बुधवार, 29 मई 2013

मन का संयम

किसी राजा के पास एक बकरा था. एक बार उसने एलान किया की जो कोई एस बकरे को जंगल में चराकर तृप्त करेगा मैं उसे आधा राज्य दे दूंगा. किंतु बकरे का पेट पूरा भरा है या नहीं इसकी परीक्षा मैं खुद करूँगा. 

इस एलान को सुनकर एक मनुष्य राजा के पास आकर कहने लगा की बकरा चरना कोई बड़ी बात नहीं है.वह बकरे को लेकर जंगल में गया और सारे दिन उसे घास चरता रहा. शाम तक उसने बकरे को खूब घास खिलाई और फिर सोचा की सारे दिन इसने इतनी घास खाई है अब तो इसका पेट भर गया होगा तो अब इसको राजा के पास ले चलूँ. बकरे के साथ वह राजा के पास गया. राजा ने थोड़ी सी हरी घास बकरे के सामने रखी तो बकरा उसे खाने लगा. इसपर राजा ने उस मनुष्य से कहा की तूने उसे पेट भर खिलाया ही नहीं वर्ना वह घास क्यों खाने लगता. बहुतों ने बकरे का पेट भरने का प्रयत्न किया किंतु ज्योंही दरबारमें उसके सामने घास डाली जाती की वह खाने लगता.

एक सत्संगी ने सोचा इस एलान का कोई रहस्य है, तत्व है. मैंयुक्ति से काम लूँगा. वह बकरे को चराने के लिए ले गया. जब भी बकरा घास खाने के लिए जाता तो वह उसे लकड़ी से मार देता. सारे दिन में ऐसा कई बार हुआ. 

अंत में बकरे ने सोचा की यदि मैं घास खाने का प्रयत्न करूँगा तो मार खानी पड़ेगी. श्याम को वह सत्संगी बकरे को लेकर राजदरबार में लौटा. बकरे को उसने बिलकुल घास नहीं खिलाई थी फिर भी राजा से कहा मैंने इसको भरपेट खिलाया है. अत: यह अब बिलकुल घास नहीं खायेगा. कर लीजिये परीक्षा. राजा से घास डाली लेकिन उस बकरे ने उसे खाया तो क्या देखा और सूंघा तक नहीं. बकरे के मन में यह बात बैठ गयी थी की घास खाऊंगा तो मार पड़ेगी. अत: उसनेघास नहीं खाई.

यह बकरा हमारा मन ही है. बकरे को घास चराने ले जाने वाला जीवात्मा है. राजा परमात्मा है. मन को मारो, मन पर अंकुश रखो. मन सुधरेगा तो जीवन सुधरेगा. मन को विवेकरूपी लकड़ी से रोज पीटो. भोग से जीव तृप्त नहीं हो सकता. भोगी रोगी होता है. भोगी की भूख कभी शांत नहीं होती. त्याग में ही तृप्ति समाई हुई है    
एक राजा को फूलों का शौक था। उसने सुंदर, सुगंधित फूलों के पचीस गमले अपने शयनखंड के प्रांगण में रखवा रखे थे। उनकी देखभाल के लिए एक नौकर रखा गया था। एक दिन नौकर से एक गमला टूट गया। राजा को पता चला तो वह आगबबूला हो गया। उसने आदेश दिया कि दो महीने के बाद नौकर को फांसी दे दी जाए। मंत्री ने राजा को बहुत समझाया, लेकिन राजा ने एक न मानी। फिर राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि जो कोई टूटे हुए गमले की मरम्मत करके उसे ज्यों का त्यों बना देगा, उसे मुंहमांगा पुरस्कार दिया जाएगा। कई लोग अपना भाग्य आजमाने के लिए आए लेकिन असफल रहे।
         एक दिन एक महात्मा नगर में पधारे। उनके कान तक भी गमले वाली बात पहुंची। वह राजदरबार में गए और बोले, ‘राजन् तेरे टूटे गमले को जोड़ने की जिम्मेदारी मैं लेता हूं। लेकिन मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं कि यह देह अमर नहीं तो मिट्टी के गमले कैसे अमर रह सकते हैं। ये तो फूटेंगे, गलेंगे, मिटेंगे। पौधा भी सूखेगा।’ लेकिन राजा अपनी बात पर अडिग रहा।
        आखिर राजा उन्हें वहां ले गया जहां गमले रखे हुए थे। महात्मा ने एक डंडा उठाया और एक-एक करके प्रहार करते हुए सभी गमले तोड़ दिए। थोड़ी देर तक तो राजा चकित होकर देखता रहा। उसे लगा यह गमले जोड़ने का कोई नया विज्ञान होगा। लेकिन महात्मा को उसी तरह खड़ा देख उसने आश्चर्य से पूछा, ‘ये आपने क्या किया?’ महात्मा बोले, ‘मैंने चौबीस आदमियों की जान बचाई है। एक गमला टूटने से एक को फांसी लग रही है। चौबीस गमले भी किसी न किसी के हाथ से ऐसे ही टूटेंगे तो उन चौबीसों को भी फांसी लगेगी। सो मैंने गमले तोड़कर उन लोगों की जान बचाई है।’ राजा महात्मा की बात समझ गया। उसने हाथ जोड़कर उनसे क्षमा मांगी और नौकर की फांसी का हुक्म वापस ले लिया।

मंगलवार, 28 मई 2013

कणाद ऋषि

कणाद ऋषि, विश्व के पहले संत थे जिन्होंने बताया था कि प्रत्येक वस्तु या जीव अणुओं से बना है।
यानी मालीक्यूल की पहली थ्योरी कणाद ऋषि ने बताई थी। वे वैशेषिक दर्शन के जनक थे। भारत में ऋषियों ने छह दर्शन या फिलासफी को जन्म दिया। १- पूर्व मीमांसा (जैमिनी ऋषि)२- उत्तर मीमांसा (वेद व्यास) ३- सांख्य (कपिल मुनि) ४- योग (पातंजलि ऋषि) ५- न्याय (गौतम ऋषि) और ६- वैशेषिक (कणाद ऋषि)।
कणाद ऋषि ने कहा कि अणुओं को औऱ भी छोटे- परमाणुओं में विभाजित किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि मन और आत्मा क्या है। मन जब ईश्वर पर एकाग्रचित्त होता है तो वह ईश्वरमय हो जाता है और यहीं से ईश्वरप्राप्ति का मार्ग खुलता है। उन्होंने बताया कि मनुष्य का शरीर कैसे ब्रह्मांड की तरह है। कैसे एकाग्रचित्त हो कर ब्रह्मांड के परेईश्वर से संपर्क किया जा सकता है। मुख्य वस्तु है कन्सन्ट्रेशन- ईश्वरपर एकाग्रचित्त होना। हमारे एक परमाणु में हमारे मुख्य तत्व समाहितरहते हैं। इन्हीं परमाणुओं को ईश्वरीय स्पंदन में रखने के लिए ध्यान आवश्यक है- ईश्वर की भक्ति । गहरी एकाग्रता से ही ईश्वर मिलते हैं।

सोमवार, 27 मई 2013

कबूतर जाल में और बहेलिये की दौड़ :

एक बार कबूतरों का झुण्ड, बहेलिया के बनाये जाल में फंस गया सरे कबूतरों ने मिलकर फैसला किया और जाल सहित उड़ गये "एकता की शक्ति" की ये कहानी आपने यहाँ तक पढ़ी है इसके आगे क्या हुआ वो आज प्रस्तुत है
बहेलिया उड़ रहे जाल के पीछे पीछे भाग रहा था एक सज्जन मिले क्यों बहेलिये तुझे पता नही की एकता में शक्ति होती है तो फिर क्यों अब पीछा कर रहा है बहेलिया बोला "आप को शायद पता नही की शक्तियों का दंभ खतरनाक होता है जहां जितनी ज्यादा शक्ति होती है उसके बिखरने के अवसर भी उतने ज्यादा होते है"
सज्जन कुछ समझे नही बहेलिया बोल आप भी मेरे साथ आइये सज्जन भी उसके साथ हो लिए
उड़ते उड़ते कबूतरों ने उतरने के बारे में सोचा एक नौजवान कबूतर ने कहा किसी खेत में उतार जा...ए वहां इस जाल को कटवाएँगे और दाने भी खायेंगे
एक समाजवादी टाइप के कबूतर ने तुरंत विरोध किया की गरीब किसानो का हक़ हमने बहुत मारा अब नही
एक दलित कबूतर ने कहा जहाँ भी उतरे पहले मुझे दाना और जाल से पहले मैं निकलूंगा क्युकी इस जाल को उड़ाने में सबसे ज्यादा मेहनत मैंने की
एक बुजुर्ग कबूतर ने कहा इस जाल को उड़ाने का प्लान मेरा था अत: मेरी बात सबको माननी पड़ेगी
एक तिलक वाले कबूतर ने कहा किसी मंदिर पर उतरा जाए भगवन की कृपा से खाने को भी मिलेगा और जाल भी कट जायेंगे
टोपी वाले कबूतर ने तुरंत विरोध किया उतरेंगे तो सिर्फ किसी मस्जिद पर ही
अंत में सभी कबूतर एक दुसरे को धमकी देने लगे की मैंने उड़ना बंद किया तो उड़ नही पायेगा सिर्फ मेरे दम पर ही ये जाल उड़ रहा है और सभी ने धीरे धीरे करके उड़ना बंद कर दिया अंत में वो धरती पर आ गये
और बहेलिया आकर उनको जाल सहित पकड़ लिया
सज्जन गहरी सोच में थे बहेलिया बोल क्या सोच रहे है महाराज
सज्जन बोले "जब मैंने समाज सेवा शुरू किया तब मुझे लगने लगा की मैं ही एक समाज सेवक हूँ जिससे ये समाज चल रहा है अत: सभी को मेरे हिसाब से चलना चाहिए लोग नही चले तो मैंने समाज सेवा बंद कर दी समाज अब भी चल रहा है पर उसमे जो मेरा काम था वो अभी भी अधुरा है और मेरी तरह दुसरो ने भी बंद कर दिया तो समाज ख़त्म हो जायेगा आज यही हालत इन कबूतरों की हुयी किसी एक कबूतर से जाल नही उड़ सकता था पर जाल उड़ाने के लिए हर कबूतर जरुरी था"
"जिस तरह कोई एक अच्छा व्यक्ति समाज नही बदल सकता परन्तु समाज बदलने के लिए हर एक अच्छे व्यक्तियों होना जरुरी है"

मंगलवार, 21 मई 2013

धर्म का सच्चा अर्थ बताया स्वामीजी ने




'जो दीन है, दलित है, असहाय है उसे ऊपर उठाना ही धर्म है। मानव होकर मानव का शोषण करना उस पर अत्याचार करना धर्म नहीं है। 'यह कथन है धर्म के नाम पर अभेदपूर्ण दृष्टि रखने वाले  मानवता के सच्चे पुजारी स्वामी विवेकानंद का। 
उनका अवतरण इस भारत भूमि पर ऐसे समय में हुआ जब भारतीय संस्कृति अपने आत्मगौरव से विच्छिन्न हुई सिसकियाँ भर रही थी  चारों ओर अज्ञान का अहंकार छाया हुआ था परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा देश अपने आध्यात्मिक गौरव को भूल पश्चिम के अंधानुकरण में लीन था। ऐसी स्थिति में 12 जनवरी मकर संक्रांति के दिन देश के पूर्वी क्षितिज पर नवीन ज्ञान के प्रकाश रूप में स्वामी विवेकानंद का प्राकट्य हुआ। 
   बचपन में पिता विश्वनाथ दत्त का दिया नाम नरेन्द्र बाद में गुरु परमहंस रामकृष्ण देव द्वारा 'विवेकानंद' नाम में विलीन कर दिया गया। निश्चय ही समाज में प्रचलित रूढ़ परंपराओं, धार्मिक विश्वासों को विवेक की कसौटी पर कसने वाला यह नवयुवक विवेक तथा आनंद का समन्वित रूप था। विवेक की कसौटी पर कसे बिना कोई बात उसकी बुद्धि स्वीकार नहीं करती थी और आनंद उसका सहज स्वभाव था। ऐसा आनंद जो बिना आध्यात्मिकता के प्राप्त नहीं होता और आध्यात्मिकता जिसकी परिधि में आत्मज्ञान, प्रेम, धार्मिकता समता  त्याग, साधना आदि तत्व सम्मिलित हैं और ये ही हैं सच्ची मानवता के लक्षण हैं। 
स्वामी विवेकानंद ने अपने आत्मज्ञान, प्रेम, समता की ज्योति जलाकर भारतीय संस्कृति को नवीन गौरव प्रदान कर विश्व के सम्मुख पुनः व्यासपीठ कर बैठा दिया। भारतीय संस्कृति जो आत्मा की साधना करती है धर्म जिसका मूल तत्व है  प्रेम जिसका मूल मंत्र है  त्याग, तप-वैराग्य-अपरिग्रह जिसकी साधना है अभय-सत्य-अहिंसा जिसके सबसे बड़े अस्त्र हैं आत्म गौरव, आत्म-सम्मान जिसकी विशिष्ट पूँजी है  प्रेम-दया करुणा-समता-विश्व बंधुत्व जिसके विशिष्ट गुण हैं। 
उसको अपने तन-मन-आत्मा के अणु-अणु में धारण किए हुए जब स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शहर शिकागो की धर्मसभा में वहाँ के श्रोता समुदाय को जैसे ही संबोधित किया- 'मेरे अमेरिका निवासी भाइयों और बहनों...' तब उनके इस दिव्य प्रेममय संबोधन से संपूर्ण श्रोता मंत्रमुग्ध होकर तालियाँ बजाने लगे। कुछ समय पूर्व जो लोग उनका उपहास कर रहे थे वे इसयुवा भारतीय संन्यासी के रूप में सच्ची मानवता का दर्शन कर उसके सामने हृदय की गहराइयों से नत हो गए। 
ऐसे महान मानव प्रेमी संत स्वामी विवेकानंद ने अपने स्वयं के आचरण से बता दिया कि देश जाति-धर्म-वर्ण आदि के नाम पर मानव-मानव में भेद करना अधर्म है। उन्होंने मानव को एक सूत्र में बाँधने के लिए धर्म की नवीन व्याख्या की। उन्होंने स्पष्ट कहा कि धर्म का काम तोड़ना नहीं जोड़ना है। जो धर्म मनुष्य को मानवता के विपरित आचरण करना सिखाए वह धर्म नहीं है। इसी मानवता के प्रसार के लिए मनुष्य समाज में फैले आडंबरों ,रूढ़ियों अंधविश्वासों को दूर कर 'उत्तिष्ठत जागृत' को मंत्र बनाकर उन्होंने अनेक बार भारत भ्रमण किया। 
उन्होंने साफ कहा- जो धर्म, जो ईश्वर, विधवाओं के आँसू नहीं पोंछ सकता अनाथ के मुँह में रोटी का टुकड़ा नहीं दे सकता उस धर्म अथवा ईश्वर पर मैं विश्वास नहीं करता। देश की भूखी नंगी जनता के आगे धर्म परोसना बेमानी है। उनके अनुसार जब मानव समाज अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए छटपटा रहा है  अज्ञान, अशिक्षा के अँधकार से घिरा हुआ है उसे आत्म त्याग का मार्ग दिखाना कोरी प्रवंचना है। ऐसा संन्यास किस काम का जो समाज की उन्नति में कर्मठता पूर्वक योगदान देने के बजाए पलायन सिखाए। 
स्वामीजी के अनुसार सबसे पहले मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताएँ पूरी कर आत्मसम्मान के साथ जीना सीखे। इसके लिए देश को गरीबी से उबारना होगा। कृषि का विकास इस प्रकार करना होगा कि प्रत्येक मनुष्य को पेट भर अन्न प्राप्त हो सके। अमीर-गरीब के बीच की खाई को पाटना होगा। स्त्री-पुरुष दोनों को समाज में समान विकास के अवसर प्राप्त कराने होंगे। 
अपने समय की शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा- 'वर्तमान शिक्षा प्रणाली मनुष्य तत्व की शिक्षा नहीं देती। गठन नहीं करती। वह तो बनी बनाई चीज को तोड़ना-फोड़ना जानती है। ऐसी अव्यवस्थामूलक तथा अस्थिरता का प्रचार करने वाली शिक्षा किसी काम की नहीं।' 
स्वामी विवेकानंद के ज्ञान के प्रकाश में खड़े होकर हमें आज फिर से आत्म मंथन करना है।





शुक्रवार, 17 मई 2013

निर्बल राष्ट्र कभी स्वाभिमान से नहीं रह सकता




बारह जनवरी सन 1863 को एक देवदूत इस पुण्य भारत भूमि पर अवतरित हुआ, जिसका नाम था नरेन्द्र। रामकृष्ण परमहंस जैसे सद्गुरु के संपर्क में आकर वह स्वामी विवेकानंद बन गया। 
शिकागो धर्मसभा में 'अमेरिकावासी बहनों एवं भाइयो!' के संबोधन के साथ दिए गए उद्बोधन से न केवल पूरी धर्मसभा में अपितु संपूर्ण पाश्चात्य जगत्‌ में उनकी जादुई वक्तृता का अद्भुत प्रभाव हुआ। सनातन धर्म एवं भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान की गंगा में अवगाहन कर एक अपूर्व आनंद की अनुभूति अमेरिकावासियों ने की। इसके बाद तो इस युवा संन्यासी के अमेरिका एवं इंग्लैंड में अनेक व्याख्यान हुए, जिन्हें लोग मंत्र-मुग्ध होकर सुना करते थे। 
स्वामीजी 40 वर्षों से भी कम समय तक धरा धाम पर रहे और 4 जुलाई सन 1902 को ब्रह्मलीन हो गए। लेकिन इतने अल्प समय में उन्होंने पूरे विश्व को भारतीय दर्शन के उच्चतम सिद्धांतों से अवगत कराकर यह सिद्ध कर दिया कि भारत के पास दर्शन की ऐसी अमूल्य धरोहर है जो हर देश, जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के मनुष्यों को एक ही स्थान पर लाकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की कल्पना को साकार करने की क्षमता रखती है। 
स्वामीजी ने शिकागो धर्मसभा में कहा था कि आप कोई भी मार्ग चुनें आराधना का, अंत में परमात्मा तक ही पहुँचेंगे। सभी मार्ग उस तक पहुँचते हैं। स्वामीजी ने जो स्तोत्र सुनाया उसका अर्थ है- 'जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।' 
  बारह जनवरी सन 1863 को एक देवदूत इस पुण्य भारत भूमि पर अवतरित हुआ, जिसका नाम था नरेन्द्र। रामकृष्ण परमहंस जैसे सद्गुरु के संपर्क में आकर वह स्वामी विवेकानंद बन गया।      
स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक ज्ञान एवं नैतिक मूल्यों को प्रसारित करने के साथ-साथ देशप्रेम के लिए भी जागृति उत्पन्ना की। जब भारत माता गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी थी और भारत के युवा उदासीन से थे, तब उन्होंने सोई हुई तरुणाई को ललकारा एवं नौजवानों में उत्साह तथा उमंग का संचार किया। स्वामीजी ने कहा था कि निर्बल राष्ट्र कभी स्वाभिमान से नहीं रह सकता। इस महत्वाकांक्षी संसार में केवल सबल ही सिर ऊँचा करके जी सकते हैं। 
स्वामीजी का अँगरेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उनकी शैली बहुत ही सुंदर, आकर्षक एवं सटीक थी। अपनी उच्चकोटि की वक्तृत्व कला के माध्यम से वेदों, पुराणों, उपनिषदों, संहिताओं, गीता आदि ग्रंथों में निहित आध्यात्मिक ज्ञान को अमेरिका एवं इंग्लैंड की अनेक धर्मसभाओं, संस्थाओं एवं क्लबों में स्वामीजी ने बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। 
इसके पूर्व भारत के किसी भी संत, महात्मा ने इस प्रकार भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार नहीं किया था। स्वामीजी के अमेरिका जाने के पूर्व तक पाश्चात्य जगत्‌ भारत की आध्यात्मिक ज्ञान-संपदा से अपरिचित जैसा ही था। भारत की विशाल सांस्कृतिक धरोहर से विदेशियों को परिचित कराने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही जाता है। 
आज भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म की ओर सारी दुनिया के लोग जो आकर्षित हो रहे हैं, उस आकर्षण की नींव शिकागो धर्मसभा में स्वामीजी ने ही रखी थी। भारत एवं भारतवासी स्वामीजी के इस महान कार्य के लिए सदैव उनके ऋणी रहेंगे।

बुधवार, 15 मई 2013

भारत के प्रसुप्त दिव्यत्व को जगाया स्वामी विवेकानंद ने


ND
स्वामी विवेकानंद के दिव्य जीवन संदेशों एवं प्रखर राष्ट्रवादी विचारों की देश एवं देशवासियो विशेषकर युवा पीढ़ी को जितनी महती आवश्यकता आज है उतनी इसके पूर्व कभी नहीं रही। यहाँ तक कि परतंत्र भारत में भी नहीं। पिछले पचपन वर्षों में देश में अनुशासन, ईमानदारी नैतिकता ,मानवीय चरित्र एवं मूल्यों में जो भारी गिरावट आई है  उससे हर संवेदनशील भारतवासी अत्यधिक दुःखी है।    राष्ट्र को इस विकट स्थिति से उबारने में केवल विवेकानंद के दिव्य संदेश ही सहायक हो सकते हैं। युवाशक्ति को इस चुनौती को स्वीकारना होगा तभी भारत माता के उस सपूत का आदर्श राष्ट्र का सपना पूरा हो सकेगा।   
   इस महाअभियान में विवेकानंद के आदर्श विचार उनके पथ को आलोकित करेंगे। इस पीढ़ी के लिए वे एक दिव्य प्रेरणास्त्रोत हैं। उनकी दिव्य अमृतवाणी आज भी संपूर्ण वायुमंडल में गूँज रही है और राष्ट्रोत्थान हेतु हमारा आह्वान कर रही है। 
     आज देश के अधिकांश लोग वैयक्तिक संपति जुटाने वैभव, पद-प्रतिष्ठा मान-सम्मान के अर्जन की जुगाड़ में ही लगे हैं। इसके लिए वे अपने मूल्य ,ईमानदारी और राष्ट्रनिष्ठा को भी दाँव पर लगाने में नहीं हिचकिचा रहे हैं। ऐसे विषम समय में केवल विवेकानंद के व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रकाश ही देश को दिशा दे सकता है। इस धरा से महाप्रयाण करने के ठीक पूर्व स्वामीजी ने अपने शिष्यों से राष्ट्र के उत्थान-पतन पर विस्तृत चर्चा की थी।
    उन्होंने कहा था 'भारत को राजनीतिक तथा सामाजिक संघर्षों के पचड़े में न पड़कर अपने आध्यात्मिक दर्शन एवं सांस्कृतिक मूल्यों की ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि केवल अध्यात्म और वेदांत ही मनुष्य का चारित्रिक उत्थान कर शांति और आनंद दे पाएँगे। भौतिक संपदा तो अधःपतन की ओर ही ले जाएगी।' स्वामीजी के अंतिम शब्द थे- 'यदि भारत अपने ईश्वर की खोज में लगा रहता  तो वह अमर रहेगा। परंतु यदि वह राजनीति या सामाजिक संघर्ष में लिप्त हुआ, तो विनाश को प्राप्त होगा।' 
       विवेकानंद ने अनुभव किया कि धर्म ही राष्ट्र का मेरूदंड है। भारत की आध्यात्मिक चेतना ने ही इसे विश्व में वंदनीय बनाया था। स्वामीजी ने भारत के प्रसुप्त दिव्यत्व को जगाने का महान कार्य किया। उन्होंने पूरी दुनिया को यह संदेश दिया कि केवल भारत का अध्यात्म और वेदांत दर्शन ही भौतिकवादी दैत्य के तीक्ष्ण पंजों में फँसे हुए अन्य राष्ट्रों को मुक्ति दिला सकेगा ,अन्य कोई मार्ग नहीं है। विवेकानंद का आह्वान था कि हर भारतीय को आत्म एवं परिवार केंद्रित चिंतन को त्याग कर राष्ट्र केंद्रित चिंतन अपनाना चाहिए। 
राष्ट्र ही परमात्मा का स्वरूप है राष्ट्र ही हमारा आराध्य हो। केवल 'भारत माता की जय' बोलने से काम नहीं चलेगा। हमें एक आदर्श राष्ट्र के निर्माण पथ पर सक्रिय रूप से अग्रसर होना पड़ेगा। राष्ट्र तभी समृद्ध, समुन्नत,शक्तिशाली और विश्व वंदनीय बन सकेगा जब लोगों के चरित्र उच्च हों। वे भारत को पुनः विश्व गुरु के पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे। इसी उद्देश्य को लेकर स्वामी विवेकानंद 'शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन' में भाग लेने गए थे और वे अपने मिशन में पूरी तरह सफल भी हुए। 
 पश्चिम के लोग भारतीय दर्शन, अध्यात्म एवं वेदांत के ज्ञान से अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने सनातन धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकारा। इसमें उदारता सहिष्णुता ,प्रेम, सद्भाव, भाईचारा , दया,करुणा , अहिंसा आदि सभी मानवीय गुणों का समावेश है। 
विवेकानंद को यह अनुभूति हो गई थी कि सभी मनुष्य एक ही परम पिता की संतान हैं और सबके हृदय में एक ही आत्मा विराजमान है। इसीलिए धर्मसभा में दिए गए अपने उद्बोधन में उन्होंने सभी उपस्थित श्रोताओं को 'हे अमृत- पुत्रों!' कहकर संबोधित किया था। और संपूर्ण विश्व को उस परम गुह्य ज्ञान को प्राप्त करने का आह्वान करते हुए कहा- 
उत्तिष्ठत्‌, जागृत, प्राप्य वरान्निबोधत्‌...' (कठोपनिषद्) 
  अर्थात्‌ उठो , जागो और प्राप्त करो उस श्रेष्ठतम ज्ञान को जिसे जानकर जीवन में और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता ,जो संपूर्ण मानवता को एक सूत्र में पिरोकर, 'विश्वबंधुत्व 'एवं 'वसुधैव कुटुंबकम्‌' का संदेश देता है। आज इसी दिव्य संदेश की दुनिया को आवश्यकता है  क्योंकि यही मूलमंत्र इस धरती से अन्याय, अत्याचार, अनाचार, सांप्रदायिक विद्वेष, धर्मांधता धार्मिक संकीर्णता  ऊँच-नीच, जात-पाँत जैसे समस्त दुर्गुणों को समाप्त कर सकता है। 
   भोगवादी संस्कृति में लिप्त मनुष्यों को सुसंस्कारित कर अध्यात्म की ओर उन्मुख करने हेतु आज स्वामीजी के साहित्य का प्रचार-प्रसार अधिक से अधिक करने की आवश्यकता है। इससे मनुष्य की आंतरिक दिव्य शक्तियाँ प्रकट होंगी। ऐसे महान युगपुरुष हजारों वर्षों में कभी-कभी इस धरा पर अवतरित होते हैं। ऐसे महामनीषी महामानव को शत्‌ शत्‌ नमन।   




 

मंगलवार, 14 मई 2013

क्षमाशीलता,स्थिरिता एवं आत्मसम्मान के प्रवल उद्घोषक स्वामी विवेकानन्द


विश्व मानवता का बीजारोपण करने वाले स्वामी विवेकानंद के बारे में वर्षों पूर्व एक विदेशी पत्र ने टिप्पणी की थी कि धर्मों की संसद में सबसे महान व्यक्ति विवेकानंद हैं। इनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म प्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खतापूर्ण है। 
    निःसंदेह आधुनिक युग में स्वामीजी पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने पश्चिमी मंच बनाकर पश्चिम के समक्ष पूर्वीय वेदान्त के सर्वोच्च सत्य की घोषणा की। उनके प्रखर उद्घोषक रूप से पश्चिमी समाज इतना प्रभावित हुआ कि 11 सितंबर 1893 को उन्हें बोलने के लिए दिया गया केवल 5 मिनट का समय घंटों में परिवर्तित हो गया। पश्चिमी जनमानस मंत्रमुग्ध होकर घंटों उन्हें सुनता रहा। 
    परिवर्तन के पक्षधर स्वामीजी आज भी युवा पीढ़ी के प्रकाश-स्तम्भ हैं। उन्होंने आत्मा, स्व, बल आदि सकारात्मक प्रतीकों का खुलकर समर्थन किया है। साथ ही भारतीयता, धर्म आध्यात्मिकता आदि की सटीक व्याख्या कर उसके भ्रम का निवारण किया है। उनकी कथन, विचार-शैली एवं प्रतिपादन कौशल के कारण ही वे न केवल भारत में वरन विदेशों के गणमान्यजनों के अध्ययन एवं गहन चर्चा के विषय बन गए। 
   उनके पश्चिमी दौरे से वहाँ के समाज में भारत की समस्याओं के प्रति सहानुभूति और समझ के सिंह-द्वार खुल गए तथा देश में आत्म-गौरव और विकास के नए युग का सूत्रपात हुआ। लुंजपुंज, मृतप्रायः राष्ट्रीयता में कसावट आने को हुई और देश के स्वातंत्र्य संघर्ष की सच्ची आधारशिला जमी जिसका प्रभाव पूरे देश पर होना था। 
   स्वामीजी निश्चित ही भारतवर्ष को उसके एकाकीपन से बाहर लाए। उन्होंने भारत की नाव को जिसकी तली में अनेक छिद्र हो गए थे, सुधारा और अंतरराष्ट्रीय जीवनधारा में पुनः खैने के लिए प्रतिष्ठित किया। 
    स्वामीजी आत्मविश्वास के प्रबल पक्षधर हैं। कृष्ण एवं नचिकेता के त्याग, आदर्श से अभिभूत स्वामीजी का यह दृढ़ विश्वास था कि आत्मविश्वास का आदर्श ही हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है। वे मानते थे कि आत्मविश्वास का प्रचार और क्रियान्वयन, दुःख और अशुभ को कम करता है। उनके अनुसार सभी महान व्यक्तियों में आत्मविश्वास की सशक्त प्रेरणा-शक्ति जन्म से होती है। उन्होंने भी इसी ज्ञान के साथ जन्म लेकर स्वयं को स्थापित करने का प्रयास किया।

सोमवार, 13 मई 2013

आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं उनके विचार



ND
आध्यात्मिक जगत में स्वामी विवेकानंद का अद्वितीय स्थान है। भारत के इस युवा संन्यासी ने भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म के उत्कृष्ट विचारों एवं गूढ़ रहस्यों को संसार के समक्ष रखकर संपूर्ण मानव जाति के कल्याण एवं उत्थान के लिए अभूतपूर्व कार्य किया है। 
  स्वामी विवेकानंद भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन के प्रकांड विद्वान थे। अपनी जादुई वक्तृत्व कला एवं ओजस्वी शैली के माध्यम से शिकागो धर्म संसद में भारतीय वेदांत के व्यावहारिक पक्ष को जिस ढंग से उन्होंने प्रस्तुत किया, उसे सुनकर सभी श्रोता विस्मय-विभोर हो गए। इसके पूर्व धर्मसभा ने धर्मकी ऐसी व्याख्या कभी सुनी ही नहीं थी और न ही ऐसी अद्भुत अभिव्यक्ति से कभी उनका साक्षात्कार हुआ था। 
  स्वामी विवेकानंद भारतीय ज्ञान के अमृत को दुनिया के लोगों में बाँटना चाहते थे। इसी उद्देश्य से अनेक कठिनाइयों एवं परेशानियों को झेलते हुए भी वे शिकागो धर्म संसद में पहुँचे थे। वे भारत की सांस्कृतिक विरासत से दुनिया को अवगत कराना चाहते थे और यह बताना चाहते थे कि जब तुम भौतिकवादी संस्कृति के दुष्प्रभावों से ऊब जाओगे और शांति की तलाश करोगे तो वह केवल भारतीय दर्शन एवं वेदांत के दिव्य विचारों से ही पा सकोगे। भारत की दिव्य संस्कृति से ही तुम्हारे जीवन-पथ आलोकित हो सकेंगे। इस उद्देश्य में स्वामीजी पूर्णतः सफल भी रहे। पूरी दुनिया ने उनकी दिव्य वाणी से निःसृत दिव्य जीवन संदेश को मंत्रमुग्ध होकर सुना। 

  आध्यात्मिक जगत में स्वामी विवेकानंद का अद्वितीय स्थान है। भारत के इस युवा संन्यासी ने भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म के उत्कृष्ट विचारों एवं गूढ़ रहस्यों को संसार के समक्ष रखकर संपूर्ण मानव जाति के कल्याण एवं उत्थान के लिए अभूतपूर्व कार्य किया है।      
  गजब का चुंबकीय व्यक्तित्व था स्वामीजी का। श्रोता सुध-बुध खोकर उनके अमृत वचनों का पान किया करते थे। इससे उन्हें एक अद्भुत तृप्ति मिलती थी। किंतु बड़े खेद की बात है कि हम भारतवासियों ने स्वामीजी के उपदेशों एवं संदेशों की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया। स्वामीजी देशवासियों एवं देश की दुर्दशा से अत्यंत दुःखी थे। 
  वे भारत के स्वर्णिम अतीत को फिर से लौटते हुए देखना चाहते थे। इसी उद्देश्य से वे देश की तरुणाई में प्राण फूँकने का सतत प्रयास करते रहे। उनके सपने अभी तक तो पूरे नहीं हुए, पर भविष्य में पूरे हो सकें इसलिएतरुणों एवं युवाओं को विवेकानंद साहित्य पढ़ने हेतु प्रेरित करना आज की आवश्यकता है। 
    स्वामीजी के अनुसार व्यक्ति की शक्ति पर ही समाज की शक्ति निर्भर करती है और व्यक्ति तभी शक्ति संपन्ना बनेगा जब उसका सोच, चरित्र तथा आचरण पवित्र एवं आदर्श होगा। उनका कहना था कि हमारे देश को इस समय आवश्यकता है लोहे की तरह मांसपेशियों और फौलाद की तरह मजबूत स्नायु वाले शरीर की। आज स्वामीजी के ये शब्द उससे कहीं अधिक प्रासंगिक हैं, जितने उनके जीवनकाल में थे। स्वामी विवेकानंद का आह्वान था- 'उठो, जागो और प्रमाद एवं आलस्य को त्यागकर कर्मठता का मार्ग अपनाओ। 

  अकर्मण्य बनकर भाग्य के भरोसे मत बैठो।' वे कहतेथे- 'परमात्मा ने तुम्हें समाज एवं राष्ट्र की सेवा के लिए भेजा है। अतः पूरे समर्पण भाव से सेवा करो। यही ईश्वर की सच्ची उपासना है।' स्वामीजी का संदेश था कि केवल अध्यात्म एवं वेदांत दर्शन ही मनुष्य के चरित्र एवं आचरण को परिमार्जित कर पाएँगे। आज देश में जो चारित्रिक अधःपतन और नैतिकता का गिरता स्तर है, उसे केवल स्वामी विवेकानंद की विचार-शक्ति से ही रोका जा सकता है। 
       आज देश की स्थिति अत्यंत शोचनीय एवं चिंताजनक है। देश में नैतिक मूल्यों का अकाल पड़ा हुआ है। मूल्यों की पुनर्स्थापना कर राष्ट्र का नैतिक उत्थान यदि नहीं किया गया तो स्थिति गंभीर हो जाएगी। इस गंभीर स्थिति से यदि देश को बचाना है, तो युवाओं को सुसंस्कारित एवं चरित्रवान बनाना होगा और यह कार्य केवल विवेकानंद का प्रेरणादायी साहित्य तथा उनके कहे का अनुसरण ही कर सकता है। इसलिए सभी शिक्षण संस्थाओं में स्वामीजी के साहित्य को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाना चाहिए।

अपने देशवासियों के प्रति


स्वामी विवेकानंद
ND
एक ओर नया भारत कहता है कि हमको पति-पत्नी चुनने में पूरी स्वतंत्रता चाहिए, क्योंकि जिस विवाह पर हमारे भविष्य जीवन का सारा सुख-दु:ख निर्भर है, उसका हम अपनी इच्छा से चुनाव करेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत की आज्ञा होती है कि विवाह इंद्रिय-सुख के लिए नहीं वरन् सन्तानोत्पत्ति के लिए है। इस देश की यही धारणा है। संतान उत्पन्न करके समाज में भावी हानि-लाभ के तुम कारण हो, इसलिए जिस प्रणाली से विवाह करने में समाज का सबसे अधिक कल्याण होना संभव है, वही प्रणाली समाज में प्रचलित है। तुम समाज के सुख के लिए अपने सुख-भोग ‍की इच्छा त्यागो।
        एक ओर नया भारत‍ कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खान-पान और वेशभूषा का अवलम्बन करने से ही हम लोग पाश्चात्य जातियों की भाँति शक्तिमान हो सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भार‍‍त कहता है कि मूर्ख ! नकल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है? बिना उपार्जन किए कोई वस्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है? 
       एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य जातियाँ जो कुछ कर रही हैं, वही अच्छा है। अच्छा नहीं है, तो वे बलवान कैसे हुए? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है, पर क्षणिक होती है। बालक! तुम्हारी आँखें चौंधियाँ रह‍ी हैं, सावधान! 
        तो क्या हमें पाश्‍चात्य जगत से कुछ भी सीखने को नहीं है? क्या हमें चेष्टा या प्रयत्न करने की जरूर‍त नहीं है? क्या हम सब प्रकार से पूरे हैं? क्या हमारा समाज पूर्णतया निश्छद्र है? नहीं, सीखने को बहुत कुछ है। प्रयत्न तो हमें जीवनभर करना चाहिए। प्रयत्न ही मनुष्‍य जीवन का उद्देश्य है। श्री रामकृष्‍ण देव कहा करते थे, 'जब तक जिऊँ, तब तब सीखूँ।' जिस व्यक्ति या समाज को कुछ सीखना ही नहीं है, वह मृत्यु के मुँह में जा चुका। सीखने को तो है, परंतु भय भी है।
       एक कम बुद्धिवाला लड़का श्री रामकृष्‍ण देव के सामने सदा शास्त्रों की निंदा किया करता था। उसने एक बार गीता की बड़ी प्रशंसा की। इस पर श्री रामकृष्‍ण देव ने कहा, 'किसी अँग्रेज विद्वान ने गीता की प्रशंसा की होगी। इसलिए यह ‍भी उसकी प्रशंसा कर रहा है।' 
       ऐ भारत ! यही विकट भय का कारण है। हम लोगों में पाश्‍चात्य जातियों की नकल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती है कि भले-बुरे का निश्चय अब विचार-बुद्धि, शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भाव और आचार की प्रशंसा करें, वहीं अच्छा है और वे जिसकी निंदा करें, वही बुरा ! अफसोस ! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय और क्या होगा? 
       पाश्चात्य स्त्रियाँ स्वाधीन भाव से फिरती हैं, इसलिए वही चाल अच्छी है, वे अपने लिए वर आप चुन लेती हैं, इसलिए वही उन्नति का उच्चतम सोपान है, पाश्चात्य पुरुष हम लोगों की वेश-भूषा, खान-पान को घृणा की दृष्‍टि से देखते हैं, इसलिए हमारी ये चीजें बहुत बुरी हैं, पाश्चात्य लोग मूर्ति-पूजा को खराब कहते हैं, तो वह भी बड़ी ही खराब होगी, क्यों न हो? 
       पाश्‍चात्य लोग एक ही देवता की पूजा को कल्याणप्रद बताते हैं, इसलिए अपने देव-देवियों को गंगा में फेंक दो। पाश्‍चात्य लोग जाति-भेद को घृणित समझते हैं, इसलिए सब वर्णों को मिलाकर एक कर दो। पाश्‍चात्य लोग बाल्य विवाह को सव अनर्थों का कारण कहते हैं, इसलिए वह भी अवश्‍य ही बहुत खराब होगा। 

गुरुवार, 9 मई 2013

स्वामी विवेकानन्द के जीवन के स्मरणीय प्रसंग-

१-सत्य के प्रति निष्ठा -
         स्वामी जी ने अपनी माँ तथा बाद में अपने गुरुदेव में सत्य के प्रति जो अटल निष्ठां देखी,उसे अपने जीवन की प्रत्येक क्रिया में प्रकट किया । स्वामी जी अनेक बार कहा करते थे- अपने ज्ञान के विकास के लिए मैं अपनी माँ का ऋणी हूँ। स्कूल में एक दिन नरेन्द्र को विना किसी गलती के सजा भुगतनी पड़ी।भुगोल की क क्षा में सही उत्तर देने पर भी मास्टर जी को लगा कि नरेन्द्र ने गलत उत्तर दिया है।  नरेन्द्र के वारंवार विरोध करने पर मास्टर जी क्रोधित होकर उन्हें और भी अधिक पीटने लगे। फिर भी अंत तक नरेन्द्र यही कहते रहे कि मैंनें सही उत्तर दिया है।  घर पर आकर नरेन्द्र ने रोते हुए माँ को सारी बात बताई।  माँ ने सांत्वना देते हुए कहा-वेटा यदि तुमसे कोई गलती नहीं हुई है तो फिर इस बिषय में तुम चिंता ही क्यों करते हो।  फल चाहे जो  हो, सभी अवस्थाओं में सत्य को हमेशा पकड़े रहना चाहिए \ बाद में नरेन्द्र को अपने गुरुदेव में माँ के इस उपदेश की जीबन्त प्रतिमूर्ति देखने को मिली।  श्री रामकृष्ण कहते- हर अवस्था में सत्य का पालन करना चाहिए।  इस कलियुग में यदि कोई सत्य को पकडे रहता है तो बह निश्चय ही ईश्वर का दर्शन पा लेगा। अपनी माँ और गुरु के इस उपदेश का निर्वाह स्वामी विवेकानंद ने जीवन भर किया। इसीलिए परवर्ती काल में जगत ने उनकी यह स्वाभाविक घोषणा सुनी- सत्य के लिए सब कुछ का त्याग किया जा सकता है, परन्तु किसी भी चीज के लिए सत्य का त्याग नही किया जा सकता।

२-एकाग्रता का चमत्कार-
         स्वामी जी पुस्तकों के बड़े प्रेमी थे। १८९० में मेरठ में स्वामी विवेकानंद के कहने पर स्वामी अखंडानन्द प्रतिदिन एक स्थानीय पुस्तकालय से सर जाँन लबक की ग्रंथावली का एक बड़ा सा खण्ड ले आते और दूसरे दिन उसे लौटकर उसके बाद का खंड ले आते।  ग्रंथपाल ने सोचा स्वामी जी केबल दूसरों पर रौब डालने के लिए ही रोज इतनी मोटी पुस्तक मंगाकर दूसरे दिन दूसरी पुस्तक मंगाते हैं,क्योंकि एक दिन में इतना पढना तो संभव ही नहीं हैं। आखिर एक दिन ग्रन्थपाल ने अपनी शंका स्वामी अखंडानन्द जी के सामने रख ही दी। अखंडानंद जी ने स्वामी जी को जाकर यह बात बताई।  इसे सुनकर स्वामी जी स्वयं ही दूसरे दिन पुस्तकालय में उपस्थित हुए और विनम्रता के साथ ग्रंथपाल से बोले- महाशय मेनें बड़े ध्यानपूर्वक इन ग्रंथों को पद़ा है यदि आप चाहें तो कहीं से भी अपनी इच्छानुसार पूँछ सकते हैं। इस पर ग्रंथपाल ने स्वामी जी से कई प्रश्न पूँछे और स्वामी जी ने उन सभी प्रश्नों के सटीक जवाव दिए। यह देख ग्रंथपाल आश्चर्य चकित हो उठा।
                            खेतड़ी के राजा भी स्वामी जी के पढने की पध्दिती देखकर बड़े विस्मित हुए थे।  स्वामी जी कोई भी पुस्तक हाथ में लेकर शीध्रतापूर्वक उसके पृष्ठ पलटते जाते, इतने से ही उनकी पढाई पूरी हो जाती। राजा ने पूंछा यह भला कैसे सम्भब है तो स्वामी जी ने वताया कि जैसे एक शिशु जव पढना सीखता है तो सर्वप्रथम बह किसी शब्द के किसी विशेष अक्षर पर अपना ध्यान एकाग्र करता है उसका दो तीन बार उच्चारण करता है फिर अगले अक्षर के साथ भी ऐसा ही करने के बाद बह पूरे शब्द का उच्चारण करता है। जब बह पढने की कला में और आगे बढता है तो बह प्रत्येक शब्द पर ध्यान देता है।  काफी अभ्यास के बाद बह दृष्टि मात्र डालकर ही पूरा वाक्य पढ जाता है इसी प्रकार यदि कोई अपनी एकाग्रता की शक्ति को बढाता जाये तो बह पलक झपकते ही पूरा पृष्ठ पढ़ सकता है। स्वामी जी ने वताया कि बे ऎसा ही करते हैं।  साथ ही यह भी बताया कि इसके लिए अभ्यास तथा एकाग्रता की भी आवश्यकता होती है इसका आश्रय लेकर कोई भी व्यक्ति यह क्षमता अर्जित कर सकता है । 

बुधवार, 8 मई 2013

महिला विषयक विचार: स्वामी विवेकानन्द


एक बार न्यूयार्क में भाषण देते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा  था-मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी,यदि भारतीय स्त्रियों की भी ऐसी ही बौध्दिक प्रगति हो जैसी इस देश की स्त्रियों में हुई है । परन्तु बह  उन्नति तभी अभीष्ट है जव बह उनके पवित्र जीवन और सतीत्व को अक्षुण वनाये रखते हुए हो।  मैं अमेरिका की स्त्रियों के ज्ञान और विव्दता की प्रशंसा  करता हूँ, किन्तु यहाँ नारी भक्ति के नाम पर जो कुछ चलता है उसे देखकर मेरी आत्मा ग्लानि से भर जाती है पहले पश्चिम के लोग नीचे झुकते  हैं,स्त्रियों को कुर्सी देते हैं और फिर अगले ही क्षण उनकी  प्रशंसा में कहना शुरू कर देते हैं-देवी जी तुम्हारी आखें कितनी सुंदर हैं, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है? एक पुरुष इतना साहस क्यों कर पाता है, और तुम स्त्रियाँ इसकी अनुमति कैसे दे सकती हो, हमारी स्त्रियाँ इतनी विदुषी नहीं, किन्तु वे अधिक पवित्र हैं।  भारत में स्त्रियों का आदर्श सीता ,सावित्री,दमयन्ती हैं इसलिए पूर्व की स्त्रियों को पश्चिमी मापदंड से मापना ठीक नहीं । पश्चिम में स्त्री पत्नी है पूर्व में बह माँ है।
                      भारतबर्ष में स्त्रीत्व मातृत्व का ही बोधक है।  मातृत्व में महानता,निस्वार्थता,कष्ट-सहिष्णुता और क्षमाशीलता का भाव निहित है भारतीय स्त्री का सारा जीवन इस बात से ओत-प्रोत है कि बह माँ है, और पूर्ण माँ बनने के लिए के लिए उसे पतिव्रता रहना आवश्यक है।  प्रत्येक स्त्री के लिए अपने पति को छोड़ अन्य कोई भी पुरुष पुत्र जैसा और प्रत्येक पुरुष के लिए अपनी पत्नी को छोड़ प्रत्येक स्त्री माता के समान होती है।
               भारत में नारी ईश्वर की साक्षात अभिव्यक्ति मानी जाती रही है- या देवि सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता----।मनु ने कहा है-यत्र नार्यस्तु पूजन्ते रमन्ते तत्र देवता। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला:क्रिया:। अर्थात जहाँ स्त्रियों का आदर होता है वहां देवता प्रसन्न होते हैं और जहाँ उनका सम्मान   नहीं होता वहाँ सारे कार्य तथा प्रयत्न असफल हो जाते हैं जहाँ स्त्रियों का सम्मान नहीं होता वे दुखी रहती हैं उस परिवार की उस देश की उन्नति की आशा नहीं की जा सकती।वास्तव में भारत का अध्:पतन तभी से प्रारम्भ हुआ जव से स्त्रियों के सारे अधिकार छीन लिए गये । नहीं तो वेदों उपनिषदों के युग में मैत्रेयी गार्गी आदि प्रात:स्मरणीया स्त्रियाँ ब्रह्म-विचार में ऋषि तुल्य थीं । हजार वेदज्ञ ब्राह्मणों की सभा में गार्गी ने गर्व के साथ याज्ञवल्क्य को ब्रह्म ज्ञान में शास्त्रार्थ के लिए चुनोती दी थी। इन आदर्श स्त्रियों को जव उन दिनों आध्यात्म ज्ञान का अधिकार था तो फिर आज की स्त्रियों को यह अधिकार क्यों नहीं।स्वामी जी कहा करते थे कि जिस देश में जिस राष्ट्र में स्त्रियों की पूजा नहीं होती वह देश बह राष्ट्र न कभी बड़ा बना है और न कभी बड़ा वन सकेगा। भारत का जो इतना अध्:पतन हुआ है उसका प्रधान कारण  है-इन शक्ति मूर्तियों का अपमान।आज संसार के सब देशों में हमारा देश ही सबसे अधम है, शक्तिहीन है, पिछड़ा हुआ है, इसका कारण यही है कि यहाँ शक्ति का अनादर हॊता है और शक्ति के विना जगत का उध्दार नहीं है । अमेरिका के पुरुष अपनी स्त्रियों के साथ  अच्छा व्यवहार करते हैं इसीलिए वे सुखी विव्दान स्वतंत्र और उद्योगी हैं।  दूसरी ओर हम भारत के लोग स्त्री जाति को नीच, अधम ,परम हेय  तथा अपवित्र कहते हैं अत: हम लोग पशु दास उध्दम  हीन  और दरिद्र हो गये ।
          स्वामी जी कहा  करते थे कि स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव करना उचित नहीं है।  उनके अनुसार -आत्मा में भी क्या कहीं कोई  लिंग- भेद है?जो हम स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव करते हैं । वे कहते थे-स्त्री में जो दिव्यता निहित है,उसे हम कभी ठग नहीं सकते।  बह ना कभी ठगी गयी है और ना कभी ठगी जाएगी बह  सदैब अपना प्रभाव जमा लेती है तथा अचूक रूप से बेईमानी और दोंग को पहचान लेती है और सत्य के तेज आध्यात्मिकता के आलोक तथा पवित्रता की शक्ति का उसे निश्चित रूप से पता चल जाता है। यदि हम वास्तविक धर्मलाभ करना चाहते है तो स्त्री की पवित्रता अनिवार्य है। स्त्रियों की दशा सुधारे विना जगत के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है।  पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है इसीलिए बालिकाओं के लिए गाँव-गाँव में विद्यालय खोलने की वात कहता हूँ स्त्रियाँ जव शिक्षित  होगीं तभी तो उनकी संतानों व्दारा देश का मुख उज्जल होगा और देश में विद्या ,ज्ञान ,शक्ति, भक्ति जाग उठेगी
                        निश्चित रूप से भारत में महिलाओं की समस्याएं बहुत सी और गंभीर भी हैं, किन्तु उन सभी समस्याओं का समाधान उनकी शिक्षा व्दारा किया जा सकता है। शिक्षित होने पर वे स्वयं ही बतायेंगीं कि  उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं।अत:पहले उन्हें उठाना होगा।सीता भारत की आदर्श है,भारतीय भावों की प्रतिनिधि है,मूर्तिमती भारतमाता है,भारत में जो कुछ पवित्र है विशुध्द है पावन है उस सवका बोध सीता शब्द से हो जाता है । भारत में कुलबधू को आर्शीवाद देते हैं तो कहते हैं-सीता बनो।  सब हिन्दू सीता की संतान हैं सीता का चरित्र अव्दितीय है यह चरित्र सदा के लिए सिर्फ एक ही बार चित्रित हुआ है। राम तो कदाचित कई हो गये हैं किन्तु सीता दूसरी नहीं हुई। स्त्री चरित्र के जितने भारतीय आदर्श हैं वे सब सीता के ही चरित्र से उद्घृत हुए हैं । स्वयं पवित्रता से भी पवित्र, धैर्य एवं सहनशीलता का  सर्वोच्च आदर्श, नित्य साध्वी, सदा शुध्द स्वभाव, आदर्श पत्नी सीता मनुष्य लोक की आदर्श पुण्य चरित्र सीता सदा हमारी राष्ट्रिय देवी बनी रहेंगीं।
                         स्त्री शिक्षा कैसी हो?सीता का आदर्श हमारे सामने है। प्रथम तो हिन्दू स्त्री के लिए सतीत्व का अर्थ समझना सरल है क्यंकि यह उसकी विरासत है, परम्परागत सम्पति है,भारतीय नारी के ह्रदय में यह ज्वलन्त आदर्श सर्वोपरी रहे। ताकि वे इतनी दृढ़चरित्र बनें कि जीवन की हर अवस्था में अपने सतीत्व से डिगने की अपेक्षा निडर भाव से जीवन की आहुति दे दें साथ ही महिलाओं को विज्ञानं तथा अन्य बिषय सिखाये जाएँ जिनसे न केवल उनका अपितु अन्य लोगों का  भी हित हो।
                   हमारी नारियों को आधुनिक भावों में रंगने की जो चेष्टाये हो रही है उन सब  प्रयत्नों में यदि उनको सीता चरित्र के आदर्श से भ्रष्ट करने की चेष्टा होगी तो वे सब असफल होंगीं।  भारतीय नारियों में सीता के चरण-चिन्हों का अनुसरण कराकर हमें अपनी उन्नति की चेष्टा करनी चाहिए।सीता,सावित्री और दमयन्ती के आदर्श के साथ आधुनिक युग में एक आदर्श और महिलाओं के सामने स्थित है। और बह है-श्री रामकृष्ण परमहंस की अर्धांगिनी माँ सारदा।   महाशक्ति को भारत में पुन: जगाने के लिए ही शारदा माँ  का आविर्भाव हुआ है और उन्हें केंद्र बनाकर जगत में फिर से गार्गी और मैत्रेयी जैसी नारियों का जन्म होगा।  हमारी भारतीय नारियां संसार की अन्य किन्ही भी नारियों की भांति अपनी समस्याओं को स्वयं ही सुलझाने की क्षमता रखती हैं।  इस देश की नारियों से मैं यही कहूँगा कि  भारत में विश्वास रखो और अपने भारतीय धर्म पर विश्वास करो, शक्तिवान बनो, आशावान बनो, संकोच छोडो और याद् रखो- किसी भी अन्य देश की तुलना में दूसरों को देने के लिए आपके पास उनसे कई गुना अधिक है।
                   भारत के लिए नारियों में एक सच्ची सिंहिनी की आवश्यकता है।  गौरी माँ के समान महान और तेजोमय भाव धारण करो।   स्वामी जी कहा करते थे-पांच सौ पुरुषों के द्वारा भारत को जय करने में पचास बर्ष लग सकते हैं परन्तु पांच सौ नारियों के द्वारा यह मात्र कुछ सप्ताहों में ही सम्पन्न हो सकता है

स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन पर विशेष






दुनियाभर में भारतीय आध्यात्म का परचम लहराने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारत की गौरवशाली परंपरा और संस्कृति के प्रति न केवल भारतीयों के मन में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास का संचार किया, बल्कि नव भारत के निर्माण की रूपरेखा तैयार करने के साथ ही एक नवजागरण की शुरुआत भी की।
   भारतीय इतिहास के अहम स्तंभ स्वामी विवेकानंद की 12 जनवरी, 2013 को 150वीं जयंती है, जिसे भारत सहित पूरे विश्व में उस महापुरुष के प्रति अगाध श्रद्धा और आदर के साथ मनाया जाएगा।
  ‘राष्ट्रीय नवजागरण के अग्रदूत की भूमिका निभाने वाले स्वामी विवेकानंद को लेकर भारतीय जनमानस में कई तरह की छवियां अंकित हैं। सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए उनके द्वारा शुरू किया गया अभियान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। साथ ही एक भारतीय युवा के रूप में जीवन जीने का उन्होंने जो आदर्श प्रस्तुत किया वह आज के समय में भी युवाओं के लिए ‘रोल मॉडल’ है।विवेकानन्द को भारतीय समाज की बुनियादी एकता को मजबूत करने और पाश्चात्य समाज के बीच भारत की एक अलग एवं नई छवि बनाने के लिए सदा याद किया जाएगा। विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में कोलकाता के निकट बेलूर मठ में हुआ था। ‘उठो, जागो और तब तक मत रूको, जब तब लक्ष्य को न प्राप्त कर लो’ कहने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारतीय सभ्यता संस्कृति को खुद में इस तरह आत्मसात किया कि उनके बारे में एक बार गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था ‘अगर भारत को जानना है तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’
   वर्ष 1893 में शिकागो विश्व हिन्दू सम्मेलन में भाग लेकर भारतीय संस्कृति का झंडा बुलंद करने वाले विवेकानंद ने पूर्व और पश्चिम का एक अद्भुत सहचर्य प्रस्तुत किया। शायद यही वजह है कि उनके बारे में एक बार सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा ‘स्वामी जी ने पूर्व एवं पश्चिम, धर्म एवं विज्ञान, भूत एवं वर्तमान का आपस में मेल कराया। इस लिहाज से वह महान हैं। भारतवासियों को उनकी शिक्षा से अभूतपूर्व आत्म सम्मान, आत्म निर्भरता एवं आत्म विश्वास मिला।’ यायावर जीवन व्यतीत करने वाले स्वामी विवेकानंद पर प्रकाशित मशहूर बांग्ला लेखक शंकर की पुस्तक ‘द मॉन्क ऐज मैन’ में कहा गया है कि वह कई बीमारियों से पीड़ित थे। शायद यही वजह है जब बच्चे उनके पास गीता का उपदेश सुनने के लिए आए तो उन्होंने कहा कि गीता नहीं फुटबॉल खेलो। उन्होंने कहा ‘मैं चाहता हूं कि तुम्हारी मांसपेशियां पत्थर-सी मजबूत हों और तुम्हारे दिमाग में बिजली की तरह कौंधने वाले विचार आएं।’ विवेकानंद ने अपने जीवन और विचारों में आधुनिकता को समुचित स्थान दिया था। ‘प्राचीन मूल्यों से जुड़े, भारत की प्रतिष्ठा पर गौरव महसूस करने वाले विवेकानंद ने जीवन की कठिनाइयों के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण अपनाया। वह एक तरह से प्राचीन और वर्तमान भारत के बीच की कड़ी थे। उन्होंने दुखियों और हतोत्साहित हिन्दू संस्कृति के लिए मरहम का काम किया और उन्हें स्वाभिमान की भावना से भरा।’ 
                    कई विशिष्ट ग्रंथों की रचना करने वाले विवेकानंद जब शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में बोलने के लिए गए तो उन्होंने वहां भारत की एक अविस्मरणीय गाथा लिख डाली।रामकृष्ण मिशन की स्थापना करने वाले स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन को लेकर लिखा है, ‘यह कहा जा सकता है, उन्होंने जब बोलना शुरू किया तो हिन्दुओं के धार्मिक विचार सामने आने शुरू हुए लेकिन जब उन्होंने खत्म किया तब वहां हिन्दू धर्म का निर्माण हो गया।’ 
               कई बीमारियों से लड़ते हुए चार जुलाई, 1902 को विवेकानंद का देहावसान हो गया। उस समय इस यशस्वी विद्वान की उम्र महज 39 साल थी। 

         

  

 *महिला विषयक विचार: स्वामी विवेकानन्द






विवेकानंद सार्धशती

शुक्रवार, 3 मई 2013


पहले ‘मनुष्य निर्माण' करो


तारीख: 02 May 2013 15:10:13



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मस्त स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन आन्तरिक आध्यात्मिक शक्तियों की अभिव्यक्ति मात्र है। यदि वे आन्तरिक शक्तियां बलवती एवं सन्तुलित हैं, तो समाज तदनुसार अपनी रचना स्वयं कर लेगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना होगा। कोई अन्य उपाय नहीं है। ऐसा ही राष्ट्रों के साथ होता है। फिर प्रत्येक राष्ट्र की महान सामाजिक व्यवस्थाएं उसके अस्तित्व की आधारशिला हैं और उन्हें किसी दूसरी जाति के सांचे में नहीं ढाला जा सकता। जब तक उनसे श्रेष्ठ व्यवस्थाओं का विकास न हो, तब तक पुरानी व्यवस्थाओं को नष्ट करना आत्मघात होगा। विकास सदैव धीरे-धीरे होता है।
इन व्यवस्थाओं में दोष निकालना बड़ा सरल है; क्योंकि सभी में कुछ न कुछ अपूर्णता होती है। किन्तु, मानवता का सच्चा कल्याण वही करता है जो चाहे जिन व्यवस्थाओं के अन्तर्गत रहनेवाले व्यक्ति के ऊपर उठने पर समाज और उसकी व्यवस्थाओं का ऊपर उठना अवश्यम्भावी है। शीलवान् लोग खराब प्रथाओं और नियमों की उपेक्षा कर देते हैं और उनकी जगह ले लेते हैं प्रेम, सहानुभूति और प्रामाणिकता पर आधारित सशक्त नियम। वही राष्ट्र सुखी है जो इतना ऊंचा उठ सके कि उसे न्यूनतम कानूनी पुस्तकों की आवश्यकता रह जाए और जिसे इस या उस व्यवस्था के लिए माथापच्ची करने की आवश्यकता ही न पड़े। सत्पुरुष समस्त नियमों से ऊपर उठने में सहायता प्रदान करते हैं। अतएव, भारत का उद्धार व्यक्ति के आत्मिक बल और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने अन्दर देवत्व के साक्षात्कार पर निर्भर करता र्है।
उपासना एकान्त में होती है समूह में नहीं 
हम देखते हैं कि धार्मिक उपासना का रूप कभी सामूहिक नहीं हो सकता। धर्म की सच्ची साधना प्रत्येक व्यक्ति का निजी विषय होना चाहिए, क्योंकि मैं जानता हूं कि आपका भी वही भाव होना आवश्यक नहीं है। दूसरे, मैं प्रत्येक के सामने यह ढिंढोरा पीटकर कि मेरा भाव क्या है, क्या व्यर्थ उपद्रव पैदा करूं? अन्य लोग आकर मुझसे लड़ने लगेंगे। यदि मैं उन्हें अपना भाव न बताऊं तो वे ऐसा नहीं करेंगे। किन्तु, यदि मैं सबको बताता फिरूं कि मेरा अमुक भाव है तो वे सब निश्चय ही मेरा विरोध करेंगे। अत:, उसकी चर्चा करने से लाभ ही क्या? इस इष्ट को गुप्त ही रखना चाहिए। वह केवल तुम्हारे और ईश्वर के बीच की वस्तु है। धर्म के सैद्धान्तिक पक्ष का विवेचन एवं प्रवचन सार्वजनिक तौर पर किया जा सकता है, उसे सामूहिक रूप भी दिया जा सकता है, किन्तु उच्चतर धर्म-साधना को सार्वजनिक रूप नहीं दिया जा सकता। आदेश मिलते ही मैं अपनी धार्मिक भावनाओं को प्रकट नहीं कर सकता। इस स्वांग और उपहास का क्या परिणाम होता है? यह धर्म का उपहास है, ईश्वरद्रोह है। इसका फल तुम्हें वर्तमान गिरजाघरों में देखने को मिल सकता है। मनुष्य इस धार्मिक कवायद को कैसे सहन कर सकते हैं? वहां सैनिक जीवन का-सा दृश्य रहता है। ‘बन्दूक कन्धे पर ले जाओं। नीचे झुको, किताब उठाओ' आदि-आदि। सब कुछ यन्त्रवत् नियन्त्रित, पांच मिनट तक अनुभूति, पांच मिनट तक तर्क, पांच मिनट तक प्रार्थना-सब पूर्व निर्धारित। इस स्वांगों ने धर्म को हानि पहुंचाई हैं। इन गिरजाघरों में जीभर कर सिद्धान्तों, मतवादों एवं दार्शनिक विषयों का विवेचन हो, किन्तु जब उपासना का प्रश्न आए, जो धर्म का वास्तविक व्यावहारिक अंश है, तब वह ईसु के इन शब्दों के अनुरूप ही होना चाहिए, ‘जब तू प्रार्थना करे तो पूर्णतया अन्तर्गुहा में प्रविष्ट हो, जब तू द्वार बन्द कर ले तब वहां एकान्त में अपने परमपिता से प्रार्थना कर।
'मूर्तिभंजकों में भी मूर्तिपूजा 
समस्त संसार में तुम किसी न किसी रूप में मूर्तिपूजा पाओगे। कहीं वह मूर्ति मनुष्याकार है, जो कि उसका सर्वोत्तम रूप है। यदि मैं किसी मूर्ति की उपासना करना चाहूं, तो मैं उसका मानव रूप पसन्द करूंगा, न कि पशु, भवन या अन्य कोई रूप। एक सम्प्रदाय सोचता है कि एक विशिष्ट रूप ही मूर्ति का सही प्रकार है, अन्य सोचता है वह रूप खराब है। ईसाई सोचते हैं कि यदि ईश्वर ‘कबूतर' के रूप में आए तो ठीक, किन्तु यदि यह मत्स्यावतार लेकर आए, जैसा कि हिन्दुओं की धारणा है तो वह झूठ हैं, निरा अन्धविश्वास है। यहुदियों की धारणा है कि यदि मूर्ति का रूप ऐसा हो जिसमें ‘एक सन्दूक पर बैठे हुए दो देवदूत और एक पुस्तक' दिखाई जाए, तो व बिल्कुल ठीक होगा, किन्तु यदि मूर्ति स्त्री या पुरुष रूप में है, तो वह भयानक है। मुसलमानों का विश्वास है कि नमाज पढ़ते समय यदि वे पश्चिम की ओर मुंह कर काबा की मस्जिद और उसके पवित्र ‘संगे असवद' (काला पत्थर) की कल्पना-चित्र अपने मस्तिष्क में ला सकें तो वह बहुत अच्छा रहेगा। किन्तु, यदि उस कल्पना-चित्र में गिरजाघर आ जाए तो वह घोर मूर्तिपूजा। यही दोष है, किन्तु धर्म के साक्षात्कार की यह आवश्यक सीढ़ियाँ हैं।
अनायास समाधि अवस्था पाने से हानि 
योगी सिखाता है कि मन स्वयं बुद्धि से परे एक उच्च अवस्था में पहुंछ जाता है, जिसे समाधि अवस्था कहते हैं और जब मन उस अवस्था में पहुंच जाता है, तब उसे तर्कबुद्धि परे अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त होता है। उस मनुष्य को पराभौतिक एवं अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त हो जाता है। तर्कबुद्धि के परे जाने की, सामान्य मानव-प्रवृत्ति को पार करने की इस अवस्था को कभी-कभी ऐसा व्यक्ति भी अनायास प्राप्त कर जाता है जिसे उसकी शास्त्रयुक्त प्रणाली का ज्ञान नहीं है। वह उस अवस्था को मानो संयोग से पा जाता है।
योगी कहते हैं कि इस अवस्था को संयोग से पा जाना बहुत खतरनाक होता है। ऐसे अधिकांश मामलों में मस्तिष्क विकृत हो जाने का भय रहता है और निरपवाद रूप में तुम पाओगे कि ऐसे सब लोग, जो समाधि अवस्था को बना समझे ही संयोगवश उसमें पहुंच गए, बहुत महान होने पर भी, अंधेरे में भटकते रहे और सामान्यतया अपने समस्त ज्ञान के उपरान्त भी वे कुछ विचित्र अन्धविश्वासों के आधीन हो गए। वे आसानी से मतिभ्रम के शिकार हो जाते हैं। मोहम्मद का दावा था कि एक दिन उन्हें गुफा में जिब्राइल नामक एक देवदूत मिला था कि एक ‘हरक' पर बैठाकर उन्हें स्वर्ग ले गया था। किन्तु, ऐसी बातों के अलावा मोहम्मद ने कुछ अद्भुत सत्यों का भी उद्घोष किया है। यदि तुम कुरान पढ़ों तो तुम्हें उसमें अन्धविश्वासों में निगणित अद्भुत सत्य भी मिलेंगे। इसका आप क्या स्पष्टीकरण देंगे? उस व्यक्ति को अलौकिक प्रेरणा प्राप्त हुई थी, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु वह प्रेरणा उन्हें अनायास ही प्राप्त हो गई। उसके लिए उन्होंने शास्त्रीय पद्धति से योगाभ्यास नहीं किया था और जो कुछ कर रहे थे, उसके कारणों को नहीं जानते थे। मोहम्मद ने संसार का जितना भला किया, उसका विचार करो और अपनी कट्टरवादिता के कारण उन्होंने संसार का कितना बडा अपकार किया, इसकी भी कल्पना करो। उन उपदेशों के कारण जो करोड़ों मनुष्य मौत के घाट उतारे गए, जो असंख्य माताएं अपने बच्चों से वंचित कर दी गई, जो बच्चे अनाथ हो गए, देश के देश उजाड़ दिए गए, करोड़ों-करोड़ों लोग मार डाले गए- जरा इसकी भी कल्पना करो।
इस प्रकार हम मोहम्मद और अन्य महान धर्मोंपदेशकों के जीवनों के अध्ययन से इस संकट को जान सकते हैं। किन्तु, साथ ही हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि उन सभी को अलौकिक प्रेरणा प्राप्त हुई थी। जब कभी कोई धर्म-प्रवर्तक अपनी भावुक प्रकृति के वशीभूत हो समाधि अवस्था में पहुंचा, तभी वह वहां से न केवल सत्य के कुछ कण साथ लाया अपितु कुछ कट्टरवादिता, कुछ अन्धविश्वास भी साथ लाया, जिन्होंने संसार को उतनी ही हानि पहुंचाई, जितनी कि उसके उपदेशों से लाभ पहुंचा। असंगतियों के इस ढेर में, जिसे हम जीवन कहकर पुकारते हैं, कोई संगति बैठाने के लिए हमें तर्कबुद्धि के परे जाना होगा। किन्तु, उस स्थिति को शास्त्रीय पद्धति से, शनै:-शनै: सतत् अभ्यास द्वारा, समस्त अन्धविश्वासों से मुक्त होकर, प्राप्त करना ही उचित होगा।
स्वामी विवेकानन्द