अपनी क्षमता के आधार पर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करें : श्रीदेवी गोयल
नागपुर, अक्तूबर 7: महिलाओं में अपार शक्ति होती है। आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें इस शक्ति की अनुभूति हो सके और उस अनुभूति के आधार पर वे समाज में प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त कर सके।
इस आशय को स्पष्ट करते हुए पूर्व पुलिस महासंचालक होमगार्ड एवं नागरी सुरक्षा (महाराष्ट्र) सुश्री श्रीदेवी गोयल ने कहा कि महिलाओं द्वारा अपनी क्षमताओं को बढ़ाना वर्तमान में अतिआवश्यक है। वे राष्ट्र सेविका समिति के विजयादशमी एवं स्थापना दिवस समारोह को सम्बोधित कर रही थीं।
कार्यक्रम में शामिल सभी सेविकाओं को संबोधित करते हुए सुश्री गोयल ने कहा कि अपनी क्षमताओं को पहचानो, अपने अन्दर की शक्ति को जानो और समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ एकजुट होकर उसका सामना करो। उन्होंने कहा कि अपनी संस्कृति, परंपरा, एवं जीवन मूल्यों का अनुसरण करो तभी जीवन का यथार्थ समझने में सहजता होगी और महिला को समाज में उचित सम्मान भी मिल सकेगा।
राष्ट्र सेविका समिति के इस कार्यक्रम में समिति की प्रमुख कार्यवाहिका सुश्री अन्नदानम सीताक्का, विदर्भ प्रान्त की कार्यवाहिका सुश्री सुलभा गौड़, नागपुर महानगर कार्यवाहिका सुश्री करुणा साठे, व्यासपीठ पर विराजमान थीं। पूर्व प्रमुख संचालिकाद्वय वन्दनीय उषाताई चाटी व प्रमिलाताई मेढे की विशेष उपस्थिति रही।
शस्त्र पूजन के साथ कार्यक्रम का प्रारंभ हुआ। पारंपरिक शस्त्रों के साथ आधुनिक अग्नि प्रक्षेपास्त्र तथा दूरसंचार उपग्रहों के मॉडल की भी पूजा की गई। तत्पश्चात सेविकाओं द्वारा शारीरिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए जिसके अंतर्गत पिरामिड, योगासन व सूर्यनमस्कार, दंडयोग, सामूहिक गीत आदि का समावेश था।
अपने सरल किन्तु हृदय को स्पर्श करनेवाले शब्दों में सुश्री गोयल ने सहभागी सेविकाओं को बताया कि भारत में युगों से यह मान्यता रही है, जहां महिलाओं का आदर होता है वहां देवता वास करते हैं। वर्त्तमान युग में महिलाओं को ऐसा सम्मान का स्थान यदि प्राप्त करना है तो उन्हें शक्ति की उपासना कर अपनी क्षमताओं का विकास करना होगा। जीवन में सभी कठिनाइयों पर दृढ़ रहते हुए उनका सामना करना होगा और परिवार की रीढ़ होने के नाते नारी द्वारा अपने परिवार को भी एकसाथ रखना होगा।
भारत में महिलाओं को ‘शक्तिस्वरूपा’ माना गया है, इस बात की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा कि आधुनिक काल में भी महिलाओं ने अपनी इस शक्ति का परिचय दिया है। कुछ वर्ष पूर्व नागपुर के न्यायालय परिसर में महिलाओं के उग्र भीड़ ने अक्कू यादव नामक एक बदमाश को ख़त्म कर दिया था। इसका स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि एक पुलिस अधिकारी के नाते उसका समर्थन करना उनके लिए ठीक नहीं है, फिर भी एक महिला के नाते जो हुआ वह अच्छा हुआ ऐसा उनका मानना है।
फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के लिए जो पागलपन का दौर आज युवा पीढ़ी में दिखाई देता है उसपर कठोर प्रहार करते हुए सुश्री गोयल ने युवा महिलाओं और युवतियों को नसीहत दे दी कि वे अपना फोटो, एवं व्यक्तिगत जानकारी फेसबुक पर न डालें। ऐसी जानकारी का गलत इस्तेमाल होता है और बाद में संकटों का सामना करना पड़ता है। इससे अपनी पढाई और अपने ध्येय प्राप्ति के मार्ग पर अपना ध्यान केन्द्रित करना अधिक योग्य है।
प्रमुख कार्यवाहिका सुश्री सीताक्काजी ने अपने उदबोधन में कहा कि महिलाएं शक्ति का भंडार है। ‘शक्ति नित्यत्व नियम’ यह शक्ति के संरक्षण का ही नियम है। ब्रह्माण्ड की सभी शक्ति एक ही है पर उसके अविष्कार भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देते हैं। महिलाएं उसी शक्ति का एक स्वरूप है और ऐसी शक्तिस्वरूपिणी महिलाओं का संगठन समाज में व्याप्त सभी बुराइयों को मूल से विनाश कर सकता है।
पौराणिक काल के ‘रक्तबीज’ दैत्य की कहानी का सन्दर्भ देते हुए न्होंने कहा कि माँ दुर्गा को भी उस दैत्य को मरने हेतु चंडिका का रूप धारण करना पड़ा था और उसके शरीर से रक्त की एक बूँद भी जमीन पर नहीं गिरने दिया, और माता ने उसका संहार किया था।
आज उस रक्तबीज के अनेक रूप दिखाई देते हैं, जैसे- चीन द्वारा हमारी भूमि पर आक्रमण, पाकिस्तान का हमारे विरुद्ध दहशतगर्दी को बढ़ावा देना, भ्रष्टाचार, महंगाई, रूपये का अवमूल्यन, महिलाओं का उत्पीड़न, लव जिहाद के जरिए हिन्दू युवतियों को इस्लाम के चंगुल में फंसाना और उनका गलत तरीके से इस्तेमाल करना, ये सभी उसी रक्तबीज दैत्य के अनेक रूप हैं जो आज हमें सता रहे। इनका विनाश करने हेतु इस शक्तिस्वरूपिणी महिला को संगठित होना होगा और चंडिका की तरह इस आधुनिक रक्तबीज का विनाश करना होगा। इसके लिए महिलाओं द्वारा अपनी अध्यात्मिक शक्ति को भी विकसित करने की आवश्यकता है और नए पीढ़ी में अपने संस्कारों को संप्रेषित करने का दायित्व भी उसे पूरा करना होगा।
सुश्री मेधा नांदेडकर ने कार्यक्रम का संचालन किया और सुश्री करुणा साठे ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम में महिला कला निकेतन की अनुराधा मुंडले, समिति की अखिल भारतीय शारीरिक शिक्षण प्रमुख मनीषा संत, देवी अहिल्या मंदिर की सुमन सरनाईक, शक्तिपीठ की डॉ. गरिमा सप्रे, संस्कार भारती की डॉ. मन्दाकिनी गुप्ता, अधिवक्ता मीरा खड्ड्कार तथा मुकुल कानिटकर के साथ ही अनेक गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। साभार-
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सोमवार, 30 जून 2014
मंगलवार, 3 जून 2014
शाखा संजीवनी
हिन्दु कुल में जन्मे यह भाग्य। ‘हिन्दु' के नाते स्वाभिमान से जीवन स्थापन करे यह कर्तृत्व हिन्दुत्वके रक्षण हेतु जियेंगे-आवश्यक तब मरेंगेभी यही समर्पण, यह भावना अनायास निर्माण होती है, ऐसा पवित्र स्थान याने समिति शाखा का मैदान!
स्वामी विवेकानंद-तब का नरेंद्र अपनी व्यक्तिगत इच्छा की परिपूर्ति हेतु कालीमाता के मंदिर में गये। मंदिर की पवित्रता, तेजस्विता, उदात्तता का प्रभाव ऐसा रहा की सब कुछ भूलकर मुख से शब्द निकले, ‘माँ, मुझे शक्ति दो, बुद्धी दो, वैराग्य दो' शाखास्थान का ऐसा प्रभाव अनेकोंकी अनुभूति का विषय है।
संजीवनी अर्थात क्षीण प्राणशक्ति का पुनरूज्जीवन/प्राणशक्ति के कारण ही शरीर के सभी अंगोपांग संपूर्ण सामंजस्य से काम करते है। यह ऊर्जा हृदय से निकलनेवाली रक्तवाहिनियाँ शरीर के आखरी छोर तक पहूँचाती है- चैतन्य प्रदान करती है। व्यक्तिगत जीवन में शरीर में प्राणशक्ति का संचार रूकना याने मृत्यू। राष्ट्र जीवन में प्राणशक्ति है, संस्कृति अर्थात जीवनदृष्टी अर्थात जीवनमूल्य। उसकी अनुभूती-विचार, उच्चार व्यवहार का प्रवाह खंडीत होना राष्ट्र की चेतना लुप्त होने जैसा ही है। भारत सनातन राष्ट्र है। केवल मानव के नही, अपितु चराचर सृष्टि के कल्याण का विचार संस्कार देता है। अत: वह जीवित रखना, प्रबल रखना अनीवार्य है। प्रबल राष्ट्रकी दखल विेशमंचपर होती है। हमारी यह जीवनदृष्टि से जीवनमूल्यों का आदर अनुकरण होने हेतु इस जीवित कार्य का एहसास। इसके संस्कार विविधतासे सहज होने का स्थान है शाखा।
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का समन्वित विकास राष्ट्र सेवा के लिए ही ऐसा सहज संकल्प करने का स्थान है, समिति शाखा का मैदान। ‘विकसित व्हावे, अर्पित होऊन जावे' की अनुभूति का स्थान है, शाखा का मैदान। शाखा में आते ही मन की नाराजी, उद्विग्नता, निराशा, अपनी सखियोंको देखकरही भाग जाती है। खेल, व्यायाम, योगासन, गणसमता के साथ साथ जीवन में अनुशासन, समयपालन, आज्ञापालन, नेतृत्व गुणोंका विकसन, जीवन का अंग स्वभाव बन जाता है। राष्ट्र धर्म के प्रेरक गीत, कहानियाँ, विषय प्रतिपादन, नित्य-नैमित्तिक कार्यक्रमों को प्रीावी बनाने हेतु नियोजन, व्यवस्थापनकुशलता, आत्मविेशास, समरसता और बहुत कुछ ग्रहण कर लेते है। मन में आश्चर्य होता है, वही हूँ मैं- जो पहले मुखदुर्बल, संकोची थी?
वर्तमान एक लोकप्रिय लहर है। ‘व्यक्तिमत्व विकास' की कितने प्रकार के वर्ग, शिबिर उद्बोधन के खर्चीले औपचारिक आयोजन होते है। केंद्र है-मैं, केवल मैं। खेलो में भी चमू जीतने-हारने का कोई सुख-दु:ख नही। ‘मैं नही, तू नहीं' का अनोखा संस्कार आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' श्रद्धा का संस्कार। यह मिट्टी शाखास्थान की - उससे घाँव भरते है, मोच जाती है, वेदना मिटती है। ‘इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है हिन्दुस्थान की', ‘चंदन है इस देश की माटी' यह श्रद्धा, निष्ठा राष्ट्र संस्कृतीधर्म की संजीवनी है। यह संजीवनी बडे भाग्यसे तपस्या के कारण मिलती है। ‘प्रसादात तव एव अत्र' पूर्वपुण्य के कारण मिलती है। हिन्दु राष्ट्र का गौरवशाली पुनरूत्थान करनेवाली शक्ति मातृशक्ति मैं हूँ, यह मेरा कितना बडा सौभाग्य, सम्मान। मैं हुँ, ज्ञान-विज्ञान दायिनी सरस्वती माता, विभयदायिनी लक्ष्मी माता और दुष्टता संहारिणी दशप्रहरणधारिणी दुर्गामाता। इस गौरवपूर्ण प्रेरणादायी आत्मभूती का स्थान समितिशाखा। भगिनी निवेदिता ने कहा था, की एक निर्धारित स्थान पर, निर्धारित समय, सामुहिक रुपसे, भारतमाता की प्रार्थना
श्रद्धाभाव से करने से उस स्थान से शक्ति का मंगल अविरत स्त्रोत निर्माण होगा। इसी अर्थसे वं. मौसिजी, वं. ताईजी से लेकर आज की छोटी सेविका तक अपने अपने स्तरपर, अपनी अपनी पद्धती से शाखा एक संजीवनी रही। अनुभुति है, यही स्वरुप निरंतर बना रहे, इसी में हमारे जीवन की सफलता, सार्थकता है।
स्वामी विवेकानंद-तब का नरेंद्र अपनी व्यक्तिगत इच्छा की परिपूर्ति हेतु कालीमाता के मंदिर में गये। मंदिर की पवित्रता, तेजस्विता, उदात्तता का प्रभाव ऐसा रहा की सब कुछ भूलकर मुख से शब्द निकले, ‘माँ, मुझे शक्ति दो, बुद्धी दो, वैराग्य दो' शाखास्थान का ऐसा प्रभाव अनेकोंकी अनुभूति का विषय है।
संजीवनी अर्थात क्षीण प्राणशक्ति का पुनरूज्जीवन/प्राणशक्ति के कारण ही शरीर के सभी अंगोपांग संपूर्ण सामंजस्य से काम करते है। यह ऊर्जा हृदय से निकलनेवाली रक्तवाहिनियाँ शरीर के आखरी छोर तक पहूँचाती है- चैतन्य प्रदान करती है। व्यक्तिगत जीवन में शरीर में प्राणशक्ति का संचार रूकना याने मृत्यू। राष्ट्र जीवन में प्राणशक्ति है, संस्कृति अर्थात जीवनदृष्टी अर्थात जीवनमूल्य। उसकी अनुभूती-विचार, उच्चार व्यवहार का प्रवाह खंडीत होना राष्ट्र की चेतना लुप्त होने जैसा ही है। भारत सनातन राष्ट्र है। केवल मानव के नही, अपितु चराचर सृष्टि के कल्याण का विचार संस्कार देता है। अत: वह जीवित रखना, प्रबल रखना अनीवार्य है। प्रबल राष्ट्रकी दखल विेशमंचपर होती है। हमारी यह जीवनदृष्टि से जीवनमूल्यों का आदर अनुकरण होने हेतु इस जीवित कार्य का एहसास। इसके संस्कार विविधतासे सहज होने का स्थान है शाखा।
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का समन्वित विकास राष्ट्र सेवा के लिए ही ऐसा सहज संकल्प करने का स्थान है, समिति शाखा का मैदान। ‘विकसित व्हावे, अर्पित होऊन जावे' की अनुभूति का स्थान है, शाखा का मैदान। शाखा में आते ही मन की नाराजी, उद्विग्नता, निराशा, अपनी सखियोंको देखकरही भाग जाती है। खेल, व्यायाम, योगासन, गणसमता के साथ साथ जीवन में अनुशासन, समयपालन, आज्ञापालन, नेतृत्व गुणोंका विकसन, जीवन का अंग स्वभाव बन जाता है। राष्ट्र धर्म के प्रेरक गीत, कहानियाँ, विषय प्रतिपादन, नित्य-नैमित्तिक कार्यक्रमों को प्रीावी बनाने हेतु नियोजन, व्यवस्थापनकुशलता, आत्मविेशास, समरसता और बहुत कुछ ग्रहण कर लेते है। मन में आश्चर्य होता है, वही हूँ मैं- जो पहले मुखदुर्बल, संकोची थी?
वर्तमान एक लोकप्रिय लहर है। ‘व्यक्तिमत्व विकास' की कितने प्रकार के वर्ग, शिबिर उद्बोधन के खर्चीले औपचारिक आयोजन होते है। केंद्र है-मैं, केवल मैं। खेलो में भी चमू जीतने-हारने का कोई सुख-दु:ख नही। ‘मैं नही, तू नहीं' का अनोखा संस्कार आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' श्रद्धा का संस्कार। यह मिट्टी शाखास्थान की - उससे घाँव भरते है, मोच जाती है, वेदना मिटती है। ‘इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है हिन्दुस्थान की', ‘चंदन है इस देश की माटी' यह श्रद्धा, निष्ठा राष्ट्र संस्कृतीधर्म की संजीवनी है। यह संजीवनी बडे भाग्यसे तपस्या के कारण मिलती है। ‘प्रसादात तव एव अत्र' पूर्वपुण्य के कारण मिलती है। हिन्दु राष्ट्र का गौरवशाली पुनरूत्थान करनेवाली शक्ति मातृशक्ति मैं हूँ, यह मेरा कितना बडा सौभाग्य, सम्मान। मैं हुँ, ज्ञान-विज्ञान दायिनी सरस्वती माता, विभयदायिनी लक्ष्मी माता और दुष्टता संहारिणी दशप्रहरणधारिणी दुर्गामाता। इस गौरवपूर्ण प्रेरणादायी आत्मभूती का स्थान समितिशाखा। भगिनी निवेदिता ने कहा था, की एक निर्धारित स्थान पर, निर्धारित समय, सामुहिक रुपसे, भारतमाता की प्रार्थना
श्रद्धाभाव से करने से उस स्थान से शक्ति का मंगल अविरत स्त्रोत निर्माण होगा। इसी अर्थसे वं. मौसिजी, वं. ताईजी से लेकर आज की छोटी सेविका तक अपने अपने स्तरपर, अपनी अपनी पद्धती से शाखा एक संजीवनी रही। अनुभुति है, यही स्वरुप निरंतर बना रहे, इसी में हमारे जीवन की सफलता, सार्थकता है।
साभार -
सोमवार, 2 जून 2014
संस्थापिका एवं आद्य प्रमुख संचालिका वं.मौसीजी |
वह समर्थ महिला कौन थी, जिसने केवल भारत में ही नही अपितु पूरे विश्वभर के विभिन्न देशों में रहनेवाली सैकडों-हजारो महिलाओं में हिन्दुत्व की भावना की ज्योति जगाकर उन्हें संगठन का महान मंत्र पढाया है। उस अलौकिक व्यक्तित्व का जीवन कैसा रहा होगा, जिसने मातृशक्ति को राष्ट्रकार्य के लिए प्रेरित किया और साकार हुआ एक विश्वव्यापी नारी संगठन जिसे आज विश्वभर में सम्मान की नजर से देखा जाता है। व्यक्तिगत जीवन राष्ट्र सेविका समिती की आद्य संस्थापिका श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर उपाख्या वं. मौसीजी के जीवन के बारे में जानने के लिए सभी निश्चित ही उत्सुक होंगे। माँ जैसी ममताका वर्षाव करनेवाली वं. मौसीजी का जन्म आषाढ शुद्ध दशमी के अवसरपर ५ जुलै १९०५ को नागपूर के दाते परिवार में हुआ। तरोताजा प्रफुल्लित कुसुम जैसी बालिका देखते ही डॉक्टर ने उनका नामकरण ‘कमल' रख दिया। (जो आगे जाकर यथार्थ सिद्ध हुआ।) दाते परिवार लौकिकार्थ से विशेष संपन्न नही था, परंतु वैचारिक रूपसे पूर्णतः, संपन्न था। छोटी कमल ने अपनी ताईजी से सुश्रुषा का गुण, पिताजी से तन-मन-धन से सामाजिक कार्य का तथा माताजी से निर्भयता, राष्ट्रप्रेम के गुण विरासत में लिए, आत्मसात किये। लो. तिलकजी की प्रतिमा घर में रखकर, पास-पडोसकी महिलाओं को एकत्रित करके उनकी माताजी ‘केसरी' नामक समाचार पत्रका वाचन करती थी। जिन दिनो सरकारी नौकरों को केसरी घरमें रखने की अनुमती नही थी, उन दिनों में कमल की माताजी अपने नाम पर केसरी खरीदती थी। अपनी चाची ताईजी के साथ वह गोरक्षा हेतु भिक्षा के लिए तथा कीर्तनों में जाती थी और जानेअंजाने संस्कार ग्रहण कर रही थी। जिसका प्रभाव उनकी बाल्यावस्थासे ही दिखाई देने लगा। उन दिनों में स्वतंत्र बालिका विद्यालय न होने के कारण उन्हें मिशनरी स्कूल में प्रवेश लेना पडा। वहाँ की शिक्षा और घर में मिलनेवाली शिक्षामें महान अंतर का प्रतीत होने से उनके मनमें निरंतर संघर्ष चलता रहता था और यही संघर्ष एक दिन वास्तव रूप में उभर आया विद्यालय में प्रार्थना के समय आँखे बंद रखने का नियम था। एक दिन कमल ने बीच में ही आँखे खोली, तो उसे डांट पडी। तो निर्भय कमल ने तुरंत उस अध्यापिका से प्रश्न किया ‘अगर आपकी आँखे बंद थी तो आपको कैसे पता चला की मैने आँखे खोली थी?' जिसका उत्तर अध्यापिका के पास नही था। कमल ने उस विद्यालय में जाना छोड दिया। अब उनकी आगे की शिक्षा हिन्दु प्रेमी व्यक्तियों द्वारा स्थापित ‘हिन्दु मुलींची शाळा' इस विद्यालय में हुई। उन दिनों की प्रथा के अनुसार कमलकी शिक्षा चौथी कक्षा तक पहुँचते ही उसके विवाह के प्रयास शुरू हो गये। कमल बचपन से ही अपने विचारों के बारे में सचेत थी, उसमें आत्मविश्वास ओतप्रोत भरा था। वाचन, श्रवण, मनन से वह परिपक्व हो चुकी थी। अन्याय कारक घटनाओं से उसे बचपन से ही चीढ थी। दहेज प्रथा की शिकार बनी बंगाल की स्नेहलता के पत्रने उनके अंदर के स्फुल्लिंग को चेतावनी सी मिली और उन्होंने सभी को बिना दहेज दिये और लिए विवाह के लिए आग्रहपूर्वक प्रेरित किया और स्वयं भी इसी विचारधारा का अनुकरण किया। विवाह के पश्चात् लगभग १४ वर्ष की आयुमें ही वह दो बच्चों की माँ, बन गयी। विवाह के बाद वह ‘कमल' से ‘लक्ष्मी' बनी। उनके पती पुरुषोत्तम राव केलकर वर्धा के प्रख्यात विधिज्ञ (वकील) थे। उनकी रहन-सहन और विशिष्ट स्वभाव के कारण लोग उन्हें सरदार कहते थे। कमल को वैवाहिक जीवन का सुख १०-१२ साल ही मिला, राजयक्ष्मा के कारण अल्पायुमें ही पुरुषोत्तम राव परलोक सिधारे। अब लक्ष्मी के सामने ८ संतानो की - २ बेटियाँ और ६ बेटे की जिम्मेदारी थी। पतिनिधन का वज्राघात, बच्चों की देखभाल, गृहस्थी की जिम्मेदारी इन आपत्तियों से लक्ष्मी सी हो गयी। विवाहोत्तर जीवन : अपने पती के जीवनकाल में भी लक्ष्मी अपनी गृहस्थी की सभी जिम्मेदारियों को निभाते हुए कांग्रेस की प्रभात फेरी, पिकेटींग आदि कार्यक्रमों में सक्रिय थी। पती निधन के पश्चात् भी उनके कार्यक्रम चलते ही रहे, जिस समय विधवा होते ही महिला को बाहर के दरवाजे बंद किये जाते थे। ऐसे समय लक्ष्मी का यह व्यवहार प्रवाह को विरूद्ध दिशा में मोडने वाला था। वह वर्धा के गांधी आश्रम में प्रार्थना के लिए उपस्थित रहती थी। प्रार्थना के समय गांधीजी द्वारा इस कथन ने उन्हें अंतर्मुख बनाया कि सीता के जीवन से ही राम की निर्मिती होती है, अतः महिलाओंने अपने सामने सदैव सीताजी का आदर्श रखना चाहिए। अब लक्ष्मी ने सीता में स्त्री की वास्तविक भूमिका को खोजने के लिए रामायण का अध्ययन शुरु किया। महिलाओं की स्थिती, उनके ऊपर लादे गये बंधन, अपहरण, अत्याचार तो वह स्वयं देखती थी, समाचार पढती थी। धीरे-धीरे जीवन पद्धती में परिवर्तन हो रहा था। स्त्री की ओर देखने का दृष्टीकोण बदलने लगा था, उसे पढने को प्रवृत्त किया जाने लगा। केशवपन प्रथा का भी जोरदार विरोध हो रहा था। स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूपमें माना जाने लगा। स्त्री को निर्भयता से डटकर खडा होना आवश्यक है इसकी आवश्यकता वह स्वयं ही अनुभव कर रही थी। बंगाल में कुसुमबाला को घसीटकर ले जाकर उसका अपहरण करते समय गुंडोंने उस के पति को सुनाया कि, कानून तुम लोगों के लिए है। हमारा कानून हमारी बाहुओं में है। ऐसी घटनाओं से महिलाओं की असुरक्षितता प्रकट होती थी और परिणाम स्वरुप लक्ष्मीजी के मन में दिनरात विचार मंथन चलता रहता था कि अब महिलाओं को स्वसंरक्षणक्षम कैसे बनाये। कौन सा मार्ग ढूँढे? लगभग इसी समय अपने पुत्र मनोहर और दिनकर के माध्यम से उनका परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ और इसी प्रकार का संगठन महिलाओं के लिए भी बनाने की आवश्यकता की बात उनके मन ने ठान ली। उनके मन में डॉ. हेडगेवारजी से भेंट करने की इच्छा जाग उठी और संयोगवश यह अवसर शीघ्र ही उन्हें प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने बेटों से डॉक्टर हेडगेवारजी से अपने स्वयंसेवक बेटों की अभिभावक के नाते मिलने की इच्छा प्रदर्शित की। उन दिनों पिता या घर के पुरुष को ही अभिभावक समझा जाता था। इसलिए बेटों ने अधिकारियों से पूछकर अनुमति ले ली और अनुमति मिलने पर कार्यक्रम के समय वे उपस्थित रही। वार्तालाप के लिए अलग से समय माँगने पर डॉक्टर साहबने स्वीकृती दे दी। उस समय वं. मौसीजीने महिलाओ के लिए भी राष्ट्रीय दृष्टी से संघटित होने की आवश्यकता की बात बतायी। तथा महिला व्यक्तिगत ही नहीं अपितु सामाजिक दृष्टी से सुरक्षित होने की बातको भी उठाया। वं. मौसीजी का दृढनिश्चय तथा प्रगल्भता को देखकर डॉक्टरजी ने उन्हें इस कार्य से पूरा सहकार्य देने का आश्वासन दिया। अब मौसीजी के विचारों को वास्तविक रूप प्राप्त हुआ और राष्ट्र सेविका समिति का जन्म होकर वर्धा में उसका कार्य प्रारंभ हुआ। महिलाएँ प्रतिदिन निश्चित समय पर एकत्रित होने लगीं, मातृभूमी के प्रति अपने दायित्व के रूपमें सोचने लगी। प्रार्थना तैयार हुई, जिससे मन में हिन्दुत्व जगे, शक्ति, बुद्धि प्राप्त हो, स्त्री सुशीला, सुधीरा समर्थ बनें। इस तरह महिलाओं का प्रतिदिन एकत्रित होना, सैनिकी पद्धतिका प्रशिक्षण लेना यह बात उस समय के समाज द्वारा विरोध भी हुआ, लेकिन मौसीजी अपने विचार से परे नहीं हटी। गृहस्थी के साथ-साथ यह कार्य करना रस्सीखेच जैसा ही था। स्वयं सिद्धता : स्वयं को निरंतर संगठन के ढाँचे में ढालने का उनका प्रयास निरंतर जारी था। प्रारंभ में उन्हे भाषण देने का अभ्यास नहीं था। वक्तृत्वशैली भी नहीं थी। लेकिन समाज जागरण के हेतु से समाज को मार्गदर्शन करने की आंतरिक, अत्यंतिक इच्छा थी, जिससे आगे का मार्ग सुगम हुआ। विषय का अध्ययन करना, उसमें से महत्त्वपूर्ण मुद्दे निकालना और उन्हें प्रभावी भाषा में जनता के सामने प्रस्तुत करना - यह बातें अभ्यासपूर्वक आत्मसात की और आत्मविश्वासपूर्वक अपने विचार व्यक्त करनेवाली उत्कृष्ट वक्ता बन गई। मधुर आवाज, स्पष्ट उच्चारण, भावस्पर्शी शब्दों का चयन इन सबका मनोहारी संगम होने के कारण उनका वक्तृत्व श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था। उन्हें समिति की शाखा-शाखाओं में जनसंपर्क हेतु जाना पडता था, इसलिए मौसीजीने साइकिल चलाना सीख लिया, तैरना भी उन्हें आता था। उनकी बेटी वत्सला की पढने में रुचि देखकर घरपर शिक्षक बुलाकर उसकी पढाईका प्रबंध किया। वर्धा में विद्यालय शुरु करने के लिए अपनी देवरानी को प्रोत्साहित किया और वहाँ पढाने के लिए आयी कालिंदीताई, वेणुताई जैसी शिक्षिकाओं का रहने का प्रबंध अपने स्वयं के घर में किया, जिन शिक्षिकाओं ने उन्हें समिति का कार्य में भी सहयोग दिया। गहरा चिंतन : वं. मौसीजीने संगठन की चौखट स्वयं तैयार की थी। जिसमें उन्होंने अपने स्वयं के विचारों से ध्येय धोरण के रंग भरे थे। स्वसंरक्ष हेतु समिती में दी जानेवाली शारीरिक शिक्षा कहीं उसकी शारीरिक रचना या स्वास्थ्य में बाध तो नही बनेगी इस बातपर भी वह सोचती थी। १९५३ में उन्होंने स्त्रीजीवन विकास परिषद का आयोजन करके डॉक्टरोंको एकत्रित किया और महिलाओं के सौष्ठव के बारे में परिचर्चा आयोजित की। योगासन का महत्व जानकर उन्होंने स्वयं योगासनों की शिक्षा ली। योगमूर्ति जनार्दन स्वामीजी को अनेक स्थानोंपर आमंत्रित करके सेविकाओं को योगासनों का शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण दिया। समिती के शिक्षा वर्गो में भी योगासन का समावेश किया गया। सेविका कैसी हो उनके सामने इसकी स्पष्ट रूपरेखा थी कि वह संतुलित व्यक्तित्ववाली हो तभी वह समाज के लिए पोषक और प्रेरक सिद्ध होगी। अतः उन्होंने देवी अष्टभुजा की प्रतिमाआराध्यदेवता के रूप में सेविकाओं के सामने रखी। देवी के आठ हाथों में धारण किये आयुधों का वह वर्णन करके बताती थी जिसमें से उनकी अलौकिक प्रतिभा तथा प्रगल्भ और गहरे चिंतन की ज्योति झलकती थी। रामभक्ति : मौसीजी राम की निस्सीम भक्त थी। उन्होंने रामायण पर उपलब्ध अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया और उसमें का राष्ट्रीय दृष्टीकोण अपने १३ दिनों के रामायण के प्रवचन के माध्यम से जनता के सामने लाकर स्पष्ट किया। उन्होंने लगभग १०८ प्रवचन किये और लोगों को समझाया राम को केवल भगवान समझकर उसकी पूजा मत करो, वह एक राष्ट्रपुरुष है, उसका अनुकरण करो। इन प्रवचनों से प्राप्त, धनराशि का विनियोग उन्होंने समिती के कार्यालय निर्माण करने के लिए किया। आज उनके वक्तृत्व की अमोल निधी ‘पथदर्शिर्नी श्रीराम कथा' के रूप में हमारे पास है। वं. मौसीजी की स्मरण शक्ति अद्भुत तेज थी। एक बार परिचय होने के बाद वह उस व्यक्ति को नाम सहित हमेशा याद रखती थी। जीवन के अंतिम चरण में जब वह चिकीत्सालय में भर्ती थी, तो सेविकाओं से भजन गीत गाने को कहती थी और बीच में अगर गानेवाली भूल गयी तो तुरंत आगे के शब्द बताती थी। व्यवस्थित सरल जीवन, कलात्मक, सांस्कृतिक दृष्टि : वं. मौसीजी का रहन सहन का ढंग अत्यंत सीधासाधारण था। वह हमेशा स्वच्छ और सफेद सूती साडी ही पहनती थी। अपने कपडे स्वयं धोने का उनका परिपाठ था। उनका हर काम कलात्मक रहता था। समय मिलते ही सिलाई कडाई चालू रहती थी। भगवान के सामने रंगोली सजाना, पूजा करना उसमें भी एक विशेषता थी। हर उत्सव में चाहे वह शाखा में हो या घर में, सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रदर्शन का उनका आग्रह रहता था। हर परिवार में एक राष्ट्रीय कोना हो, जहाँ परिवार के सदस्य मिलकर समाज के, राष्ट्र के बारे में दिन में एक बार सोचे इसलिए वह हमेशा प्रयत्नशील थी। वर्ष प्रतिपदा (गुढी पाडवा) के दिन गुढी के बजाय अपने घरोंपर हमारी संस्कृती का प्रतीक भगवा ध्वज फहराया जाय यह उन्हीकी कल्पना थी। पूजा के लिए छोटे-छोटे ध्वल उन्होने ही बनवाएँ। वंदे मातरम् माँ की प्रार्थना है अतः वह गाते समय हाथ जोडने की प्रथा उन्होंने शुरु की। पाककला में वह निपुण थी। परोसने में भी उनकी कला तथा मातृभाव का अनुभव होता था। कुशल संघटक : ‘दो महलायें कभी एकत्र आकर कार्य करना संभव नहीं है' यह जनापवाद उन्होंने झूठा साबित कर दिया है। आव्हान के रूप में महिलाओं का सशक्त संगठन स्थापित करके यह सिद् कर दिया कि समिती की सेंकडों सेविकाएँ मिलजुलकर आपस में आत्मीयता से ध्येय निष्ठा से राष्ट्र के लिए विधायक काम सशक्तता से कर सकती है। पूना में श्रीमती सरस्वतीबाई आपटे द्वारा महिलाओं के संगठन के कार्यकी शुरुआत की जानकारी मिलनेपर मौसीजी स्वयं पूना जाकर सरस्वतीबाईजी से मिली। मौसीजी के कुशल, आत्मीय और सौहाद्र्र व्यवहार से, प्रसन्न व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सरस्वतीबाईजी ने अपने संगठन को राष्ट्र सेविका समिती में संम्मिलित कर दिया। पत्र व्यवहार से मौसीजी सभी के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती थी। अखंड प्रवास का सिलसिला और सेविकाओं से मिलना निरंतर शुरु ही रहता था। प्रातः स्मरण, देवी अष्टभुजा स्तोत्र, पूजा, नमस्कार इत्यादि रचनायें उन्होंने की महिलाओं की संगीत में रूचि और भक्तिभाव को देखते हुए उन्होंने भजन मण्डलके लिए प्रोत्साहित किया। अनेक चित्रकारों को एकत्रित करके उनके सामने प्रदर्शनी के विषय रखे और चित्र निकालने का आव्हान किया। कला के द्वारा राष्ट्रीय विचारधारा पुष्ट करने मे सहयोग वाली बात की नईदृष्टी प्राप्त होनेवाली बात एक चित्रकार ने ही कही। समितीद्वारा उन्होंने अनेक प्रदर्शनियों का आयोजन करवाया। साहसी वृत्ती : अगस्त १९४७ कर समय था। प्रिय मातृभूमि का विभाजन होनेवाला था। मौसीजी को सिंध प्रांत की सेविका जेठी देवानी का पत्र आया कि सेविकाएँ सिंध प्रांत छोडने से पहले मौसीजी के दर्शन और मार्गदर्शन चाहती है। इससे हमारा दुःख हल्का हो जायेगा। हम यह भी चाहते है कि आप हमें श्रध्दापूर्वक कर्तव्यपालन करने की प्रतिज्ञा दे। देश में भयावह वातावरण होते हुए भी मौसीजी ने सिंध जानेका साहसी निर्णय लिया और १३ अगस्त १९४७ को साथी कार्यकर्ता वेणुताई को साथ लेकर हवाई जहाज से बम्बई से कराची गयी। हवाई जहाज मे दूसरी कोई महिला नही थी। श्री जयप्रकाश नारायणजी और पूना के श्री. देव थे वे अहमदाबाद उतर गये। अब हवाई जहाज में थी ये दो महिलाएँ और बाकर सारे मुस्लिम, जो घोषणाएँ दे रहे थे - लडके लिया पाकिस्तान, हँस के लेंगे हिन्दुस्थान। कराची तक यही दौर चलता रहा। कराची में दामाद श्री चोळकर ने आकर गन्तव्य स्थान पर पहुँचाया। दूसरे दिन १४ अगस्त को कराची में एक उत्सव संपन्न हुआ। एक घर के छतपर १२०० सेविकाएँ एकत्रित हुई। गंभीर वातावरण में वं. मौसीजी ने प्रतिज्ञा का उच्चारण किया, सेविकाओं ने दृढता पर्वक उसका अनुकरण किया। मन की संकल्पशक्तिको आवाहन करनेवाली प्रतिज्ञा ने दुःखी सेविकाओं को समाधान मिला। अन्त में मौसीजी ने कहा, ‘धैर्यशाली बनो, अपने शील का रक्षण करो, संगठन पर विश्वास रखो और अपनी मातृभूमिकी सेवा का व्रत जारी रखो यह अपनी कसौटी का क्षण है।' वं. मौसीजी से पूछा गया - हमारी इज्जत खतरे में है। हम क्या करें? कहाँ जाएँ? वं. मौसीजीने आश्वासन दिया - ‘आपके भारत आनेपर आपकी सभी समस्याओं का समाधान किया जायेगा।' अनेक परिवार भारत आये। उनके रहने का प्रबंध मुंबई के परिवारों में पूरी गोपनीयता रखते हुए किया गया। इस तरह असंख्य युवतियों और महिलाओं का आश्रय और सुरक्षितता देकर वं. मौसीजी ने अपने साहसी नेतृत्व का परिचय दिलाया। व्यक्ति निष्ठा नहीं : व. मौसीजी के जीवन का एक प्रसंग। एक शाखा में मौसीजी के आगमन की पूर्वसूचना मिलते ही सेविकाओं ने उनके स्वागत की जोरदार तैयारियाँ की। उनके लिए गौरवपर गीत रचकर गाया गया। बौद्धिक के समय वं. मौसीजीने सेविकाओं से कई प्रश्न कि और कहा कि इस गीत में एक परिवर्तन चाहिए। इसमें आपने मौसीजी कार्य के प्रति समर्पण की भावना की बात जतायी है, लेकिन यह किसी एक व्यक्ति का कार्य नही है अपितु आपको राष्ट्र सेविका समिती के राष्ट्र कार्य के प्रति समर्पण की भावना रखनी है। ऐसे कई गुणों के कारण ही वह वंदनीय बन गई। ऐसे व्यक्तित्व को ही वंदनीय कहा जाता है। वंदनीय इसलिए नहीं कि उनके पास लम्बी उपाधियाँ थी या वह धनवान थी। न तो उनके पास कोई सिद्धी थी, न वह कोई तंत्र-मंत्र जानती थी। यह तो एक आम महिलाओं जैसी एक सरल, सीधा साधा गृहस्थी जीवन व्यतीत करनेवाली स्त्री। बाल्यकालसे ही प्राप्त राष्ट्रीय संस्कार और बुद्धिमत्ता और तेजस्विता के साथ-साथ राष्ट्रकार्य के प्रति आत्यंतिक आस्था के कारण ही उन्होंने यह अद्वितीय कार्य कर दिखाया। राष्ट्र सेविका समिती की स्थापना, अखिल भारतवर्ष में उसका प्रचार और प्रसार तथा निर्माण की हुई कार्य पद्धती जिसपर आज भी समिती का कार्य सरलता से चल रहा है। इन्हीं गुणों से उन्हें वंदनीय बताया। यह शांत, पवित्र तेजस्वी जीवन २७ नवम्बर १९७८, कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्ण द्वादशी, युगाब्द ५०८० को पंचत्व में विलीन हो गया। देह नष्ट हुआ, कीर्ति, प्रेरणा अमर है, निरंतर चलती रही है और आगे भी रहेगी। किं साधितं त्वया मृत्यो। अपहृत्येद् ज्ञान निधिम्।।नश्वरशरीरं भस्मीकृतम्। अनश्वरथशासि का ते गतिः।।दीपज्योति प्रणाम दीपज्योति प्रणाम तुझे नित दीपज्योति प्रणाम। शुभंकरी तू जग कल्याणी, मातृशक्ति प्रेरक तू मानी कोटि-कोटि हृदयों में अंकित मंगलमय तव नाम। रामायण वाल्मिकी कृर्ती तू, लवकुश जननी स्वयं स्फूर्ती तू दिव्य चरित सीता से ज्योतित प्रकट हुये श्रीराम। ध्येयमार्ग का दीपस्तंभ तू, कोटी करों का स्नेहबंध तू कण क क्षण-क्षण राष्ट्र समर्पित किये कर्म निष्काम। ज्योतिर्मय है मार्ग हमारा, चंचल मन क्यों भ्रम में हारा। तव जीवन की स्मृति सुमनों में प्रेरक शक्ति महान।। |
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