शुक्रवार, 3 मई 2013


पहले ‘मनुष्य निर्माण' करो


तारीख: 02 May 2013 15:10:13



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मस्त स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन आन्तरिक आध्यात्मिक शक्तियों की अभिव्यक्ति मात्र है। यदि वे आन्तरिक शक्तियां बलवती एवं सन्तुलित हैं, तो समाज तदनुसार अपनी रचना स्वयं कर लेगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना होगा। कोई अन्य उपाय नहीं है। ऐसा ही राष्ट्रों के साथ होता है। फिर प्रत्येक राष्ट्र की महान सामाजिक व्यवस्थाएं उसके अस्तित्व की आधारशिला हैं और उन्हें किसी दूसरी जाति के सांचे में नहीं ढाला जा सकता। जब तक उनसे श्रेष्ठ व्यवस्थाओं का विकास न हो, तब तक पुरानी व्यवस्थाओं को नष्ट करना आत्मघात होगा। विकास सदैव धीरे-धीरे होता है।
इन व्यवस्थाओं में दोष निकालना बड़ा सरल है; क्योंकि सभी में कुछ न कुछ अपूर्णता होती है। किन्तु, मानवता का सच्चा कल्याण वही करता है जो चाहे जिन व्यवस्थाओं के अन्तर्गत रहनेवाले व्यक्ति के ऊपर उठने पर समाज और उसकी व्यवस्थाओं का ऊपर उठना अवश्यम्भावी है। शीलवान् लोग खराब प्रथाओं और नियमों की उपेक्षा कर देते हैं और उनकी जगह ले लेते हैं प्रेम, सहानुभूति और प्रामाणिकता पर आधारित सशक्त नियम। वही राष्ट्र सुखी है जो इतना ऊंचा उठ सके कि उसे न्यूनतम कानूनी पुस्तकों की आवश्यकता रह जाए और जिसे इस या उस व्यवस्था के लिए माथापच्ची करने की आवश्यकता ही न पड़े। सत्पुरुष समस्त नियमों से ऊपर उठने में सहायता प्रदान करते हैं। अतएव, भारत का उद्धार व्यक्ति के आत्मिक बल और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने अन्दर देवत्व के साक्षात्कार पर निर्भर करता र्है।
उपासना एकान्त में होती है समूह में नहीं 
हम देखते हैं कि धार्मिक उपासना का रूप कभी सामूहिक नहीं हो सकता। धर्म की सच्ची साधना प्रत्येक व्यक्ति का निजी विषय होना चाहिए, क्योंकि मैं जानता हूं कि आपका भी वही भाव होना आवश्यक नहीं है। दूसरे, मैं प्रत्येक के सामने यह ढिंढोरा पीटकर कि मेरा भाव क्या है, क्या व्यर्थ उपद्रव पैदा करूं? अन्य लोग आकर मुझसे लड़ने लगेंगे। यदि मैं उन्हें अपना भाव न बताऊं तो वे ऐसा नहीं करेंगे। किन्तु, यदि मैं सबको बताता फिरूं कि मेरा अमुक भाव है तो वे सब निश्चय ही मेरा विरोध करेंगे। अत:, उसकी चर्चा करने से लाभ ही क्या? इस इष्ट को गुप्त ही रखना चाहिए। वह केवल तुम्हारे और ईश्वर के बीच की वस्तु है। धर्म के सैद्धान्तिक पक्ष का विवेचन एवं प्रवचन सार्वजनिक तौर पर किया जा सकता है, उसे सामूहिक रूप भी दिया जा सकता है, किन्तु उच्चतर धर्म-साधना को सार्वजनिक रूप नहीं दिया जा सकता। आदेश मिलते ही मैं अपनी धार्मिक भावनाओं को प्रकट नहीं कर सकता। इस स्वांग और उपहास का क्या परिणाम होता है? यह धर्म का उपहास है, ईश्वरद्रोह है। इसका फल तुम्हें वर्तमान गिरजाघरों में देखने को मिल सकता है। मनुष्य इस धार्मिक कवायद को कैसे सहन कर सकते हैं? वहां सैनिक जीवन का-सा दृश्य रहता है। ‘बन्दूक कन्धे पर ले जाओं। नीचे झुको, किताब उठाओ' आदि-आदि। सब कुछ यन्त्रवत् नियन्त्रित, पांच मिनट तक अनुभूति, पांच मिनट तक तर्क, पांच मिनट तक प्रार्थना-सब पूर्व निर्धारित। इस स्वांगों ने धर्म को हानि पहुंचाई हैं। इन गिरजाघरों में जीभर कर सिद्धान्तों, मतवादों एवं दार्शनिक विषयों का विवेचन हो, किन्तु जब उपासना का प्रश्न आए, जो धर्म का वास्तविक व्यावहारिक अंश है, तब वह ईसु के इन शब्दों के अनुरूप ही होना चाहिए, ‘जब तू प्रार्थना करे तो पूर्णतया अन्तर्गुहा में प्रविष्ट हो, जब तू द्वार बन्द कर ले तब वहां एकान्त में अपने परमपिता से प्रार्थना कर।
'मूर्तिभंजकों में भी मूर्तिपूजा 
समस्त संसार में तुम किसी न किसी रूप में मूर्तिपूजा पाओगे। कहीं वह मूर्ति मनुष्याकार है, जो कि उसका सर्वोत्तम रूप है। यदि मैं किसी मूर्ति की उपासना करना चाहूं, तो मैं उसका मानव रूप पसन्द करूंगा, न कि पशु, भवन या अन्य कोई रूप। एक सम्प्रदाय सोचता है कि एक विशिष्ट रूप ही मूर्ति का सही प्रकार है, अन्य सोचता है वह रूप खराब है। ईसाई सोचते हैं कि यदि ईश्वर ‘कबूतर' के रूप में आए तो ठीक, किन्तु यदि यह मत्स्यावतार लेकर आए, जैसा कि हिन्दुओं की धारणा है तो वह झूठ हैं, निरा अन्धविश्वास है। यहुदियों की धारणा है कि यदि मूर्ति का रूप ऐसा हो जिसमें ‘एक सन्दूक पर बैठे हुए दो देवदूत और एक पुस्तक' दिखाई जाए, तो व बिल्कुल ठीक होगा, किन्तु यदि मूर्ति स्त्री या पुरुष रूप में है, तो वह भयानक है। मुसलमानों का विश्वास है कि नमाज पढ़ते समय यदि वे पश्चिम की ओर मुंह कर काबा की मस्जिद और उसके पवित्र ‘संगे असवद' (काला पत्थर) की कल्पना-चित्र अपने मस्तिष्क में ला सकें तो वह बहुत अच्छा रहेगा। किन्तु, यदि उस कल्पना-चित्र में गिरजाघर आ जाए तो वह घोर मूर्तिपूजा। यही दोष है, किन्तु धर्म के साक्षात्कार की यह आवश्यक सीढ़ियाँ हैं।
अनायास समाधि अवस्था पाने से हानि 
योगी सिखाता है कि मन स्वयं बुद्धि से परे एक उच्च अवस्था में पहुंछ जाता है, जिसे समाधि अवस्था कहते हैं और जब मन उस अवस्था में पहुंच जाता है, तब उसे तर्कबुद्धि परे अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त होता है। उस मनुष्य को पराभौतिक एवं अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त हो जाता है। तर्कबुद्धि के परे जाने की, सामान्य मानव-प्रवृत्ति को पार करने की इस अवस्था को कभी-कभी ऐसा व्यक्ति भी अनायास प्राप्त कर जाता है जिसे उसकी शास्त्रयुक्त प्रणाली का ज्ञान नहीं है। वह उस अवस्था को मानो संयोग से पा जाता है।
योगी कहते हैं कि इस अवस्था को संयोग से पा जाना बहुत खतरनाक होता है। ऐसे अधिकांश मामलों में मस्तिष्क विकृत हो जाने का भय रहता है और निरपवाद रूप में तुम पाओगे कि ऐसे सब लोग, जो समाधि अवस्था को बना समझे ही संयोगवश उसमें पहुंच गए, बहुत महान होने पर भी, अंधेरे में भटकते रहे और सामान्यतया अपने समस्त ज्ञान के उपरान्त भी वे कुछ विचित्र अन्धविश्वासों के आधीन हो गए। वे आसानी से मतिभ्रम के शिकार हो जाते हैं। मोहम्मद का दावा था कि एक दिन उन्हें गुफा में जिब्राइल नामक एक देवदूत मिला था कि एक ‘हरक' पर बैठाकर उन्हें स्वर्ग ले गया था। किन्तु, ऐसी बातों के अलावा मोहम्मद ने कुछ अद्भुत सत्यों का भी उद्घोष किया है। यदि तुम कुरान पढ़ों तो तुम्हें उसमें अन्धविश्वासों में निगणित अद्भुत सत्य भी मिलेंगे। इसका आप क्या स्पष्टीकरण देंगे? उस व्यक्ति को अलौकिक प्रेरणा प्राप्त हुई थी, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु वह प्रेरणा उन्हें अनायास ही प्राप्त हो गई। उसके लिए उन्होंने शास्त्रीय पद्धति से योगाभ्यास नहीं किया था और जो कुछ कर रहे थे, उसके कारणों को नहीं जानते थे। मोहम्मद ने संसार का जितना भला किया, उसका विचार करो और अपनी कट्टरवादिता के कारण उन्होंने संसार का कितना बडा अपकार किया, इसकी भी कल्पना करो। उन उपदेशों के कारण जो करोड़ों मनुष्य मौत के घाट उतारे गए, जो असंख्य माताएं अपने बच्चों से वंचित कर दी गई, जो बच्चे अनाथ हो गए, देश के देश उजाड़ दिए गए, करोड़ों-करोड़ों लोग मार डाले गए- जरा इसकी भी कल्पना करो।
इस प्रकार हम मोहम्मद और अन्य महान धर्मोंपदेशकों के जीवनों के अध्ययन से इस संकट को जान सकते हैं। किन्तु, साथ ही हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि उन सभी को अलौकिक प्रेरणा प्राप्त हुई थी। जब कभी कोई धर्म-प्रवर्तक अपनी भावुक प्रकृति के वशीभूत हो समाधि अवस्था में पहुंचा, तभी वह वहां से न केवल सत्य के कुछ कण साथ लाया अपितु कुछ कट्टरवादिता, कुछ अन्धविश्वास भी साथ लाया, जिन्होंने संसार को उतनी ही हानि पहुंचाई, जितनी कि उसके उपदेशों से लाभ पहुंचा। असंगतियों के इस ढेर में, जिसे हम जीवन कहकर पुकारते हैं, कोई संगति बैठाने के लिए हमें तर्कबुद्धि के परे जाना होगा। किन्तु, उस स्थिति को शास्त्रीय पद्धति से, शनै:-शनै: सतत् अभ्यास द्वारा, समस्त अन्धविश्वासों से मुक्त होकर, प्राप्त करना ही उचित होगा।
स्वामी विवेकानन्द

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