हैं, जैसे- चीन द्वारा हमारी भूमि पर आक्रमण, पाकिस्तान का हमारे विरुद्ध दहशतगर्दी को बढ़ावा देना,  भ्रष्टाचार, महंगाई, रूपये का अवमूल्यन, महिलाओं का उत्पीड़न, लव जिहाद के जरिए हिन्दू युवतियों को इस्लाम के चंगुल में फंसाना और उनका गलत तरीके से इस्तेमाल करना, ये सभी उसी रक्तबीज दैत्य के अनेक रूप हैं जो आज हमें सता रहे। इनका विनाश करने हेतु इस शक्तिस्वरूपिणी महिला को संगठित होना होगा और चंडिका की तरह इस आधुनिक रक्तबीज का विनाश करना होगा। इसके लिए महिलाओं द्वारा अपनी अध्यात्मिक शक्ति को भी विकसित करने की आवश्यकता है और नए पीढ़ी में अपने संस्कारों को संप्रेषित करने का दायित्व भी उसे पूरा करना होगा। 
सुश्री मेधा नांदेडकर ने कार्यक्रम का संचालन किया और सुश्री करुणा साठे ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम में महिला कला निकेतन की अनुराधा मुंडले, समिति की अखिल भारतीय शारीरिक शिक्षण प्रमुख मनीषा संत, देवी अहिल्या मंदिर की सुमन सरनाईक, शक्तिपीठ की डॉ. गरिमा सप्रे, संस्कार भारती की डॉ. मन्दाकिनी गुप्ता, अधिवक्ता मीरा खड्ड्कार तथा मुकुल कानिटकर के साथ ही अनेक गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।    साभार-

मंगलवार, 3 जून 2014

शाखा संजीवनी
हिन्दु कुल में जन्मे यह भाग्य। ‘हिन्दु' के नाते स्वाभिमान से जीवन स्थापन करे यह कर्तृत्व हिन्दुत्वके रक्षण हेतु जियेंगे-आवश्यक तब मरेंगेभी यही समर्पण, यह भावना अनायास निर्माण होती है, ऐसा पवित्र स्थान याने समिति शाखा का मैदान!
स्वामी विवेकानंद-तब का नरेंद्र अपनी व्यक्तिगत इच्छा की परिपूर्ति हेतु कालीमाता के मंदिर में गये। मंदिर की पवित्रता, तेजस्विता, उदात्तता का प्रभाव ऐसा रहा की सब कुछ भूलकर मुख से शब्द निकले, ‘माँ, मुझे शक्ति दो, बुद्धी दो, वैराग्य दो' शाखास्थान का ऐसा प्रभाव अनेकोंकी अनुभूति का विषय है।
संजीवनी अर्थात क्षीण प्राणशक्ति का पुनरूज्जीवन/प्राणशक्ति के कारण ही शरीर के सभी अंगोपांग संपूर्ण सामंजस्य से काम करते है। यह ऊर्जा हृदय से निकलनेवाली रक्तवाहिनियाँ शरीर के आखरी छोर तक पहूँचाती है- चैतन्य प्रदान करती है। व्यक्तिगत जीवन में शरीर में प्राणशक्ति का संचार रूकना याने मृत्यू। राष्ट्र जीवन में प्राणशक्ति है, संस्कृति अर्थात जीवनदृष्टी अर्थात जीवनमूल्य। उसकी अनुभूती-विचार, उच्चार व्यवहार का प्रवाह खंडीत होना राष्ट्र की चेतना लुप्त होने जैसा ही है। भारत सनातन राष्ट्र है। केवल मानव के नही, अपितु चराचर सृष्टि के कल्याण का विचार संस्कार देता है। अत: वह जीवित रखना, प्रबल रखना अनीवार्य है। प्रबल राष्ट्रकी दखल विेशमंचपर होती है। हमारी यह जीवनदृष्टि से जीवनमूल्यों का आदर अनुकरण होने हेतु इस जीवित कार्य का एहसास। इसके संस्कार विविधतासे सहज होने का स्थान है शाखा।
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का समन्वित विकास राष्ट्र सेवा के लिए ही ऐसा सहज संकल्प करने का स्थान है, समिति शाखा का मैदान। ‘विकसित व्हावे, अर्पित होऊन जावे' की अनुभूति का स्थान है, शाखा का मैदान। शाखा में आते ही मन की नाराजी, उद्विग्नता, निराशा, अपनी सखियोंको देखकरही भाग जाती है। खेल, व्यायाम, योगासन, गणसमता के साथ साथ जीवन में अनुशासन, समयपालन, आज्ञापालन, नेतृत्व गुणोंका विकसन, जीवन का अंग स्वभाव बन जाता है। राष्ट्र धर्म के प्रेरक गीत, कहानियाँ, विषय प्रतिपादन, नित्य-नैमित्तिक कार्यक्रमों को प्रीावी बनाने हेतु नियोजन, व्यवस्थापनकुशलता, आत्मविेशास, समरसता और बहुत कुछ ग्रहण कर लेते है। मन में आश्चर्य होता है, वही हूँ मैं- जो पहले मुखदुर्बल, संकोची थी?
वर्तमान एक लोकप्रिय लहर है। ‘व्यक्तिमत्व विकास' की कितने प्रकार के वर्ग, शिबिर उद्बोधन के खर्चीले औपचारिक आयोजन होते है। केंद्र है-मैं, केवल मैं। खेलो में भी चमू जीतने-हारने का कोई सुख-दु:ख नही। ‘मैं नही, तू नहीं' का अनोखा संस्कार आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' श्रद्धा का संस्कार। यह मिट्टी शाखास्थान की - उससे घाँव भरते है, मोच जाती है, वेदना मिटती है। ‘इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है हिन्दुस्थान की', ‘चंदन है इस देश की माटी' यह श्रद्धा, निष्ठा राष्ट्र संस्कृतीधर्म की संजीवनी है। यह संजीवनी बडे भाग्यसे तपस्या के कारण मिलती है। ‘प्रसादात तव एव अत्र' पूर्वपुण्य के कारण मिलती है। हिन्दु राष्ट्र का गौरवशाली पुनरूत्थान करनेवाली शक्ति मातृशक्ति मैं हूँ, यह मेरा कितना बडा सौभाग्य, सम्मान। मैं हुँ, ज्ञान-विज्ञान दायिनी सरस्वती माता, विभयदायिनी लक्ष्मी माता और दुष्टता संहारिणी दशप्रहरणधारिणी दुर्गामाता। इस गौरवपूर्ण प्रेरणादायी आत्मभूती का स्थान समितिशाखा। भगिनी निवेदिता ने कहा था, की एक निर्धारित स्थान पर, निर्धारित समय, सामुहिक रुपसे, भारतमाता की प्रार्थना
श्रद्धाभाव से करने से उस स्थान से शक्ति का मंगल अविरत स्त्रोत निर्माण होगा। इसी अर्थसे वं. मौसिजी, वं. ताईजी से लेकर आज की छोटी सेविका तक अपने अपने स्तरपर, अपनी अपनी पद्धती से शाखा एक संजीवनी रही। अनुभुति है, यही स्वरुप निरंतर बना रहे, इसी में हमारे जीवन की सफलता, सार्थकता है।
साभार -

सोमवार, 2 जून 2014

संस्थापिका एवं आद्य प्रमुख संचालिका वं.मौसीजी

वह समर्थ महिला कौन थी, जिसने केवल भारत में ही नही अपितु पूरे विश्वभर के विभिन्न देशों में रहनेवाली सैकडों-हजारो महिलाओं में हिन्दुत्व की भावना की ज्योति जगाकर उन्हें संगठन का महान मंत्र पढाया है। उस अलौकिक व्यक्तित्व का जीवन कैसा रहा होगा, जिसने मातृशक्ति को राष्ट्रकार्य के लिए प्रेरित किया और साकार हुआ एक विश्वव्यापी नारी संगठन जिसे आज विश्वभर में सम्मान की नजर से देखा जाता है।

व्यक्तिगत जीवन

राष्ट्र सेविका समिती की आद्य संस्थापिका श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर उपाख्या वं. मौसीजी के जीवन के बारे में जानने के लिए सभी निश्चित ही उत्सुक होंगे। माँ जैसी ममताका वर्षाव करनेवाली वं. मौसीजी का जन्म आषाढ शुद्ध दशमी के अवसरपर ५ जुलै १९०५ को नागपूर के दाते परिवार में हुआ। तरोताजा प्रफुल्लित कुसुम जैसी बालिका देखते ही डॉक्टर ने उनका नामकरण ‘कमल' रख दिया। (जो आगे जाकर यथार्थ सिद्ध हुआ।) दाते परिवार लौकिकार्थ से विशेष संपन्न नही था, परंतु वैचारिक रूपसे पूर्णतः, संपन्न था। छोटी कमल ने अपनी ताईजी से सुश्रुषा का गुण, पिताजी से तन-मन-धन से सामाजिक कार्य का तथा माताजी से निर्भयता, राष्ट्रप्रेम के गुण विरासत में लिए, आत्मसात किये। लो. तिलकजी की प्रतिमा घर में रखकर, पास-पडोसकी महिलाओं को एकत्रित करके उनकी माताजी ‘केसरी' नामक समाचार पत्रका वाचन करती थी। जिन दिनो सरकारी नौकरों को केसरी घरमें रखने की अनुमती नही थी, उन दिनों में कमल की माताजी अपने नाम पर केसरी खरीदती थी। अपनी चाची ताईजी के साथ वह गोरक्षा हेतु भिक्षा के लिए तथा कीर्तनों में जाती थी और जानेअंजाने संस्कार ग्रहण कर रही थी। जिसका प्रभाव उनकी बाल्यावस्थासे ही दिखाई देने लगा। उन दिनों में स्वतंत्र बालिका विद्यालय न होने के कारण उन्हें मिशनरी स्कूल में प्रवेश लेना पडा। वहाँ की शिक्षा और घर में मिलनेवाली शिक्षामें महान अंतर का प्रतीत होने से उनके मनमें निरंतर संघर्ष चलता रहता था और यही संघर्ष एक दिन वास्तव रूप में उभर आया विद्यालय में प्रार्थना के समय आँखे बंद रखने का नियम था। एक दिन कमल ने बीच में ही आँखे खोली, तो उसे डांट पडी। तो निर्भय कमल ने तुरंत उस अध्यापिका से प्रश्न किया ‘अगर आपकी आँखे बंद थी तो आपको कैसे पता चला की मैने आँखे खोली थी?' जिसका उत्तर अध्यापिका के पास नही था। कमल ने उस विद्यालय में जाना छोड दिया। अब उनकी आगे की शिक्षा हिन्दु प्रेमी व्यक्तियों द्वारा स्थापित ‘हिन्दु मुलींची शाळा' इस विद्यालय में हुई। उन दिनों की प्रथा के अनुसार कमलकी शिक्षा चौथी कक्षा तक पहुँचते ही उसके विवाह के प्रयास शुरू हो गये। कमल बचपन से ही अपने विचारों के बारे में सचेत थी, उसमें आत्मविश्वास ओतप्रोत भरा था। वाचन, श्रवण, मनन से वह परिपक्व हो चुकी थी। अन्याय कारक घटनाओं से उसे बचपन से ही चीढ थी। दहेज प्रथा की शिकार बनी बंगाल की स्नेहलता के पत्रने उनके अंदर के स्फुल्लिंग को चेतावनी सी मिली और उन्होंने सभी को बिना दहेज दिये और लिए विवाह के लिए आग्रहपूर्वक प्रेरित किया और स्वयं भी इसी विचारधारा का अनुकरण किया। विवाह के पश्चात् लगभग १४ वर्ष की आयुमें ही वह दो बच्चों की माँ, बन गयी। विवाह के बाद वह ‘कमल' से ‘लक्ष्मी' बनी। उनके पती पुरुषोत्तम राव केलकर वर्धा के प्रख्यात विधिज्ञ (वकील) थे। उनकी रहन-सहन और विशिष्ट स्वभाव के कारण लोग उन्हें सरदार कहते थे। कमल को वैवाहिक जीवन का सुख १०-१२ साल ही मिला, राजयक्ष्मा के कारण अल्पायुमें ही पुरुषोत्तम राव परलोक सिधारे। अब लक्ष्मी के सामने ८ संतानो की - २ बेटियाँ और ६ बेटे की जिम्मेदारी थी। पतिनिधन का वज्राघात, बच्चों की देखभाल, गृहस्थी की जिम्मेदारी इन आपत्तियों से लक्ष्मी सी हो गयी।

विवाहोत्तर जीवन :

अपने पती के जीवनकाल में भी लक्ष्मी अपनी गृहस्थी की सभी जिम्मेदारियों को निभाते हुए कांग्रेस की प्रभात फेरी, पिकेटींग आदि कार्यक्रमों में सक्रिय थी। पती निधन के पश्चात् भी उनके कार्यक्रम चलते ही रहे, जिस समय विधवा होते ही महिला को बाहर के दरवाजे बंद किये जाते थे। ऐसे समय लक्ष्मी का यह व्यवहार प्रवाह को विरूद्ध दिशा में मोडने वाला था। वह वर्धा के गांधी आश्रम में प्रार्थना के लिए उपस्थित रहती थी। प्रार्थना के समय गांधीजी द्वारा इस कथन ने उन्हें अंतर्मुख बनाया कि सीता के जीवन से ही राम की निर्मिती होती है, अतः महिलाओंने अपने सामने सदैव सीताजी का आदर्श रखना चाहिए। अब लक्ष्मी ने सीता में स्त्री की वास्तविक भूमिका को खोजने के लिए रामायण का अध्ययन शुरु किया। महिलाओं की स्थिती, उनके ऊपर लादे गये बंधन, अपहरण, अत्याचार तो वह स्वयं देखती थी, समाचार पढती थी। धीरे-धीरे जीवन पद्धती में परिवर्तन हो रहा था। स्त्री की ओर देखने का दृष्टीकोण बदलने लगा था, उसे पढने को प्रवृत्त किया जाने लगा। केशवपन प्रथा का भी जोरदार विरोध हो रहा था। स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूपमें माना जाने लगा। स्त्री को निर्भयता से डटकर खडा होना आवश्यक है इसकी आवश्यकता वह स्वयं ही अनुभव कर रही थी।

बंगाल में कुसुमबाला को घसीटकर ले जाकर उसका अपहरण करते समय गुंडोंने उस के पति को सुनाया कि, कानून तुम लोगों के लिए है। हमारा कानून हमारी बाहुओं में है। ऐसी घटनाओं से महिलाओं की असुरक्षितता प्रकट होती थी और परिणाम स्वरुप लक्ष्मीजी के मन में दिनरात विचार मंथन चलता रहता था कि अब महिलाओं को स्वसंरक्षणक्षम कैसे बनाये। कौन सा मार्ग ढूँढे?

लगभग इसी समय अपने पुत्र मनोहर और दिनकर के माध्यम से उनका परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ और इसी प्रकार का संगठन महिलाओं के लिए भी बनाने की आवश्यकता की बात उनके मन ने ठान ली। उनके मन में डॉ. हेडगेवारजी से भेंट करने की इच्छा जाग उठी और संयोगवश यह अवसर शीघ्र ही उन्हें प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने बेटों से डॉक्टर हेडगेवारजी से अपने स्वयंसेवक बेटों की अभिभावक के नाते मिलने की इच्छा प्रदर्शित की। उन दिनों पिता या घर के पुरुष को ही अभिभावक समझा जाता था। इसलिए बेटों ने अधिकारियों से पूछकर अनुमति ले ली और अनुमति मिलने पर कार्यक्रम के समय वे उपस्थित रही। वार्तालाप के लिए अलग से समय माँगने पर डॉक्टर साहबने स्वीकृती दे दी। उस समय वं. मौसीजीने महिलाओ के लिए भी राष्ट्रीय दृष्टी से संघटित होने की आवश्यकता की बात बतायी। तथा महिला व्यक्तिगत ही नहीं अपितु सामाजिक दृष्टी से सुरक्षित होने की बातको भी उठाया। वं. मौसीजी का दृढनिश्चय तथा प्रगल्भता को देखकर डॉक्टरजी ने उन्हें इस कार्य से पूरा सहकार्य देने का आश्वासन दिया। अब मौसीजी के विचारों को वास्तविक रूप प्राप्त हुआ और राष्ट्र सेविका समिति का जन्म होकर वर्धा में उसका कार्य प्रारंभ हुआ। महिलाएँ प्रतिदिन निश्चित समय पर एकत्रित होने लगीं, मातृभूमी के प्रति अपने दायित्व के रूपमें सोचने लगी। प्रार्थना तैयार हुई, जिससे मन में हिन्दुत्व जगे, शक्ति, बुद्धि प्राप्त हो, स्त्री सुशीला, सुधीरा समर्थ बनें। इस तरह महिलाओं का प्रतिदिन एकत्रित होना, सैनिकी पद्धतिका प्रशिक्षण लेना यह बात उस समय के समाज द्वारा विरोध भी हुआ, लेकिन मौसीजी अपने विचार से परे नहीं हटी। गृहस्थी के साथ-साथ यह कार्य करना रस्सीखेच जैसा ही था।

स्वयं सिद्धता :

स्वयं को निरंतर संगठन के ढाँचे में ढालने का उनका प्रयास निरंतर जारी था। प्रारंभ में उन्हे भाषण देने का अभ्यास नहीं था। वक्तृत्वशैली भी नहीं थी। लेकिन समाज जागरण के हेतु से समाज को मार्गदर्शन करने की आंतरिक, अत्यंतिक इच्छा थी, जिससे आगे का मार्ग सुगम हुआ। विषय का अध्ययन करना, उसमें से महत्त्वपूर्ण मुद्दे निकालना और उन्हें प्रभावी भाषा में जनता के सामने प्रस्तुत करना - यह बातें अभ्यासपूर्वक आत्मसात की और आत्मविश्वासपूर्वक अपने विचार व्यक्त करनेवाली उत्कृष्ट वक्ता बन गई। मधुर आवाज, स्पष्ट उच्चारण, भावस्पर्शी शब्दों का चयन इन सबका मनोहारी संगम होने के कारण उनका वक्तृत्व श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था।

उन्हें समिति की शाखा-शाखाओं में जनसंपर्क हेतु जाना पडता था, इसलिए मौसीजीने साइकिल चलाना सीख लिया, तैरना भी उन्हें आता था। उनकी बेटी वत्सला की पढने में रुचि देखकर घरपर शिक्षक बुलाकर उसकी पढाईका प्रबंध किया। वर्धा में विद्यालय शुरु करने के लिए अपनी देवरानी को प्रोत्साहित किया और वहाँ पढाने के लिए आयी कालिंदीताई, वेणुताई जैसी शिक्षिकाओं का रहने का प्रबंध अपने स्वयं के घर में किया, जिन शिक्षिकाओं ने उन्हें समिति का कार्य में भी सहयोग दिया।

गहरा चिंतन :

वं. मौसीजीने संगठन की चौखट स्वयं तैयार की थी। जिसमें उन्होंने अपने स्वयं के विचारों से ध्येय धोरण के रंग भरे थे। स्वसंरक्ष हेतु समिती में दी जानेवाली शारीरिक शिक्षा कहीं उसकी शारीरिक रचना या स्वास्थ्य में बाध तो नही बनेगी इस बातपर भी वह सोचती थी। १९५३ में उन्होंने स्त्रीजीवन विकास परिषद का आयोजन करके डॉक्टरोंको एकत्रित किया और महिलाओं के सौष्ठव के बारे में परिचर्चा आयोजित की। योगासन का महत्व जानकर उन्होंने स्वयं योगासनों की शिक्षा ली। योगमूर्ति जनार्दन स्वामीजी को अनेक स्थानोंपर आमंत्रित करके सेविकाओं को योगासनों का शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण दिया। समिती के शिक्षा वर्गो में भी योगासन का समावेश किया गया।

सेविका कैसी हो उनके सामने इसकी स्पष्ट रूपरेखा थी कि वह संतुलित व्यक्तित्ववाली हो तभी वह समाज के लिए पोषक और प्रेरक सिद्ध होगी। अतः उन्होंने देवी अष्टभुजा की प्रतिमाआराध्यदेवता के रूप में सेविकाओं के सामने रखी। देवी के आठ हाथों में धारण किये आयुधों का वह वर्णन करके बताती थी जिसमें से उनकी अलौकिक प्रतिभा तथा प्रगल्भ और गहरे चिंतन की ज्योति झलकती थी।

रामभक्ति :

मौसीजी राम की निस्सीम भक्त थी। उन्होंने रामायण पर उपलब्ध अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया और उसमें का राष्ट्रीय दृष्टीकोण अपने १३ दिनों के रामायण के प्रवचन के माध्यम से जनता के सामने लाकर स्पष्ट किया। उन्होंने लगभग १०८ प्रवचन किये और लोगों को समझाया राम को केवल भगवान समझकर उसकी पूजा मत करो, वह एक राष्ट्रपुरुष है, उसका अनुकरण करो। इन प्रवचनों से प्राप्त, धनराशि का विनियोग उन्होंने समिती के कार्यालय निर्माण करने के लिए किया। आज उनके वक्तृत्व की अमोल निधी ‘पथदर्शिर्नी श्रीराम कथा' के रूप में हमारे पास है।

वं. मौसीजी की स्मरण शक्ति अद्भुत तेज थी। एक बार परिचय होने के बाद वह उस व्यक्ति को नाम सहित हमेशा याद रखती थी। जीवन के अंतिम चरण में जब वह चिकीत्सालय में भर्ती थी, तो सेविकाओं से भजन गीत गाने को कहती थी और बीच में अगर गानेवाली भूल गयी तो तुरंत आगे के शब्द बताती थी।

व्यवस्थित सरल जीवन, कलात्मक, सांस्कृतिक दृष्टि :

वं. मौसीजी का रहन सहन का ढंग अत्यंत सीधासाधारण था। वह हमेशा स्वच्छ और सफेद सूती साडी ही पहनती थी। अपने कपडे स्वयं धोने का उनका परिपाठ था। उनका हर काम कलात्मक रहता था। समय मिलते ही सिलाई कडाई चालू रहती थी। भगवान के सामने रंगोली सजाना, पूजा करना उसमें भी एक विशेषता थी। हर उत्सव में चाहे वह शाखा में हो या घर में, सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रदर्शन का उनका आग्रह रहता था। हर परिवार में एक राष्ट्रीय कोना हो, जहाँ परिवार के सदस्य मिलकर समाज के, राष्ट्र के बारे में दिन में एक बार सोचे इसलिए वह हमेशा प्रयत्नशील थी।

वर्ष प्रतिपदा (गुढी पाडवा) के दिन गुढी के बजाय अपने घरोंपर हमारी संस्कृती का प्रतीक भगवा ध्वज फहराया जाय यह उन्हीकी कल्पना थी। पूजा के लिए छोटे-छोटे ध्वल उन्होने ही बनवाएँ। वंदे मातरम् माँ की प्रार्थना है अतः वह गाते समय हाथ जोडने की प्रथा उन्होंने शुरु की।

पाककला में वह निपुण थी। परोसने में भी उनकी कला तथा मातृभाव का अनुभव होता था।

कुशल संघटक :

‘दो महलायें कभी एकत्र आकर कार्य करना संभव नहीं है' यह जनापवाद उन्होंने झूठा साबित कर दिया है। आव्हान के रूप में महिलाओं का सशक्त संगठन स्थापित करके यह सिद् कर दिया कि समिती की सेंकडों सेविकाएँ मिलजुलकर आपस में आत्मीयता से ध्येय निष्ठा से राष्ट्र के लिए विधायक काम सशक्तता से कर सकती है। पूना में श्रीमती सरस्वतीबाई आपटे द्वारा महिलाओं के संगठन के कार्यकी शुरुआत की जानकारी मिलनेपर मौसीजी स्वयं पूना जाकर सरस्वतीबाईजी से मिली। मौसीजी के कुशल, आत्मीय और सौहाद्र्र व्यवहार से, प्रसन्न व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सरस्वतीबाईजी ने अपने संगठन को राष्ट्र सेविका समिती में संम्मिलित कर दिया।

पत्र व्यवहार से मौसीजी सभी के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती थी। अखंड प्रवास का सिलसिला और सेविकाओं से मिलना निरंतर शुरु ही रहता था। प्रातः स्मरण, देवी अष्टभुजा स्तोत्र, पूजा, नमस्कार इत्यादि रचनायें उन्होंने की महिलाओं की संगीत में रूचि और भक्तिभाव को देखते हुए उन्होंने भजन मण्डलके लिए प्रोत्साहित किया।

अनेक चित्रकारों को एकत्रित करके उनके सामने प्रदर्शनी के विषय रखे और चित्र निकालने का आव्हान किया। कला के द्वारा राष्ट्रीय विचारधारा पुष्ट करने मे सहयोग वाली बात की नईदृष्टी प्राप्त होनेवाली बात एक चित्रकार ने ही कही। समितीद्वारा उन्होंने अनेक प्रदर्शनियों का आयोजन करवाया।

साहसी वृत्ती :

अगस्त १९४७ कर समय था। प्रिय मातृभूमि का विभाजन होनेवाला था। मौसीजी को सिंध प्रांत की सेविका जेठी देवानी का पत्र आया कि सेविकाएँ सिंध प्रांत छोडने से पहले मौसीजी के दर्शन और मार्गदर्शन चाहती है। इससे हमारा दुःख हल्का हो जायेगा। हम यह भी चाहते है कि आप हमें श्रध्दापूर्वक कर्तव्यपालन करने की प्रतिज्ञा दे। देश में भयावह वातावरण होते हुए भी मौसीजी ने सिंध जानेका साहसी निर्णय लिया और १३ अगस्त १९४७ को साथी कार्यकर्ता वेणुताई को साथ लेकर हवाई जहाज से बम्बई से कराची गयी। हवाई जहाज मे दूसरी कोई महिला नही थी। श्री जयप्रकाश नारायणजी और पूना के श्री. देव थे वे अहमदाबाद उतर गये। अब हवाई जहाज में थी ये दो महिलाएँ और बाकर सारे मुस्लिम, जो घोषणाएँ दे रहे थे - लडके लिया पाकिस्तान, हँस के लेंगे हिन्दुस्थान। कराची तक यही दौर चलता रहा। कराची में दामाद श्री चोळकर ने आकर गन्तव्य स्थान पर पहुँचाया।

दूसरे दिन १४ अगस्त को कराची में एक उत्सव संपन्न हुआ। एक घर के छतपर १२०० सेविकाएँ एकत्रित हुई। गंभीर वातावरण में वं. मौसीजी ने प्रतिज्ञा का उच्चारण किया, सेविकाओं ने दृढता पर्वक उसका अनुकरण किया। मन की संकल्पशक्तिको आवाहन करनेवाली प्रतिज्ञा ने दुःखी सेविकाओं को समाधान मिला। अन्त में मौसीजी ने कहा, ‘धैर्यशाली बनो, अपने शील का रक्षण करो, संगठन पर विश्वास रखो और अपनी मातृभूमिकी सेवा का व्रत जारी रखो यह अपनी कसौटी का क्षण है।' वं. मौसीजी से पूछा गया - हमारी इज्जत खतरे में है। हम क्या करें? कहाँ जाएँ? वं. मौसीजीने आश्वासन दिया - ‘आपके भारत आनेपर आपकी सभी समस्याओं का समाधान किया जायेगा।' अनेक परिवार भारत आये। उनके रहने का प्रबंध मुंबई के परिवारों में पूरी गोपनीयता रखते हुए किया गया। इस तरह असंख्य युवतियों और महिलाओं का आश्रय और सुरक्षितता देकर वं. मौसीजी ने अपने साहसी नेतृत्व का परिचय दिलाया।

व्यक्ति निष्ठा नहीं :

व. मौसीजी के जीवन का एक प्रसंग। एक शाखा में मौसीजी के आगमन की पूर्वसूचना मिलते ही सेविकाओं ने उनके स्वागत की जोरदार तैयारियाँ की। उनके लिए गौरवपर गीत रचकर गाया गया। बौद्धिक के समय वं. मौसीजीने सेविकाओं से कई प्रश्न कि और कहा कि इस गीत में एक परिवर्तन चाहिए। इसमें आपने मौसीजी कार्य के प्रति समर्पण की भावना की बात जतायी है, लेकिन यह किसी एक व्यक्ति का कार्य नही है अपितु आपको राष्ट्र सेविका समिती के राष्ट्र कार्य के प्रति समर्पण की भावना रखनी है। ऐसे कई गुणों के कारण ही वह वंदनीय बन गई।

ऐसे व्यक्तित्व को ही वंदनीय कहा जाता है। वंदनीय इसलिए नहीं कि उनके पास लम्बी उपाधियाँ थी या वह धनवान थी। न तो उनके पास कोई सिद्धी थी, न वह कोई तंत्र-मंत्र जानती थी। यह तो एक आम महिलाओं जैसी एक सरल, सीधा साधा गृहस्थी जीवन व्यतीत करनेवाली स्त्री। बाल्यकालसे ही प्राप्त राष्ट्रीय संस्कार और बुद्धिमत्ता और तेजस्विता के साथ-साथ राष्ट्रकार्य के प्रति आत्यंतिक आस्था के कारण ही उन्होंने यह अद्वितीय कार्य कर दिखाया। राष्ट्र सेविका समिती की स्थापना, अखिल भारतवर्ष में उसका प्रचार और प्रसार तथा निर्माण की हुई कार्य पद्धती जिसपर आज भी समिती का कार्य सरलता से चल रहा है। इन्हीं गुणों से उन्हें वंदनीय बताया।

यह शांत, पवित्र तेजस्वी जीवन २७ नवम्बर १९७८, कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्ण द्वादशी, युगाब्द ५०८० को पंचत्व में विलीन हो गया। देह नष्ट हुआ, कीर्ति, प्रेरणा अमर है, निरंतर चलती रही है और आगे भी रहेगी।

किं साधितं त्वया मृत्यो। अपहृत्येद् ज्ञान निधिम्।।

नश्वरशरीरं भस्मीकृतम्। अनश्वरथशासि का ते गतिः।।


दीपज्योति प्रणाम
दीपज्योति प्रणाम तुझे नित दीपज्योति प्रणाम।
शुभंकरी तू जग कल्याणी, मातृशक्ति प्रेरक तू मानी
कोटि-कोटि हृदयों में अंकित मंगलमय तव नाम।
रामायण वाल्मिकी कृर्ती तू, लवकुश जननी स्वयं स्फूर्ती तू
दिव्य चरित सीता से ज्योतित प्रकट हुये श्रीराम।
ध्येयमार्ग का दीपस्तंभ तू, कोटी करों का स्नेहबंध तू
कण क क्षण-क्षण राष्ट्र समर्पित किये कर्म निष्काम।
ज्योतिर्मय है मार्ग हमारा, चंचल मन क्यों भ्रम में हारा।
तव जीवन की स्मृति सुमनों में प्रेरक शक्ति महान।।
साभार-http://rashtrasevikasamiti.org/pages/LakshmiTai.aspx

शनिवार, 31 मई 2014

मनुष्य की पहचान उसके धन या आसन से नहीं होती उसके मन से होती है मन की फकीरी पर कुवेर की सम्पदा भी रोती है।