सोमवार, 14 जुलाई 2014

अभियान
समाज जागरण, समाज प्रबोधन और समाज संघटन ऐसे कार्योंमे समितिने अपनी अग्रेसरता हमेशा प्रगट की है| विभिन्न अभियान चलाये है| नारी शक्ति केवल रथपर विराज होने पर संतुष्ट नहीं है अपितु सारथ्य करने मे अपनी भूमिका निर्वाहन करे इस संकल्प से अभियान चलाये जाते है|
१९४२ के चले जाव आंदोलन में सहभाग। समिति का कार्य इतना स्थिर नही हुआ था कि इस आंदोलन में समिति समितिश: भाग लेगी। अत: सेविकाएँ व्यक्तिश: सहयोग देंगी यहतय हुआ और वैसेही हुआ।
१९४८-महात्माजी के वध के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदुमहासभा पर पाबंदी लगायी गयी। लेकिन चार छहघंयों में छोड दिया गया। संघ पर लगाया गया प्रतिबंध उठाया जाय इसके लिये सभी ओर प्रयास चल रहे थे। यश प्राप्त न हो सका। अत: सत्याग्रह का मार्ग स्वीकारना पडा। समिती कई सेविकाओंने सत्याग्रह में सहभाग लिया। मुंबर्स में तथा नागपुर में विराट मोर्चे निकाले गये और मुख्यमंत्री जी को निवेदन दिया गया। मुंबई के सभी महिला मंडलो को एकत्रित कर एक कार्यक्रम हुआ। अध्यथ थे मुख्यमंत्री मोरारजी भाई देसाई । कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब वे बाहर निकले तब समिती सेविकाओंने उनके हाथ प्रतिबंध हटाया जाय* ऐसे पत्रक दिये। सभी को पकडा गया। अलग अलग पुलिस थानों में रखा गया।चार घंटोंके बाद छोड दिया गया। ऐसे कार्यक्रम कई जगह हुएँ।
१९५६ से १९६१ -गोवा मुक्ति आंदोलन-गोवा विमोचन समिती द्वारा होनेवाले सत्याग्रहों में सेविकाओं का सहभाग था। विविध स्थानों से पुणे में एकत्रित होनेवाले सत्याग्रही गुटों की भोजन की व्यवस्था वं ताई आपटे जी के नियोजन से होती रही। गोलीबारी में मृत लोगों के शव आते थे। दुर्गंध आती थी। फिर भी उनकी व्यवस्था में सेविकाओंने सहयोग दिया।
१९६२ -चीन आक्रमण-प्रथमोपचार में सहयोग -निशानेबाजी केंद्र तथा मंदिरों में  प्रार्थनाकेंद्र चलायें। मा. qसधुताई फाटक ने केन्द्रीय सुरक्षामंत्री श्री यशवंतराव चव्हाण की भेट लेकर नागरी सुरक्षा व्यवस्था के लिये १०० सेविकाएँ किसी भी समय आपकों मिलेंगी, यह आश्वासन दिया था। आक्रमण संबंधी जानकारी दी गयी तथा सामान्य लोग कैसे मदद कर सकते है यह प्रबोधन भी किया गया।
१९६५ -पाकिस्तान का आक्रमण हुआ। जवानों का मनोधैर्य बढाने राखियाँ भेजी गयी। उनको आवश्यक चीजे देना, स्टेशनपर भोजन पहुंचाना आदि कार्य किये। मा.qसधुताई जीने जैसलमेर, जयपुर,बारमोर आदि बेस कँपों को भेट दी। एक स् िप्रत्यक्ष युद्ध केंद्र पर अनेक बाधाओं को पार कर पहुंचती है और जवानों को धीरज बंधाती है।  यह दृश्य ही प्रेरक था। युद्धसमाप्ति के बाद जब प्रधानमंत्री शास्त्रीजी ताश्कंद जानेवाले थे तब मा. qसधुताई और दिल्ली की सेविकाएँ उनसे मिली और *युद्ध की जाँच जिनको सहनी पडी है ऐसी स्त्रियों को न्याय मिले, उनका सम्मान रहे ऐसी ही वार्ता हो। यह निवेदन २५,००० हस्ताक्षर संग्रहित कर उनको दिया गया। जवाहरलाल को भेज दिया।
१९७१ कें युद्धकाल में भी सहायता की। वं. मौसीजी ने पंतप्रधान इंदिराजी को पत्र भेजकर उनके धैर्यपूर्ण निर्णय के लिये अभिनंदन किया था।
१९७५ -आपात्काल । समन्वय समिति के द्वारा किये गये सत्याग्रह में सेंकडो सेविकाओंका सहयोग था। सत्याग्रहियोंकी आरती उतारना,(पकडे जाने का भय होते हुए भी) मिसबंदियों के परिवारों को मिलना, आवश्यक मदद करना। पत्रक बाँटनां संदेश पहुंचाना। भुमिगतों को घर में आश्रय देना, आदि काम सेविकाओं ने किये।
१९७६ की विजयादशमी को संपूर्ण देश में सायं ६ बजे सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके, शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोऽस्तुते। यह श्लोक बोला गया। कई जगह आपत्ति निवारणार्थश्री सूक्त पारायण भी  किये गये। सामूहिक प्रार्थना से शक्ति उत्पन्न होती है। यह अपना विश्वास है।
१९९९- कारगिल युद्ध -जवानों को ऊ नी वस्त्र भेजे गये। पुणे की qकग्ज मेरी इन्स्ट््िट्यूट में दाखिल विकलांग जवानों को कुछ दवाइयां और जांच हेतु आवश्यक मशीन दिये गये। उनको हर साल दीपावली में मिठाई और संक्रमण के समय तिलगुड भेजा जाता है। मनोरंजन के लिये कुछ कार्यक्रम भी होते है। जगह जगह के शहीद जवानों घर जाकर सांत्वना देने का कार्य पूरे भारत वर्ष में समिति सेविका ओं ने किया। पूर्व सैनिक परिषद जम्मू रा.स्व. संघ और राष्ट्र सेविका समिति ने दिल्ली,जम्मू आदि स्थानों पर कार्यक्रम लेकर सांत्वना के साथ कुछ आवश्यक वस्तुएं भी दी। केंद्रीय कार्यकारिणी की दो सदस्या उसके लिये जम्मू गयी थी।
गोवधबंदी आंदोलन १९५२-५३ लक्षावधी सेविकाओं तथा भारत के नागरिकों की स्वाक्षरी ले कर पत्र पंडीत जवाहरलाल जी को भेजा गया।
जम्मू काश्मीर बचाओ अभियान १९९० -राष्ट्र सेविका समिति की ओर से लिया गया। उसी की एक कडी के रूप में समिति ने वहाँ के राज्यपाल श्री. जगमोहनजी को नागपुर में आमंत्रित किया था। स्वागत में शिकार के आकार का पुष्पगुच्छ और संत्रे तथा सेव से बनी माला भेट की गयी। इस अभियान के अंतर्गत स्थान स्थान पर  मोर्चे निकाले गये। लोगों को जम्मू काश्मीर और उसकी समस्याओं के बारे ंमें जानकारी दी गयी।
स्वदेशी आंदोलन १९९५ - स्वदेशी यह विषय लेकर वं. उषाताई जी का आंध्र और असम में प्रवास हुआ।
१- १५ हिसेंबर देशभर स्वदेशी पखवाडा मानाया गया। कर्नाटक में ५,००० घरों से संपर्क हुआ। भाग्यनगर, आंध्र में मा. सीतालक्ष्मी जी का यहीं विषय लेकर प्रवास हुआ। नांदेड, यवतमाळ, नागपुर(महाराष्ट्र) में स्वदेशी भोजन के संबंध में कार्यक्रम हुए। भारतीय वस्त्र, स्वदेशी खेल के कार्यक्रम दिखाये गये। उत्तर प्रदेश में ८९००० घों से संपर्क हुआ। असम में ३०,००० घरों से संपर्क और ८२ मातृ संम्मेलन हुए।
शताब्दियां
रानी लक्ष्मीबाई
१९२८ जून- रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान की शत संवत्सरी के उपलक्ष्य में नासिक में उनका स्मारक निर्माण किया गया। नागपुर और वर्धा में भी एक चौराहें में रानी का पुतला स्थापित हुआ। आज तक पद्धति रही है कि रानी के स्मरण दिन पर सेविकाओं के साथ नगरपालिका की ओर से भी वहां माला चढायी जाती है।
१९८३ रानी लक्ष्मीबाई के १२५ वे पुण्यतिथी के उपलक्ष्य में संपूर्ण भारत में कार्यक्रम हुए। उनकी कर्मभुमि झांसी में उनकी प्रतिमा की भव्य ाोभायात्रा निकली। उनकी जीवन का चित्रदर्शन,संगीतिका तथा कवयित्री संमेलन और परिसंवाद का आयोजन किया गया था।
स्वामी विवेकानंद
१९६३ -जन्मशताब्दी मनायी गयी।
१९९२ में उनकी १२५ वी जयंती थी। यह वर्ष युवती स्वयंप्रेरणा वर्ष के रूप में मनाया गया। विविध सामाजिक कार्यो में युवतियों का सहभाग रहा। गनिनी निवेदिता ने स्वदेशी का समर्थन, प्रचार किया था। अत: सभी जगह निवेदिता के कार्य का कथन, स्वदेशी वस्तुओं का प्रदर्शन, स्वदेशी खेलों की प्रतियोगिताएँ, स्वदेशी संगीत, स्वदेशी खाद्यपदार्थ सिलिगुडी मालदा यहां भी बडा कार्यक्रम हुआ। वहां की निवेदिता जी की समाधि की दुरूस्ती हो जायें और एक रास्ते को उसका नाम दिया जाय ऐसा निवेदन पश्चिम बंगाल के जिल्हाधिकारी को दिया गया। उस वर्षकासेविका वार्षिकांक भी निवेदिता विशेषांक था।
जिजामाता
१९७४ जिजामाता की ३०० वी पुण्यतिथि उनका जन्मस्थान qसदखेडराजा तथा समाधिस्थान पाचाड में विशेष रूप से मनायी गयी। के कार्यक्रम के समय रेल्वे का हडताल था। फिर भी ४०० सेविकाएँ उपस्थिती थी। मुंबई शाखा ने स्वर जिजाई इस संगितीका के ५० कार्यक्रम किये। नागपुर में *स्वप्न हे साकारले* यह भव्य गीत, निवेदन और दृश्य प्रसंगो का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। सालभर देशभर मेंं अन्य संस्था ओं को संमिलित कर विविध कार्यक्रम हुए।
१९९९ -गुजरात में कर्णावती शहर में एक मार्ग औैर एक चौराहे को जिजामाता नाम दिया गया।
२००१. जिजामाताकी ४०१ वा जन्मदिन। विशेष डाकतिकट जारी किया गया और उस लोकार्पण कार्यक्रम तत्कालीनप्रधानमंत्री में एक दिन का कार्यक्रम हुआ। उनके समाधिस्थान के बाजू में फलक लगाया गया। विशेष घोषरचना के वादन से मानवंदना दी गयी। शोभायात्रा निकाली गयी। पापडोस के गांवों से सार्वजनिक कार्यक्रम के लिये महिला-पुरूष आयेथे। मुंबई शाखा ने मुंबर्स-ठाणे रायगड के ४०० गावों में जाकर जिजामाता का कार्य बताया। समापन समारोह रायगड में हुआ। ४०० सेविकाएँ उपस्थित थी।
प. पू. डॉ. हेडगेवार
१९८८ जन्मशताब्दी -समिति की ओर से भी मनायी गयी। १९३८ के समिति शिक्षा वर्ग में दिया गया डॉक्टरजी का बौद्धिक छपवाकर देशभर वितरित किया।
देवी अहल्याबाई होलकर
१९९४-२५ डिसेंबर को देवी अहल्याबाई द्विशताब्दी महोत्सव उनके जन्स्थान चौडी में मनाया गया।छोटासा गाव होने के कारण बहुतसी व्यवस्थाये बाहर से करनी पडी। एक दिन कार्यक्रम का समापन वं उषाताईजी ने किया। पडोस गावों से ३०० लोग आये थे। इस वर्ष का समापन महोत्सव उनकी कर्मभूमि महेश्वर में हुआ। चौडी में उनके मायके के qशदे कुल तथा माहेश्वर में होलकर कुल के सदस्य शामील हुए थे।
सुभाषचंद्र बोस
१९९६ -जन्मशताब्दी वर्ष २३ जनवरी १९९६ को कोलकता के गोयाबागान मैदान से पथसंचलन निकला।
१९९९ - रानी चेन्नमा की १७५ वी पुण्यतिथि थी। उनका चरित्र कथन हुआ।
आचार्य शंकरदेव, असम-५५१ वी जयंती के उपलक्ष्य में सेविका प्रकाशन ने एक पुस्तिका प्रकाशित की।
खालसा पंथ त्रिशताब्दी -शाखाओं ने खालसा पंथ और दसों गुरूओंके देशप्रेम की कथांएँ बतायी गयी। सिक्ख लोगों के कार्यक्रमोंमें सहभाग लिया।
सोमनाथ पुनर्निर्माण
२००० -स्वर्णजयंती वर्ष सोमनाथ सहित सभी ज्योतिर्लिंग स्थानों पर अभिषेक और सार्वजनिक कार्यक्रम हुए। सोमनाथ का इतिहास अखिल भारतीय स्तर पर बताया गया। समाचार पत्रों में लेख छपवाये गये। विज्ञान और शिवqलग का साधम्र्य प्रकट किया गया।
समिति की रजतजयंती(१९६०), वं मौसीजी का षष्ट्पूर्ति वं मौसीजी का षष्ट्यब्दिपूर्ति समारोह (१९६५) वं.ताईजी का अमृतोत्सव (१९८५), वं. ताईजी का अमृतोत्सव (२००२), य कार्यक्रम भी समिति कार्य विस्तार के विविध कार्यक्रमोंसे संपन्न हुए। वं मौसी जी के षष्ट्यब्दिपूर्तिसमारोह से प्राप्त निधि  देवी अहल्या मंदिर के निर्माण के लिये तो वं. उषाताई जी के अमृतमहोत्सव में प्राप्त निधि बडा हाफलाँग,असम स्थित रानी माँ गाईदेन्ल्यू कन्या छात्रावास के लिये समर्पित हुआ।  वं. मौसी जी की जन्शताब्दी के निमित्त आयोजित वं. मौसीजी की स्मृति प्रदर्शनी परिक्रमामें ही मा. प्रमिलाताई जी का अमृतमहोत्सवी वर्ष ता। उसमें जगह जगह प्राप्त राशि अन्यान्य संस्थाओं को दी गयी।
विविध कार्यक्रम
१९७१ में बेलगांव में समिति और स्थानिक महिला मंडल के सहयोग से शारदोत्सव प्रारंभ हुआ। आज भी वह परंपरा कायम है। महाराष्ट्र में अन्य शहरों में भी अब इसकी प्रथा रूढ हो गयी।
दि. २३ फरवरी १९८५ को त्रचूर में केरल प्रांत संमेलन हुआ। १००० सेविकाएँ उपस्थित थी। पथसंचलन हुआ।
१९८८ अहमदनगर जिले का राहुरी ग्राम देवी तुळजाभवानी का मायका माना जाता है। वहां पाच घंटों का शिबिर हुआ। देवी की पालकी बनानेवालोंका सत्कार किया। इसी वर्ष ठाणें में अखिल भारतीय कीर्तन वर्ग संपन्न हुआ।
१९९२ हुबली के ईदगाह मैदान पर १५ अगस्त के दिन राष्ट्रध्वज फहराने को मुस्लिमोंका विरोध था।
उनके आतंक के कारण वह परंपरा खंडित हो रही थी। अत: युवक युवतियों ने स्वातंत्र्यदिन को वहां ध्वज फहराने का प्रण किया। इस उपक्रम में समिति सेविकाओं का भी सहभाग था। विरोध के लिये एकत्रित आये मुस्लिम, दंगा रोकने के लिये नियुक्त पुलिस व्यवस्था सभी को भेदकर सेविकाओं ने छाते में छिपाया हुआ ध्वज फहराया। पुलिस को भी दक्ष आज्ञा देकर राष्ट्रगीत गााया। उसके पश्चातहु पुलिस उन्हें पकड पायी। पुलिस थानें जाने पर वहां के ध्वजवंदन के कार्यक्रम के बाद भी संपूर्ण वन्दे मातरम् का गायन किया।
१९९४ से मुंबई से सायन हॉस्पिटल के सामनेवाले, आंबेडकर चौक तक जानेवाले रास्ते को वं लक्ष्मीबाई केळकर रास्ता नाम दिया गया।
१९९६ -बंगलोर में आयोजित सौंदर्यप्रतियोगिता  रोकने हेतु मा. शांताक्का की अध्यक्षता में समिति द्वारा प्रयत्न हुए। प्रदर्शनकारियों पर हुआ लाठी हल्ला सेविकाओं ने सह लिया। आखिर उनको स्थान बदलना पडा।लेकिन स्थान बदलकर प्रतियोगिता संपन्न हुई इसका दुख है।
१९९९ समिति की ओर से भगवद्गीता वर्ष मनाया गया। कर्मण्येवाधिकारस्त, यदिच्छसि तत्करू, हतो वा प्राप्यसि स्वर्ग जैसे विषयों पर विवेचन हुआ।
२००० नयी सहस्त्राब्दि के प्रारंभ में हिंदु नूतन वर्ष शुभेच्छा पत्रक पूर देश में वितरित किये गये। कई शहरों में चौराहें में खहे होकर आनेजानेवालों को मंगल तिलक लगाकर प्रसाद बाटा गया। आज भी यह कार्यक्रम अनेक नगरों में होता है।
मंगलोर में ४६,००० संख्या में मातृसंगम हुआ। समिति और चालीस महिला संगठनों ने संयुक्त आयोजन किया था। उसीके साथ ९०० सेवकाओं का अभ्यासवर्ग भी हुआ था। तमिलनाडू में अश्लील चित्रपट दिखानेवाले केबल ऑपरेटर के घर को घेराव किया गयो। इरोड कमें मंदिर के स्थान पर अन्य धर्मियों की गृहयोजनाबन रही थी। उसको विरोध कर समिति न वह आक्रमण रोका। आंर्ध में १०१ दीप जलाकर कारगिल विजय दिन मनाया गया।
जुनागड, गुजरात में श्रमदान से तालाब खोदा जा रहा था। उसमें समिति की ५०० सेविकाएं संमिलित हुई। लेह में ओयोजित qसधुदर्शन यात्रा में सभी सेविकाओं का सहभाग था। वाराणसी में लक्ष्मीबाई का जन्मस्थान साफसुथरा किया और वह वैसा ही रहें इसलिये शासकीय अधिकारियों को निवेदन किया। वाराणसी शाखा हरसाल भव्य कार्यक्रम का आयोजन करती है।
२००१ -भारत तिब्बत संघ की ओर से आयोजित शिबिर में समिति की सेविका डोलमा ने शिक्षिका के नाते सहयोग दिया। इसी वर्ष दलाई लामा के भारत आगमन को ४० वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में समिति का प्रतिनिधित्व मा. प्रमिलाताई मेढे ने किया था।
२००३ रक्तदान श्रेष्ठदान इस विषय पर नगर में प्रदर्शनी लगायी गयी। ठाणे, डोंबिवली,(मुंबई)में बाल सेविकाओं ने रेल्वे स्थानक पर खडे होकर भीड को अनुशासन देने का प्रयास किया। सभी को बायी ओर से चलो ऐसा आवाहन किया जाता था।
राष्ट्रपुरूष श्रीराम वं मौसी जी के आराध्य थे। अत: सन २००३ में रामक्षा कंठस्थ हो सस दृष्टि से पाठशालाओं मंडलों विविध संस्थाओं में जाकर सामूहिक रामरक्षा पठन किया गया। रामायण पर आधारित विविध कार्यक्रमों का आयोजन भी हुआ। नागपुर में श्रीरामचेतना जागरण सप्ताह के अंतर्गत ४० विद्यालय, अनेक महिला मंडल और विविध संस्थाओं से संपर्क किया। 
सन २००५ यह वं. मौसीजी का जन्मशताब्दी वर्ष, उनकी जीवनी पर आधारित प्रदर्शनी के साथ मा. प्रमिलाताई जी का संपूर्ण भारत में २६६ दिनों में प्रवास हुआ। मूलत: १०० कार्यक्रमों की योजना थी। प्रत्यक्ष में १०७ स्थानपरकार्यक्रम हुएँ। इन सभी कार्यक्रमों का समापन नागपुर में दिनांक ६,७,८ नवंबर २००५ को आयोजित किया गया।
राष्ट्र सेविका समिति की द्वितिय प्रमुख संचालिका वं. ताई आपटेजी की जन्मशताब्दि वर्ष २००९-१० में मनाया गया। वं. ताईजी के अंजर्ले इस जन्मस्थानपर शताब्दिवर्ष का शुभारंभ हुआ। और ताईजी की कर्मभूमि पुणे में २४, २५, २६ दिसंबर २०१० क्षेत्र संमेलन में समापन समारंभ हुआ। महाराष्ट्र क्षेत्र द्वारा निरंतर सौ घंटोंका सूर्यनमस्कार अभियान संकल्पपूर्वक पूर्ण किया गया। अपने आप में अपूर्व ऐसे इस कार्यक्रम की विशेषता रही। लिम्का बुक में इस अभियान का रेकॉर्ड संमिलीत किया गया।
२००५ से २०१२ तक की कालावधी में अनेक सारे प्रांतों में प्रांत संमेलन हुए।
समितीद्वाारा भ. निवेदिता का स्मृती शताब्दीवर्ष २०१०-११ में संपूर्ण भारत वर्ष में मनाया गया।
तात्कालिक कार्य
इसमें समाविष्ट है कुछ प्रशिक्षण कार्यक्रम ।
पूर्वांचल में कार्यरत हमारी कार्यकर्ता बहने तथा अन्य स्वयंसेवी संस्थांओं के के काय्रकर्ताओं के ध्यान में आया है, कि छोटे छोटे गावों में प्राथमिक वैद्यकीय उपचार करनेवाले लोगों की आवश्यकता है। अपनी वत्सलता तथा मातृभाव के कारण सेवा और शुश्रूषा महिलाएंअच्छी तरह करती है यह सर्वकष अनुभव है। अत: सभी ने तय किया और अन्यान्य ग्रामों से २० बहनों को नागपुर में भेजा गया। विवेकानंद मेडिकल मिशन खापरी के सहयोग से उनको दाअी का प्रशिक्षण दिया गया। कालावधी था दो माह। उस शिक्षण के साथ सात्विक और पौष्टिक आहार बनाना, सर्वेक्षण करना, प्राप्त साधनोंसे उपचार करना यह भी सिखांयां गया। साथ ही साथ समाजसेवा भाव, समितिकार्य, सेवाभाव, कर्तव्य भाव जागरण भी हुआ। और यह सब नियोजन बद्धता से हुआ। परिणामत: सभी को अनुभव हुआ कि यह बहनें अपनें गांव की दीदी बन चुकी है। विशेषत: बाढ के समय उनकी मदद एकमेवाद्वितीय रही। स्थिती ऐसी है कि वहाँ प्राथमिक उपचार के लियेदवाइंयां भी उपलब्ध नही होती है। कर्स बार नागपुर से दवाइयां भी भेजी  जाती है। वैद्यकीय मदद के साथ इसका अप्रत्यक्ष लाभ है मतांतरण पर रोक। उनमें से २ बहनों का सिलाई काम तथा बुनकाम भी सिखाया गया। स्वाभिमान से वे सब अपनी जीविका प्राप्त कर रही है। स्त्रीजीवन विकास परिषद, ठाणे यहां भी वनवासी युवतियों को सिलाई, बुनाई, रसोईघर में कुछ चीजें बनाना, खास कर उनके स्थान पर मिलनेवाले पेड, पौधों का उपयोग कैसा हो सकता है यह सिखाया जाता है। बार बार ऐसी ६, ७ लडकियां आतीहै। उनको निवास और शिक्षा उपलब्ध करायी जाती है। उन्होंने तैयार की वस्तुओं की विक्री व्यवस्था होती है। कल्याण में एक माह के लिये किसी कोर्स के लिये आयी हुईवनवासी दो बहनों की निवास व्यवस्थ की जाती है। जळगांव में एक सेविका ने कहाँ, एक दो महिनों के कोर्स के लिये आयी हुईदो क्नयाओं को निवास व्यवस्था के साथ क्रोाावर्क भी सिखायां। अमरावती में एक सेविका ने मूकबधीर बच्चों को भाषा-उच्चारण सिखांया।  एक पुस्तिा भी पुणे की एक सेविका ने छपायी है। पुणें में एक अनपढ वसती के बच्चोंके लिये झुलाघर चलता है। मुलुंड का,क सेविका जरूरतमंद सेविकाओं को सिलाईकाम सिखाकर उन्हें स्वावलंबी बनाने का प्रयास करती है।
अन्य सहायता
युद्ध में विकलांग जवानों के लिये चलाये जानेवाले क्वीन मेरी इन्स्ट्ट्यिूट , पुणे यहां पुणे की सेविकाएँ मनोरंजक और संस्कारप्रद कार्यक्रम साल में दो बार प्रस्तुत करती है। द. कर्नाटक में सेवावस्ती में नेत्र चिकित्सा शिबिर लिया गया। ८० लोगों को ऐनक दिये गये। तथा ४लोगों को शस्त्रक्रिया े लिये आर्थिक सहायता की।
नागपुर में रूग्णोपयोगी साहित्य केंद्र में नाममात्र किरायें पर व्हील चेअर, वॉटर बेड,वॉकर आदि वस्तुएँ उपलब्ध करायी जाती है। उस उपक्रम सेप्राप्त राशि का व्यय भी रूग्णों के लिये ही होता है।
मध्यप्रदेश के सागर जिलें में पथारियां गांव में ठाकुर लोगों की रखेंलियां बहोत है। आयु के ४० साल के बाद वे निराधार बनती है। १९८७ में वहां संपर्क कर ऐसी निराधशर महिलाओं की पुनर्वसन और नयी बनानेवाली रखेंलियां पर रोक लगाने का प्रयास हुआ। बिलासपूर के पास होली के पूर्व १५ दिन स्त्रियोंका बाजार लगता है। उसका विरोेध कर संबंधित अधिकारियों से भेट लेकर बंद करने का प्रयास किया। लेकिन सभी का अनुभव है कि,ऐसे प्रयासों का फल तात्कालिक रहता है।
कर्नाटक में हिंदू विवाह वेदिका यह संसतश स्थापित कर विवाह संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिये मार्गदर्शन और सहायता दी जाती है। तामिळनाडू के सेलम में एक सिलाई शाखा चलायी जाती है। हिंदी भी पढाया जाता है।
हमारें सीमावर्ती कार्यक्षेत्रों में अपह्रत बालिकाओं की मुक्तता बलात धर्मांतरितों की वापसी और पुनर्वसन,आतंकवादी  हमलों के संबंध में सजगता और संबंधित लोगों को जानकारी देना ऐसे कार्य चलते रहते है। उस व्यक्ति की सुरक्षा की दृष्टी से वह प्रसिद्ध नही किया जाता है।
धार्मिक कार्यक्रम भी सेवाभावना से जोडे जा रहें है। एक सेविका का ६१ वे वर्षगाठ का कार्यक्रम था। उसने जांभवली गांव में जाकर ६१ कातकरी महिलाओं को टॉवेल /कपडा देकर नारियल से गोद भरी। १९७१ के बांगला युद्ध के बाद घायल जवान वानवडी ऑस्पिटल में थे। तब पुणे की सेविकाओं ने संक्रमणवायन उन जवानों की पतिनयों को दिये।
हमारे अष्टभुजा मंदिर जहाँ जहाँ है वहां एकत्रित धान्य, कपडे,हमेशा वनवासी पाडों पर, झुग्गी झोपहीयों में जाकर दिये जाते है। अकाल के समय पुणे के पास का राऊतवाडी गांव समिति ने गोद लिया था। आज भी वहां संपर्क  है। केवल अनाज धन ही नही शिक्षा संस्कारों का भी दान दिया गया।
नैसर्गिक तथा मानवनिर्मित आपदाओं में हर प्रकार की मदद यह तात्कालिक कार्य महत्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय अंग है। और सस तात्कालिक कार्य के लिये एक स्थायी कोश रा. से समिति ने स्थापित किया है। आधारनिधी इस आकर्षक नाम से वह देवी अहल्याबाई स्मारक समिति, नागपुर का एक विभाग उस नाते कार्यरत है। चातुर्मास व्रत समाप्ती का दान हो किसी का कारण वयच बचा हुआ धन हो, किसी के स्मरणार्थ कुछ देना है। कुछ लोगों की वार्षिक दान की पद्धती के अनुरूप कुछ राशि, ऐसी छोटी बडीं राशियां इसमें सेविकाओंकी ओर से तथा कुछ सामान्य व्यक्तियों से सदैव एकत्रित होती रहती है। अपने धन का योग्य समय, योग्य जगह,योग्य ढंग स उपयोग होगा इस विश्वास से समाज के कई लोग नैसर्गिक आपदा के समय धन देते है। इस कारण आपदा के समय धन देते है। इस कारण आपदा आने के बाद उसमें तुरंत मदद दी जाती है। वह मदद भी आपदाग्रस्त लोगों की आवश्यकता जान कर दी जाती है। जैसे ही वातचक्र के कारण ओरिसा में मानवी जीवन उद्वस्त हो गया था। उस समयकपडों साथ तुरंत पोहा और गुड भेजा गया।जो हाथ पर लेकर भी खा सकते थे। ८-१० दिनों के बाद परिस्थिती जरासी सुधरी। पकाने के लिए कुछ साधन उपलब्ध हुए तब चावल भेजा गया। किलारी भुकंप के समय भी अत्यावश्यक चीजों का एक पॅकेट बनवाकर घर घर जाकर उन लोगों का सांत्वना दे कर वितरित कर दिए। हमारे पास यह है वही हम देंगे। चाहें तो लो यहीं भाव नही है ना ट्रक खाली करवाकर वापस जाने की जल्दी है। देश के किसी भी भाग में नदीबाढ,  भूकंप, वातचक्र, बीमारी ऐसी आपदा में मदद पहुंचायी जाती है। अभी अभी गुजरात भूकंप से नष्ट हुए मयापूर ग्राम का पुननिर्माण समिति की ओर से हुआ है। त्सुनामी ग्रस्त धीवरों को मछली पकहने की जालियां दी गयी है। महाराष्ट्र में वर्षाग्रस्त लोगों को आवश्यक वस्तुएँ दी गई है।
कुछ आपदाएँ मानवनिर्मित भी होती है। ऐस समय भी समिति अपना कर्तव्य निभाती है। उदा- १९८५ में भोपाळ वायू दुर्घटना के समय खाद्य पाकिट वितरित हुए। ४ सिलाई केंद्र शुरू किये गये। कपडा भी दिया गया। गुजरात में आरक्षण समस्या गंभीर बनीऔर कई लोग बेघर हुए। उस समय साडियां और ब्लाउज पीस दिये गयें। १९९५ में डोढा,भद्रवाह किस्तवाड आदि भाग आतंकग्रस्त हो गये। उनको सलवार कमीज और शाले वितरित हुई। उसी वर्ष नागपूर में गोवारी हत्याकांड हुआ। ६८ महिलाएंसरकारी अस्पताल में थी उनको साडियोंके साथ दवाइयाँ भी दी गयी। १९९० में जम्मू में आधार केंद्र स्थापित कर १ लाख रू. की दवाईयाँ और ४०० साडियां ,सलवार सूट, चद्दरे दी गयी। नगरों में सिलाई केद्र स्थापित कर सिलाई मशीन दिये गयें। शिक्षा के लिये उपयुक्त साहित्य भी दिया गया। ऐसे कई प्रसंग है जहाँ मदद पहुंचायी गयी है।
नैसर्गिक हो या मानवनिर्मित हो कुछ भी आपदा आ गुजरी तो उस स्थान की सेविकाएं तुरंत मदद कार्य में जुट जाती है। चाहे रोटी बनानी है,घायल लोगों की शुश्रूषा करनी है, चाहे उनको सुरक्षित स्थान तक लाना है या तात्कालिक निवास प्रदान करना है। अभी अभी जलप्रकोप हुआ तब महाराष्ट्र की एक सेविका के घर ७५ लोग ८ दिन रहें थे। स्वयं की qचता न करते हुए दिनरात सेविकाएं इस कार्य में जुट जाती है। अर्थात स्वयंप्रेरणा से। क्योंकी संस्कार ही है-समाज मेरा है और मै समाज की हूँ। अधिकारी से आदेश या आज्ञा आने तक रूकना यह भाव नही रहता है।
ऐसे समय और एक मदद अवश्यभावी हो जाती है-आपदग्रस्तों को सांत्वना देना, उनके मन में संकट के उपर उठनें की हिंमत निर्माण करना।, उनके दु:खमय जीवन में कुछ आनंद के क्षण निर्माण करना, उनके मन का निराधार भाव नष्ट करना। समिति की स्थानीय अधिकारी और सेविका कितनी भी कठिन स्थिती हो वहाँ पहुंच जाती है। लोगों के घर तथा अस्पताल जाकर लोगों की पुछताछ करती है। प्रसिद्धी विन्मुखता के कारण ना यह समाचार पत्रों आता है ना फोटो खींचे जाते है। लेकिन आपदग्रस्तों के मन में उनककी ममता एक विश्वास जरूर निर्माण करती है। आवश्यकतावश पथक भी भेजे जाते है। ये सविकाए उनकी मदद भी करती है। साथ साथ कहानियां, गीत, खेल, भजन के माध्यम से उनको उत्साह उमंग देती है। जब एक गृहिणी ऐसे मदद कार्य में सम्मिलित होती है तब स्वाभाविक ही वह अमिट संस्कार परिवार में भी निर्माण हो जाता है।
कर्तव्यपूर्ती के आनंद यह मूल्यवान धन है। पीठ पर फरा गया हाथ यह अनोखा प्रशस्तिपत्र है।
संकलित-

रविवार, 13 जुलाई 2014

पंचांग - युगाब्ध 5116, विक्रमी संवत 2071 मास- अषाढ़, पक्ष - कृष्ण पक्ष, तिथि - श्रावण, तदानुसार 13 जुलाई 2014 आप सबके लिए मंगलमय हो |
देवी अष्टभुजा

देवी अष्टभुजा

देवी अष्टभुजा स्तोत्र
नमो अष्टभुजे देवि पार्वति शारदे।
बुद्धि वैभव दो मातर् हमें दो शक्ति सर्वदे।।१।।
शील रूपवती नारी तेरी ही प्रतिमा बने।
धर्म संस्कृति रक्षा से धन्य भारत को करें।।२।।
सुगंधित सुवर्णाभ सुकोमल सरोज जो।
हस्त में धृत देता है पाठ निर्लेप तुम बनो।।३।।
गीता प्रदीप जो देता विश्व को ज्ञानचेतना।
कर में स्थित है तेरे स्नेहले अम्ब मंगले।।४।।
शील चारित्र्य की होवे आभा प्रसृत पावनी।
अग्निकुण्ड इसीसे है प्रदीप्त धृत हाथ में।।५।।
त्रिशूल है लिया मातर् दुष्ट संहार हेतु से।
खड्ग देवि लिया है जो सज्जनत्राण बुद्धि से।।६।।
विरागविक्रमों की जो फहराये नभ में प्रभा।
भगवा ध्वज है तूने हाथ में पकडा महा।।७।।
ध्येय का ध्यान ना भूले कार्य में रत हो सदा।
स्मरणी हाथ की देती हमें सन्देश सर्वदा।।८।।
घण्टानाद हमें देता नित्य जागृति वत्सले।
निद्रा आलस्य में खोवे अमोल क्षण ना कदा।।९।।
सिंहवाहिनी अम्बे तू जगाती जनसिंह को।
सटाओं से उठे सेना शक्तिसामथ्र्यदायिके।।१०।।
सती तू पद्मजा तू है तू है देवी सरस्वती।
परित्राणाय साधूनां काली माँ तू यशोमती ।।११।।
विनम्र भाव से देवि प्रणिपात सहस्रदा।
सेविकाएँ करें आशीष देहि देवि सुमंगले।।१२।।
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते।।१३।।
।।देवि अष्टभुजा की जय।।
 सर्वसामान्य व्यक्ति अमूर्त कल्पना समझने में सक्षम नहीं होते है। अतः ऐसा अमूर्त भाव मूर्त स्वरूप में साकार कर, सबकी विचारशक्ति की पहूच में लाकर सबके सामने प्रतिक स्वरूप में रखना यह भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है। राष्ट्र सेविका समिति ने स्त्री के आवश्यक गुण, उसकी क्षमता, उसकी सुप्त शक्ति, कायान्वित हो इस दृष्टि से १९५० में अष्टभुजा देवी का प्रतिक सेविकाओं के सामने रखा। स्त्री में त्रिवि शक्तियाँ होती है - प्रेरक, तारक, मारक। कन्या, बहन, पत्नी, माता ऐसी जीवन की इन चार अवस्थाओं में समाज को प्रेरणा देनेवालें कई स्त्री चरित्र हमारे इतिहास के पन्नों पर अंकित है। जैसे की राणा प्रताप की कन्या चंपा, खंडो बल्लाळ की बहन संतुमाई हाडा रानी, जिजामाता उसकी प्रेरक शक्ति को दर्शाते है। अपने पुत्र को बनबीर के खडग को बलिं देकर राजवंश को सुरक्षित रखनेवाली पन्नाधाय, राजादाहर की - मृत्यू बाद शत्रु को परास्त करने का प्रयास करनेवाली दाहरपत्नी जैसी कहानियाँ उसकी तारक शक्ति की परिचायक है तो महिषासुरमर्दिनी देवी, राणी लक्ष्मी, सत्यभामा जैसे चरित्र उसकी मारक शक्ति का दर्शन कराते है। देवी के हाथ के कमल, गीता स्मरणी से प्रेरणा शक्ति, वरदहस्त से तारक शक्ति तथा त्रिशूल खङ्ग धारण कर मारक शक्ति का समुच्चय हम देवी अष्टभुजा में देखते है।
 श्री बंकिमचंद्र ने भारत माँ को, ज्ञानदायिनी सरस्वती, वैभवदायिनी लक्ष्मी और दुष्टविनाशिनी दुर्गा तीनोंके समन्वित रूप में देखा। देवी अष्टभुजा की आराधना भी उसी दृष्टी से ही करते है। देवी महात्म्य में देवी की उत्पत्ति का कारण और कथा बतायी है। आसुरी वृत्ति का प्रतिरोध करने देवगण असमर्थ सिद्ध हुए। तब उन्होंने आदिशक्ति - मातृशक्ति का आवाहन किया। उसको अपने अच्छे शस्त्र अस्त्र प्रदान किये और इस संगठित सामथ्र्य से युक्त हो कर यह महाशक्ति दुष्टता के विनाश का संकल्प लेकर सिद्ध हुई और देवों को भी असंभवसा लगनेवाला कार्य उसने कर दिखाया। आज भी जीवनमूल्यों को नैतिकता के पैरोंतले कुचलने वाली अहंमन्य दानवी शक्ति को, जीवन के श्रेष्ठ अक्षय तत्त्वज्ञान को दुर्लक्षित कर क्षणिक भौतिक सुख को शिराधार्य माननेवाली मानसिकता को तथा श्रद्धा को उखाडनेवाली बुद्धि को हमें हटाना है, तो फिर मातृशक्ति को ललकारना होगा, उसे संगठित करना होगा। अतः ऐसी अष्टभुजा का प्रतीक हमेशा हमारे सामने रहे जो हमें अपने कर्तव्य शक्ति का, संगठन का बोध कराते रहेगा। विशाल वटवृक्ष, पावन मंदिर और अक्षुण्ण बहनेवाला जलस्रोत इस पृष्ठभूमिपर  सिंहारूढ, विविध आयुधों से युक्त, आत्मविश्वासपरिपूर्ण यह देवी हमें प्रसन्नता के साथ हमारे कुछ गुणों का, भावों का, शक्तियों का उन्नयन करने का संदेश प्रदान करती है।
 एक सूक्ष्म से बीज से उत्पन्न होकर भी विशालता प्राप्त करनेवाला वटवृक्ष, अपनी टहनियों से नया वृक्ष निर्माण करने की क्षमता रखता है। सहस्त्रों पक्षियों का निवासस्थान और प्रवासियों का विश्रामस्थान बनता है। अन्यान्य पंथों को जन्म देनेवाले, अन्याय पंथों का अपन में समा लेनेवाले अतिप्राचीन हिन्दू धर्म का प्रतीक है। भारतीयों का अध्यात्मिक भाव और ज्ञान वटवृक्ष तथा मानवी शक्ति से श्रेष्ठ, सामथ्र्यवान जो अगम्य अचिन्त्य विराट शक्ति है उसका परिचायक पावन मंदिर, हमारी नम्रता, श्रद्धा तथा असीम निष्ठा वृद्धिगत करता है। बिना भेदभाव के सभी को समान लाभ देनेवाली, अपने दोनों तट सुजलां-सुफलां बनानेवाली नदी, उसको आकर मिलनेवाले विभिन्न जलप्रवाहों को आत्मसात कर अखंड सातत्य से बहती है और अंत में सागर में, अपना सारा जलसंचय, सारावैभव मानों ‘स्वङ्क का भाव ही, समर्पित कर देती है।
 सदियों से लगातार चलती आयी और वधिष्णु होनेवाली विशाल तथा उदार, अनेकानेक शरणार्थियों को आश्रय देनेवाली, अनेकानेक विचारधाराओं को जन्म देनेवाली तथा अन्य योग्य विचारों को संमिलित कर लेनेवाली ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म, नीति, विविध शास्त्र, सभीमें अत्युच्च कुशलता पाकर वह विश्वकल्याण हेतु समूचे विश्व में उदारता से उंडेल देनेवाली भारतीय संस्कृति के निदर्शक इस पृष्ठभूमीपर अष्टभुजा सिंहपर विराजमान है। बलवान, स्वाभिमानी, स्वातंत्र्यप्रिय, वनराज सिंह को अपने अधीन रखने की क्षमता उसमें है। उसकी सिंहपर बैठक इतनी दृढ है कि वह जरा भी विचलित या डाँवाडोल नही होती है। स्वसामथ्र्य पर कितना अटूट विश्वास है! ऐसी अपराजिता शक्ति हमारा आदर्श है। हम भी ऐसी शारीरिक मानसिक शक्ति प्राप्त करेगी। सिंह की सावधानता चापल्य, स्वाभिमान, नेतृत्वक्षमता भी हमें मार्गदर्शक है।
 अष्टभुजा याने आठ हाथोंवाली। फिर भी उसका मस्तक एक है। चिन्तन एक, कृति में लाने आठ हाथ। एक चिंतन, कार्यकर्ता अनेक। एक मेंदू, मस्तिष्क अंग अनेक और सभी में अंगांगी भाव। स्वतंत्र अस्र्तित्व, स्वतंत्र कार्य किन्तु एक उपांग बन कर। एक का कार्य दूसरे को पूरक। हम सब एक है यह एकात्म अनुभूति। हरेक का एक उद्देश से किया जानेवाला सामूहिक काम।
 स्थान और कार्य महत्त्वपूर्ण किन्तु तब तक ही जबतक वह सबसे जुडा रहता है। किसीका भी फूटकर अलग होने का भाव उसको स्वयं को तथा समूह को भी हानि पंहुचाता है। अपनी कार्यशक्ति माँ के चरणों में समर्पित होनी चाहिये। सामूहिक कार्यसंकल्प हितकारक सिद्ध होता है। एकात्मभाव से स्पर्धा, मत्सर, अहंकार तथा विनाशकता नष्ट होते हैं और दिव्य शक्ति का निर्माण होता है।
 स्त्री का अष्टावधांनी होना भी इस आठ हाथों से सूचित होता है। एक ही समय अनेक कामों में वह ध्यान रखती है - सजग रहती है। परिवार के सभी जनों काध्यान रखती है। ईर्दगीर्द घटनेवाली घटनाओं का कार्यकारण भाव समझ सकती है। मानों एक सजग प्रहरी है। हरेक हाथ में विभिन्न आयुध धारण करनेवाली।
 बायें हाथमें त्रिशूल पर लहरता हुआ ध्वज और दाहिने हाथ में मानों वार करने सिद्ध खङ्ग हमारा ध्यान आकर्षित करता है। शस्त्रधारी देवी। ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्ङ्क हेतु से दक्ष है। भारतवर्ष में अनेक राजनैतिक प्रयोग हुए। बिना शासक शासन का भी प्रयोग हुआ। बिना शस्त्र समाज का भी हुआ। परमोच्च अहिंसा का भी हुआ। किन्तु वे असफल रहें। समाज में शतप्रतिशत लोग सत्कर्मप्रेरक, सच्चरित्र, सद्हेतुधारी होना असंभव सा है। दुष्प्रवृत्ति हमेशा आक्रमक होती है। उससे बच पाने के लिये स्वसंरक्षणक्षम बनना अनिवार्य होता है। इस आक्रमकता की पहली शिकार होती है दुर्बलता। शस्त्रधारण उस दुष्ट प्रवृत्ति को रोकता है। उसके मन में चिंता और भय निर्माण करता है। उसी समय शस्त्रधारक निर्भय और आत्मविश्वासपूर्ण बनता है। सभी का कल्याण हो, उनको सुखशांति प्राप्त हो इसके लिये शस्त्रसज्जता अत्यावश्यक है।
त्रिशूल
 दूरसे ही द्रुतगति से शत्रु को चीरने वाला। तीन शिर होने के कारण अधिक पीडादायक। त्रिगुणात्मक प्रवृत्तियाँ, त्रिताप, तीन गुण, सब मानवकल्याण वृत्ति के डंडे को जुडे हुएं। यही कारण है कि वह ध्वजदंड बन गया है। उसपर  फहरनेवाला ध्वज है भगवा-त्यागाधारित तेजस्वी संस्कृति का निदर्शक। विक्रम और वैराग्य, वैभव और त्याग जैसे दो छोर है इसके। उदयमान सूर्य, प्रज्वलित अग्नि की ज्वालाओं के समान रंग है। हिन्दु मानस में इसके प्रति प्रगाढ श्रद्धा है, अतीव आदर है, अगाध निष्ठा है। भारत के विजयी इतिहास का, श्रेष्ठ वैभव का, विश्वकल्याण हेतु विश्वसंचार का, कृण्वन्तोविश्वमार्यम् भाव का, मानवधर्म के आचरण का यह साक्षी है। वह हमारा श्रद्धास्थान है, प्रेरणाकेंद्र है, मानबिन्दु है। हमने उसको गुरु माना है। उसकी रक्षा हमारा आद्य कर्तव्य है।
खङ्ग
 शस्त्रधारी हाथ की निपुणता के साथ-साथ दृढ मन जुडा हो तो विजय निश्चित होती है। हमारी माँ के हाथ के खङ्ग के पीछे दुष्टदमनार्थ संकल्पित उसका मन है अतः यशप्राप्ति निश्चित है। दृढ संकल्पिता, निश्चयात्मक बुद्धि, समर्थ वाणी और निष्काम कर्तव्यभाव खङ्ग को तेज बनाते है। यह तीक्ष्ण खङ्ग हमेशा कोश में बंद रहता है। किन्तु आवश्यकता के समय उसे झट से खींच वार करने के लिये अभ्यास आवश्यक है।
वरदहस्त
 शस्त्रधारी हाथों के साथ ही हमारे ध्यान में आता है वरदहस्त। कहा जाता है कि सिंहनी के तीक्ष्ण नाखून उसके बच्चों को कभी घायल नहीं करते हैं। उन तीक्ष्ण नाखून के भरोसे ही बच्चे आश्वस्तता और सुरक्षितता का अनुभव करते है। हमारी माँ के वरदहस्त से हमें प्रतीत होती है उसकी क्षमाशीलता, उसकी ममता। हमसे कुछ गलती हुई तो भी माँ क्षमा करेगी यह आश्वासक भाव मन में निर्माण होता है। उसका वरदहस्त भूले भटकों को क्षमा कर शक्ति प्रदान  करता है। समाजकार्य में व्यस्त लोगों को संगठकों को यह भाव अपनाना ही चाहिये। शस्त्रधारण के साथ विवेकी क्षमाभाव। यह अभयहस्त हमें आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो आगे बढने की प्रेरणा देता है।
अग्निकुंड
 धधकती हुई ज्वालाओं की संहारक शक्ति नियंत्रित करनेवाला अग्निकुंड। विनाशक, शक्तिको, उपयोगिता में, विधायकता में बदलनेवाला। यही है मानवी बुद्धि की कुशलता। नियंत्रित स्वतंत्रता। संहारक शक्ति का तारक शक्ति में परिवर्तन। दोषों को मिटाकर गुणों का उपयोग।
 अग्नि तेजस्वी है, स्वयं पवित्र है ही दूसरों की भी अशुद्धि नष्ट कर उन्हेंभी शुद्ध पवित्र बनाता है। ‘समुन्नामितं येन राष्ट्र न एतद् पुरो यस्य नम्रं समग्रं जगत्ङ्क भारतीय स्त्री के ऐसे सच्चरित्र का, शुद्धशील का, पवित्रता, पातिव्रत्य का, सतीत्व का ही मानों प्रतिक है। अग्नि की उध्र्वगामिता ‘नाधः शिखा यान्ति कदाचिदेवङ्क सदैव विकास, उन्नति, उत्कर्ष की ओर ध्यान। यह गुण उपजाया है भारतीय संस्कृति ने। ऐसी प्रगतिशील संस्कृति का रक्षण भारतीय स्त्री ने ही किया है - कर रही है और करती रहेगी। किन्तु इस अग्नि को जलाना पडता है - घर्षण से हो, दियासलाई से, लायटर से या बटन दबाकर। जलाने के बाद यह तुरंत जलता है किन्तु उसका प्रज्वलन प्रयत्नसाध्य ही है। हमें यह ध्यान में रखना है। अग्नि को सातत्य से प्रज्वलित रखने उसमें आहुतिया भी देना है। और वह भी ‘इदं न मम’ भाव से। समर्पण एक बार नहीं बार बार। शक्ति, बुद्धि, धन, मन सब कुछ समर्पित हो। इस समर्पण से ही भारत का इतिहास तेजस्वी बना है और भविष्य में भी इसी के आधार पर भारत तेजस्वी बना है और भविष्य में भी इसी के आधार पर भारत तेजस्वी राष्ट्र बनेगा। अग्नि की और एक विशेषता है - गतिशीलता। बीच में जो जो कुछ आता है उसे आत्मसात करते हुए वह चारों तरफ फैलता जाता है।
 अग्नि के विविध गुण, उसकी विनाशकता शक्ति पर नियंत्रणक्षमता, अग्नि की उष्णता से तप्त अग्निकुंड हाथ में धारण करने की क्षमता हमे अपनानी है। उसको कृति में परिवर्तित करना है निरहंकार वृत्ति से। यह संदेश है गीता का।
श्रीमद्भगवद्गीता
 ज्ञान, कर्म, भक्ति का मधुर संगम। कर्म ज्ञानाधिष्ठित हो और भक्तिपूर्ण भी। साथ-साथ निष्काम भी। निराशा सें पलायवान नहीं, यश के अहंकार से भी ऊपर ऊठकर। गीता हमें यह कर्मयोग सिखाती है। स्वामी विवेकानंदजी ने अपने गुरु को तरह तरह से परखा। एक बार कसौटी पर उतरने बाद उनपर अविचल श्रद्धा, निष्ठा से उनके अनुगामी बने। अपना ध्येय प्राप्त करने हमने दिव्य मार्ग का स्वीकार किया है। अविचल निष्ठा से, बाधाओं पर विजय पाते हुए हम आगे बढेंगे। परन्तु उसके लिये हमें अपने ध्येय का सदैव स्मरण रहें अतः है।
स्मरणी
 जापमाला। प्रतिपल स्मरण। इसके लिये साधन है १०८ मणियों को एकत्रित गूंथकर बनायी हुई माला। १०८ बार जप किन्तु गिनती है १००। मोह के क्षण कर्तव्य ध्यान भुला सकते है। कहा जाता है खरगोश की शिकार करनी हो तो भी तैयारी करनी है सिंह के शिकार की। कार्यकर्ता ने यह हमेशा ध्यान में रखना है। कभी-कभी माला फेरना यह एक शरीर की प्रतिक्षिप्त क्रिया बन जाती है फिर भी माला का शीर्ष मणी आते तक वह नीचे नही रखी जाती। हाथ से कृति होती है, मन चिन्तन करता है।
 माला का हरेक मणि महत्त्वपूर्ण है फिर भी माला का एक अंश है। व्यक्ति कितनी भी श्रेष्ठ, विद्वान, कुशल हो उसने ‘मै अपने इस समाज का राष्ट्र का एक छोटा घटक हूं’ यह भूलना नहीं चाहिये। एकेक मणि अलग होता जायेगा तो माला रहेगी ही नही और मणि भी कटी पतंग के समान झोके खाता रहेगा और गिर जायेगा।
 ध्येय का स्मरण और पुनः पुनः प्रयत्न से ही हम ध्येय प्राप्त कर सकेंगे।
 मणि अनेक किन्तु धागा एक - संगठित रखने की क्षमता - भावी तेजस्वी राष्ट्र निर्माण का हेतु यह धागा है जो हमें कर्तव्य से बद्धरखता है।
 क्षण-क्षण से ही हमारा जीवन बनता है। जो क्षण जाता है वह फिरसे वापस नही आता। अतः हमे हरेक च्ण अपने जीवितकार्य में, राष्ट्रसेवा में व्यतीत करना है। माँ के हाथों की स्मरणी हमें इसलिये प्रेरित करती है। यह सब होगा हम सजग रहेंगे तो। घंटानाद हमें जगाता रहे।
घंटा
 घंटा मंदिर की हो, पाठशाला की हो, दरवाजे पर लगायी हुई हो या घडी की हो - वह अपने नाद से हमें जगाती है। जागृतावस्था अर्थात् क्रियाशीलता। घंटा का मधुर नाद हमें प्रसन्न करता है। ‘आगमार्थं तु देवानां’ यह उपयुक्त है। किन्तु जब हम उसका फल ‘निर्गमनार्थं तु रक्षसाम्’ चाहते है, शत्रुहृदय को भयकंपित करना चाहते है तब उसका उपयोग शस्त्रसमान कठोरता से और तेजी से ही करना पडेगा। देवी महात्म्य में देवी के हाथ के घंटानाद से दैत्यों का हृदय कंपित हुआ ऐसा वर्णन है। गीता में भी वर्णित है ‘शंखं दध्मौ पृथक् पृथक्|’ शांतता के समय मंगलप्रद तो युद्ध के समय भयप्रद घंटारव।
कमल
 देवी को नमन करते हुएं हम बोलते है ‘सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यंबके गौरी। नारायणी नमोस्तुते|’ यह मंगल और शिव भाव व्यक्त होता है कमल से। अपनी सुंदरता से सभी को आकर्षित करता, लुभांता है। खास कर कवियों को बहुत प्यारा लगता है। मुखकमल, नयन कमल, चरणकमल, हस्तकमल, जैसे कई शब्दों का उपयोग उन्होंने किया है। केवल सुंदरता नही साथ में सुगंध भी है। अतः ईश्वरचरणों पर चढाने योग्य है। जितना सुंदर, सुगंधित उतना कोमल भी है। उसकी पंखुडियों की कोमलता हमारे मन को कोमल बनाती है और उनको हम अतीव कोमलता से स्पर्श करते है। यही कारण है कि उसमें रात्रि के समय बंदिस्त हुआ भ्रमर, बडे-बडे लकडीयों को खोखला बनाने की क्षमता होते हुए भी, पंखुडियों को जरा भी हानि नहीं पहुंचाता है। हम जानते है कि राक्षसियों के बीच रहते हुए भी सीता सुरक्षित रही। वास्तव में कमल का जन्म कीचड में होता है फिर भी उसकी डंठल कीचड से तथा पानी से भी ऊपर ऊठती है और अपने माथे पर कमल को धारण करती है। महारथी कर्ण के वचन ध्यान में आते है, ‘मदायत्तं तु पौरुषम्|’ जन्म के अनुसार नहीं कर्म के अनुसार चातुर्वण्र्य। प्रतिकूल परिस्थितिओं पर निश्चय से विजय पाना।
 प्राचीन काल में कमल पत्रों का उपयोग पत्र लिखने हेतु किया जाता था। इतने बडे-बडे पत्ते पानी के ऊपर तैरते रहते है। गोल आकार और सुंदर हरा रंग। दिनरात पानी में रहते हुए भी गीले नही होते है। यह निर्लेपता हमे भारतीय ऋषिमुनि, संतों की याद दिलाती है। हम जब किसी तालाब में कमल देखते है तग मुंहसे ‘वाह’ निकल जाती है किन्तु कमलफूल और कमलपत्र ही दिखाई देते है। डंठल का कही दर्शन भी नही हो पाता। जीवनरस देनेवाला तो वही है। अदृश्य रहते हुए भी सबकुछ। ईश्वर को हम कहते है ‘करुनि अकर्ता, जग निर्मयता|’ संतानों के कार्यकर्तृत्व से माँ का बडप्पन ध्यान में आता है। एक कुशल माँ के समान ही यह डंठल पंखुडियाँ भारी संख्या में होते हुए भी उनको इधर-उधर भटकने नहीं देता है, तितरबितर नहीं होने देता है। मानो, वह संगठन का बोधक है। विविधता में एकता का दर्शन कराता है।
 सुंदरता, सुगंधितता, कोमलता, निर्लेपता, विषम परिस्थिति से भी ऊपर उठने की क्षमता, संगठन कुशलता, इतने सारे गुणों से युक्त होते हुए भी उसकी चाह क्या है? श्रीहरी को अर्पण करने गजेंद्र ने जो कमल तोडा था वह अमर बन गया है जैसी ही अमरता उसे अपेक्षित है। एक कवि ने पुष्प की अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा है, ‘चाह है देशभक्तों के पैरों तले कुचले जाने की|’
 राष्ट्र सेविका समिति का केवल ऊपरी दृश्य रूप देखनेवाली महिलाओं के मन में प्रश्न उठता है ‘यह मूर्तिपूजा क्यों?’ यह मूर्तिपूजा है ही नही। हम तो पूजा के समान उसको गंध फूल अक्षत चढाते भी नही है। केवल पुष्पमाला और मनोभाव से किया हुआ प्रणाम। क्योंकि हम गुणपूजक है। सद्गुणों का, सत्कर्मका, तेज का सन्मान करनेवाले हम भारतीय है। भारत है। अष्टभुजा के गुण अपनाने का अधिकतम प्रयासकरनेवाली सेविकाओं का यह संगठन है।
 जिन्होंने चिन्तनपूर्वक यह प्रतिक कुशल चित्रकार से बनवा कर हेतुतः सेविकाओं के सामने रखा उनको वं. मौसीजी के उस चिन्तन को, उस प्रतिभा को शत शत प्रणाम।
साभार -
तीन आदर्श

मातृत्व का आदर्श - जीजामाता

सूर्य से पहले अभिवादन करे पूर्व दिशा को
शिवबा से पहले अभिवादन जीजामाता को


$img_titleऐसा कहाँ गया है। शिवबाने स्वयंपराक्रम से हिन्दवी साम्राज्य निर्माण किया। परंतु जिसकी कोख से यह तेजस्वी वीर ने जनम लिया उसको प्रणाम करना अत्यंत आवश्यक है।
शिवाजी महाराज के जन्म से पूर्व ८ शतकों तक मुस्लिम के सतत आक्रमणों के कारण हिंदु समाज दुर्बल स्वत्वहीन बन गया था। उसकी प्रतिकार शक्ती लुप्त हो गयी थी। गुलामी की चूभन भी मिटती जा रहीं थी। ‘यहीं हमारी नियती है। भगवान रखेगा वैसा रहना है|’ ‘यह मानसिकता बन गयी थी। हम ‘स्वामी’ है। की भावना समाप्त होकर किसी ना किसी मुस्लिम राजा की नोकरी करना और उनका पक्ष ले कर दुसरे मुस्लिम राजाओं से लडना अर्थात हिन्दुओंसे ही लढना उनको काटना, मारना। मुस्लिम राजा की विजय अपनी विजय मानना यहीं मानसिकता बनी थी। हम हिन्दु है यह कहलानें में भी हीनता का भाव अनुभव होता था। राजा अर्थात वह मुसलमान ही होगा हम राजा नहीं बन सकते ऐसा क्षुद्रता का भाव हिन्दु समाज में भरा था। हिन्दुओं की उदासीनता के कारण विस्मृती में खोयी अस्मिता को जगानेवाली, हिन्दु राष्ट्र का चाणक्य नीती के अनुसार पुनर्निर्माण करनेवाली, हिन्दुस्थान को यवन भूमि बनने से रोकनेवाली, एक दृढ संकल्पित महिला १७ वी शताब्दी में सिंदखेड के राजा लखुजी जाधव के कुल में जन्मी नाम था जिजा।
बाल्यकाल से ही हिन्दु देवालयों,श्रद्धास्थानों का मुस्लिमोंद्वारा अपमान, महिलाओं का अपहरण, यह घटनाएँ नित्य देखती थी। यह देखकर उसका मन व्याकुल हो उठता-किसकी विजय के लिये हिन्दु मर रहे है? यह शौर्य वे अपनी स्वतंत्रता के लिये क्यों नहीं दिखा सकते? उनको कौन प्रेरित करेगा? उसके उन प्रश्नों का उत्तर देने में कोई भी समर्थ नहीं था। बाल जिजा के मन पर एक-एक खरोंच उठ रहा था।
लखुजी राजे जाधव के घर पर प्रति वर्ष रंग पंचमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाता था। १६०५ की रंगपंचमी महत्वपूर्ण थी। उस दिन मालोजी भोसले अपने पुत्र शहाजी को लेकर उपस्थित थे। शहाजी और जिजा परस्पर गुलाल खेलने लगे। मालोजी ने माजक में कहाँ, ‘बहोत ही योग्य जोडी है दोनों की। मालोजी समतुल्य होने के कारण मालोजी के साथ यह रिश्ता करने की जाधवराव की इच्छा नहीं थी। जाधव जैसे देवगिरी के यादव वंशज थे वैसे भोसले भी सिसोदिया राजपूत वंश के थे। अपनी सांपत्तिक स्थिती की बात मालोजी को खलती रहीं थी। कहा जाता है कि एक दिन उसको सपना आया की खेत में विशिष्ट स्थान पर खोदने से उसको विपुल धन मिलेगा, वैसा ही हुआ। निजामशहा ने भी मालोजी का दर्जा बढाया। निजामशहा का यह अप्रत्यक्ष आदेश है यह मानकर जिजा-शहाजी का विवाह ठाठ बाट से संपन्न हुआ।
वीररमणी तपस्विनी
शहाजी-जिजा का सहजीवन प्रारंभ हुआ। शहाजी राजा के मन में महत्वाकांक्षा जगी कि दक्षिण में मुस्लिम राज्यों पर हिन्दुओंका जीना दुर्भर होगा। इस उद्देश्य से दोनों में मित्रता नही हो ऐसा शहाजी का प्रयत्न चल रहा था। हिन्दुओं का स्वतंत्र राज्य निर्माण करने की भी शहाजी की कल्पना थी। शहाजी राजा को परिवार की ओर देखने को समय हीं नहीं मिलता था। परंतु जिजाबाई ने ससुराल के सभी लोगों का मन अपने शालीन व्यवहार से जीत लिया था।
फिर भी एक शल्य उसके मन में था। शहाजी राजे निजामशाही के आधार स्तंभ तो लखुजी जाधव  निजामशहा के-शत्रु की सेवा में। मायके ससुराल संबंधोंमें दरार बढ रहीं थी। ऐसी अवस्था में जिजा को पुत्र हुआ।  उसका नाम संभाजी रखा। निजामशहा ने लखुजी राजा को छलकपट से मारा। चीढकर दोनों कुल एक हो गये परंतु मुस्लिमों की विश्वासघाती वृत्ति से जीजा दुखी हुई। यवन विरोधी हिन्दु शक्ती खडी करने की अनिवार्यता बार-बार उसके मन में प्रतीत होने लगी। अर्भस्थ शिशु पर भी उसके संस्कार हाते रहे। ऐसी अवस्था में शिवनेरी पर शिवबा का जन्म हुआ। दिन था-१९/२/१६३० फाल्गुन कृष्ण तृतीया शके १५५१।
शहाजी राजा का सहवास बाल शिवबा को कम ही मिलता था। मुस्लिम अत्याचारों सें व्यथित  होकर जिजाबाई ने शिवबा के मन में स्वतंत्रता की आकांक्षा निर्माण की।  यवन हमारें देश के शत्रु है यह धीरे धीरे उसके मन में बैठने लगा। विजापुर के दरबार में बादशाह को उसने प्रणाम नही किया। बंगलोर में शहाजी राजा के साथ कुछ दिन रहते बाद जिजाबाई के ध्यान में आया कि विलासिता पूर्ण वातावरण में रहनें से वह शिवबा को अपनी चाह के अनुसार संस्कार नहीं दे सकेगी। अत:बंगलोर से पुणे में दादोजी कोंडदेव के संरक्षण में शिवबा के साथ जाकर रहने का निर्णय लिया। जिजाबाई की दृढ धारणा थी कि हिन्दुओंकी दैन्यावस्था-गुलामी दूरके लिये मुझे अपने पुत्र को ही तैयार करना है। गर्भावस्था से लेकर यहीं विचार प्रबल था। वैसे ही संस्कार बाल शिवाजी को देने हेतु पुणे जैसा और कोई स्थान नहीं था। पति को छोडकर इतने दूर रहना लोकापवाद था। परंतु यह एक महान योजना का अंश है ऐसी स्पष्ट कल्पनके कारण वह लोकापवाद सहन करती रहीं।
प्रभावी गृहस्थी
मुझे ही परिस्थिती बदलने वाला पुत्र निर्माण करना है। यह ध्यान में रखते हुए जिजाबाई ने दादोजी कोंडदेव की सहायता से शिवबा को युद्धकला के साथ- साथ रामायण, महाभारत के माध्यम से जीवन दृष्टी भी प्रदान की। दृढ धर्मनिष्ठा, महापुरूषोंको  के प्रति श्रद्धा, सादगी, शुद्ध चारित्र्य, स्वाभिमान आदि गुणों का बीजारोपण भी दोनों ने अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से किया। स्त्रीमाँ के समान है। उसका अपमान राष्ट्र का अपमान है। यह महत्वपूर्ण संस्कार दिया। पद्मिनी की कथा बताते हुए यवनोंको राज्य में स्त्री कितनी असुरक्षित है यह बताकर स्त्री का सम्मान तुम्हें ही पुन: प्रस्थापित करना है यह आकांक्षा जगायी।
कसबा पेठ के पुराने गणेशमंदिर का जीर्णोद्धार करके विघ्ननाशक देवता का आशीर्वाद प्राप्त किया और रहनेके लिये लालमहल बनवाया। अपराधियों को दंड दे कर धाक निर्माण किया। मालव क्षेत्र में चलनेंवालें आपसी झगडे न्याय देने हेतु बाल शिवबा और जिजाबाई के सामने लाने की पद्धति दादोजी कोंडदेव ने निर्माण की। प्रत्यक्ष न्यायदान का ही यह प्रशिक्षण था। रांझा के पाटील ने एक महिला का विनयभंग किया। अपराधी को शिवबा के सामने लाया गया। वह क्या न्याय देता है? सबकी आँखे उस ओर लगी रहीथी। उस पाटील की प्रतिष्ठा विचार न करते हुए शिवबा ने उसके हाथ पैर तोडने का दंड दिया। जिजा के संस्कार प्रभावी रहें। न्यायदान में किसी का पद, प्रतिष्ठा या रिश्तोंका दबाव नहीं होना चाहिए। उस क्षेत्र में रहने वाले मावल बालकोंको योजनापूर्वक शिवबा के साथ जिजाबाई ने युद्ध का प्रशिक्षण दिया। जिजामाता उनको भी संस्कारक्षम कथाएँ बताती थी। उनके गुणोंका शक्तीबुद्धि का उपयोग देश के शत्रु के साथ लडने के लिये सामुहिक रूपसे करने की प्रेरणा उनके मन में जगायी। यह करते करते सामाजिक समरसता की घूँटी भी पिलायी। भविष्य में प्राणोंकी बाजी लगानेवाले साहसी सरकारी भी शिवबा को इसीप्रक्रिया से प्राप्त हुए।
स्वराज्य संस्थापना की शपथ
स्वराज्य संस्थापना की कल्पना में साकार करते करते एक दिन शिवबा अपने साथियों को रायरेश्वर स्वयंभू शिव मंदिर में ले गया और अपने रक्त का अभिषेक करते हुए स्वराज्य स्थापना की प्रतिज्ञा ली। यह देखकर सभी साथियों ने भी शिवबा का अनुकरण किया। स्वतंत्र, ‘सार्वभौम हिन्दु साम्राज्य हो यह ईश्वर की इच्छा है। ‘ यह भाव स्वयं के और सभी के  मन में जगाया। जिजामाता को इसका पता चला तब उसने उनको शाबासी दी। इसे प्रोत्साहित होकर शिवाजी ने तोरणा किला जीतकर स्वराज्य का श्रीगणेश किया।
एक बार शिवबा और जिजामाता चौसर पट खेल रहे थे। शिवबा ने पुछा,‘ क्या शर्त रखना है विजय मिलने पर?’ जिजामाता के सामनेवाली खिडकी से कोंडाणा किले पर लहराने वाला हरा झंडा दिख रहा था। विधर्मीयोंकी अन्यायी सत्ता की वह निशानी थी। जिजामाता ने तुरंत कहां,‘ मेरी विजय होने पर वहाँ भगवा निशान चाहियें।’ कितनी सूचक व प्रेरक शर्त। आज बेट द्वारका जाते समय श्रीकृष्ण मंदिर से पहलेही जो आँखों को चूभता है वह भी अतिक्रमणकारियोंका हरा झंडा। परंतु आज कोर्स जिजामाता नहीं जिसकी आखोंमें वह चूभेगा।
सौभाग्य वा स्वराज्य
शिवबा का प्रताप विजापुर दरबार तक पहुँचा तब उसको रोक लगाने हेतु बादशाह ने शहाजी राजे को अकस्मात बंदी बनाया और पैरोंमें बेडियां डालकर विजापुर के रास्ते पर घुमाया। शिवाजी शरण आयेगा। शहाजी के प्राणोंकी भीक माँगेगा, ऐसी उसकी अपेक्षा थी। स्वराज्य या सौभाग्य ऐसा प्रश्न खडा हुआ तब जिजामाता ने स्वराज्य को अग्रक्रम दिया और कांटे निकलने की नीति अपनायी। दिल्ली के बादशाह से संधान बाँध कर उनको दोस्ती का आश्वासन देकर उनका दबाव विजापुर के बादशाह पर डाला।
शहाजी राजे का ज्येष्ठ पुत्र संभाजी भी विजापुर दरबार में था। अफझल के साथ १६५५ में युद्ध पर गया था। ऐसा कहां जाता है की अफझल खान ने कपट से उसकी हत्या की। जिजाबाई वह भूल नहीं पायी। अत: अफझल खान को मिलने जाते समय शिवबा को याद दिलायी। यहीं वै अफझलखान है जिसनें संभाजी को कपट से मारा है। अफझल खान इतना पराक्रमी हैकि तुम उसके साथसंधि करो- मिलने मत जाओ ऐसा कायरता का संदेश नहीं दिया।
शुद्धिकरण की नींव रखी
अफझलखान के मन में शहाजी राजे के बारे में द्वेषभाव था। शिवबा तंग करने के लिये उसने बजाजी qनबालकर को अचानक बंदी बनाया। गलें में संखल बाँधकर हाथी के पैरो तलें कुचलने की सजा दी। नार्सक राजे पांढरे ने मध्यस्थी करके वहसजा रद्द करने के लिये यशस्वी प्रयत्न किये। परंतु खान ने एक शर्त रखी। बजाजी को मुसलमान बनना पडेगा। बजाजी ने भी बादशाह  अपनी बेटी से उसका विवाह करायेगा ऐसी शर्त लगायी। बादशाह ने वह तुरंत मान्य की। यह घटना फलटन का qनबालकर परिवार व शिवबा को बहुत ही अपमानास्पद लगी। परंतु हिन्दु धर्म में पुन: उसको लाने का कोई रास्ता नहीं था। एक बार नित्यक्रमानुसार जिजामाता शिखर शिंगणापुर में दर्शन करने गयी तब वहाँ बजाजी को बुलाया और जैसे ही उसनें जिजामाता को देखां, उनके पैंर पकडकर रोने लगा, तब  जिजामाता ने उसको पुन: हिन्दु धर्म स्वीकारने के लिये कहां। बजाजी तो आने के लिये उत्सुक था ही। जिजामाता ने मंत्रीमंडल को बुलाया-धर्मांतरण कैसे गलत जबरदस्ती से था और अब तक यह मामला एक तरफा रहने के कारण हिन्दु समाज का कितना संख्यात्मक राष्ट्रात्मक नुकसान हुआ है। इसलिये इच्छा होने पर शुद्धिकरण नीति कैसी आवश्यक है यह समझाया- बजाजी पुन: हिन्दु बन गया। उसको समाज में प्रतिष्ठा दिलाने के लिये शिवबा की पुत्री सखुबाई का विवाह बजाजी पुत्र के साथ करवाया। शुद्धिकरण की प्रक्रिया को प्रतिष्ठा देने के लिये जिजामाता ने यह एक अति साहसी, क्रांतीकारी कदम उठाया।
इसका परिणाम बहुत ही दूरगामी हुआ। मुस्लिमोंको भी धक्का लगा। हिन्दु समाज की मानसिकता बदली  परंतु बाद के काल में शासनकर्ताओं को समाज नेताओंको यह भान नहीं रहा और मस्तानी का पुत्र समशेर बहादूर को मुस्लिम ही रहना पडा।  जिजामाता का अभिनंदन इसलिये अधिक करना चाहिये की एक स्त्री ने यह राष्ट्र हितके लिये सामाजिक क्रांति करायी। स्वराज्य के मंत्रिमंडल के कामों में शुद्धिकरण का एक स्वतंत्र विभाग बनाया। मेधातिथी तथा देवल  ऋषि के ५०० साल बाद स्वधर्में लोटने का मार्ग खुला करनेवाली, अलौकिक दृष्टि वाली एक महिला थी यह अभिमानास्पद था। नेताजी पालकर, पिलाजी तथा बाजी प्रभू देशपांडे का घर वापसी उदाहरण प्रसिद्ध है। केवल हिन्दु धर्म में वापस लाने तक बात सीमित नहीं थी। परंतु धार्मिक अत्याचार करके धर्मांतरण करने वालों को कठोर दंड शिव छत्रपति देते थ। गोवा के पोर्तुगीज लोगोंने धर्मांतरित हिन्दुओं को वापस देने को नकारने पर पोर्तुगीजों का शिरच्छेद किया। गवर्नरको घबराकर अपना आज्ञापत्र वापस लेना पडा। आज भारत के अनेक भागों में जबरदस्ती से धर्मांतरण और उत्पीडन हो रहा है। काश! स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों ने शिवचरित्र पढा होता। स्वा. सावरकर ‘छ: स्वर्णिम पृष्ठों में लिखते है..
मुस्लिम धर्म में गये हिन्दुओं को वापस लानाधर्म विरूद्ध है। इस हिन्दु धर्मीयों की धारणा के कारण मुस्लिमों को इस्लामी धर्म के संरक्षण के लिये कुछ भी चिन्ता करनेका कारण नहीं रहा। उनकी एकमेव चिन्ता थी की अपना धार्मिक आक्रमण लगातार बढाकर हिन्दुओं के पास  राजसत्ता आयी तो भी इस्लामी धर्म सत्ता की कक्षा भारत भर फैलान के  भगीरथ प्रयत्न चलाना है।
जिजामाता कार्य को और एक प्रशस्तीपत्र
अफझल खान अतुलित बलशाली, हिन्दु द्वेष्टा सरदार था। उसको मारकर शिवाजी,जिजामाता को मिलने राजगढ गयें, तब उन्होंने कहां, ‘संभाजी का बदला लिया,पराक्रम की शर्थ की मेरी आखें तृप्त हो गयी। भगवान की कृपा से यहस्वर्ण दिन आया है। अफझल खान वध से हिन्दुओं की शक्ति और मुस्लिम भयव्याप्त हुए।
सिद्दी जौहरने पन्हालगढ को घेर लिया था। दूसरी और से शाहिस्तेखान आक्रमण कर रहा था। कोई सेनापति नहीं था। फिर भी मराठी सेना ने वृकयुद्ध के सहारे छापे मारे। पन्हाळगढ का घेरा इतना पक्का था कि चींटी  भी घुस नहीं सकती थी। सिद्दी जौहर पर बाहर से आक्रमण करने से ठीक होगा ऐसा शिव छत्रपती सोच रहे थे। अपना पुत्र इस प्रकार फंस गया है यह देखकर जिजामाता स्वयं हाथ में शस्त्र लेकर सिद्ध हुई। नेताजी पालकर ने उनको रोका। शिवबा बहोत चतुराई से पन्हालगढ से निकल गये। माँ बेटे की भेट हुई इसका शब्दों में वर्णन करना असंभव है।
१६४२ से शहाजी राजे, जिजामाता की भेट नहीं हुई थी। स्वयं को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये पति विरह के दावानल में झोंककर उनकी तपस्या चल रही थी। १६६१ में शहाजी राजे महाराष्ट्र में आये। स्वराज्य प्राप्ति का जिजाबाई को सौंपा हुआ कार्य पुत्र के द्वारा सफल हुआ देखकर अनको बहोत आनंद  हुआ। परंतु वापस जाने के लिये वे मजबूर थे। तीन वर्ष बाद उनकी अपघाती मृत्यू हो गई। जिजाबाई सती जाना चाहती थी। परंतु शिवबा ने ने उनको रोका। स्वराज्य स्थापना के  कार्य में उन्होंने अपरंपार संकट झेले थे। परंतु शहाजी राजा का दु:ख जबरदस्त था। फिर भी खवास खान के आक्रमण का समाचार मिलते ही मंगलोर की ओर नौदल मोर्चे में व्यस्त शिवबा को उन्होंने पत्र लिखकर सचेत किया और उसका पराभव करने की सूचना दी। ‘हमारी मनोकामना पूर्ण करनेवाले सुपुत्र आप है।’ ऐसी आशा प्रकट की। विश्वासघातकी बाजी घोरपडे को और सावंत उनको भी छोडना नहीं था। राज्यकर्ता में कितना स्वाभिमान व चतुरस्त्रता चाहिए इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। १६६५ में  अपनी दिव्यचरिता मातोश्री की सुवर्णतुला शिवबा ने सूर्यग्रहण के समय की और वह सारा सुवर्ण दान कर दिया।
शिवाजी हर संकट के बाद अधिक बलशाली होता है यह देखकर औरंगजेब ने और एक चाल चली। जयसिंह और दिलेर खान को संयुक्त मोर्चे की आज्ञा दी। जयसिंह एक नैष्ठिक हिन्दु कहलाता था। वह दुसरे क हिन्दु को - जो हिन्वी स्वराज्य स्थापना के लिये कृतसंकल्प था। उसको  नामोहरम करनें में तैय्यार हुआ। शिवबा तो तह करना पडा। जब वह औरंगजेब से मिलने आग्रा गया तब उसको औरंगजेब ने कैद किया। औरंगजेब की कैद से शिवबा कैसे बाहर निकले यह सब जानते है। परंतु वे जब वापस आकर माँ को मिले तब जिजामाता को कितना आनंद हुआ होगा। आगरा में शेर की घुफा में जाना, प्राण बचाकर आना यह योजना अद्भूत थी । उसमें जिजामाता भी सहभागी थी।
प्रथम विवाह कोंडाणा का
जिजामाता स्वराज्य की प्रेरणा सभी में कितनी बलिष्ठ निर्माण की थी यह तानाजी मालुसरे कोंडाणा लेने के लिये अपने पुत्र का विवाह छोडकर जाते है इससे सिद्ध होता है।  परंतु धीरे धीरे जिजामाता ने अपना निवास पाचाड में किया। राज्यव्यवस्था से अपना मन हटाकर वे ईश्वरभक्ति में समय व्यतीत करने लगी। अब उनका पुत्र सक्षमता से राज्य संभाल रहा था। स्वप्न साकार हो रहा था।
स्वप्न साकार हुआ
अब जिजामाता की  एक ही इच्छा थी, ऐसे दिग्विजयी पुत्र का राज्याभिषेक देखने की। वह भी समारोह अत्यंत गरिमामय रीती से संपन्न हुआ। जिजामाता का जीवन कृतार्थ हुआ। इसी दिन के लिये जीवनभर उन्होंने प्रयास किये थे। वह उनके बेटे का राज्याभिषेक ही नही था। अपितु हिन्दु अस्मिता सिंहासनाधिष्ठित हो रही थी। हिन्दु शब्द उच्चारने के लिये थर्राने वाले हिन्दु का स्वत्व, स्वाभिमान आज गर्व से सिंहासन पर अभिषिक्त होने वाला था। यह हो ऐसी ईश्वर की इच्छा थी। क्योंकी यह ईश्वरीय देश है।  ईश्वरी इच्छापूर्ती का साधन बनने की कृतकृत्यता उसमें थी। यह समारोह देखने के बाद अपना जीवित कार्य पूर्ण हो गया है, यह शरीर छोडना चाहिए ऐसा उन्होंने सोचा और केवल दो सप्ताह के अंदर सचमुच वह चल बसी। इतने वर्ष अत्यंत ममता से लालन-पालन किया हुआ अपना पुत्र तथा स्वराज्य जनता को सौंपकर उन्होंने शरीर का मोह छोड दिया।

पुस्तक -जिजाऊ मातृत्व का महान मंगल आदर्श - सेविका प्रकाशन


धन्य जिजाई
स्वयं झुका है जिसके आगे हर क्षण भाग्य विधाता।
धन्य धन्य है धन्य जिजाई ,जगत वंद्य माता ।।धृ ।।
जाधव कन्या स्वाभिमानिनी क्षत्रिय कुल वनिता।
शाह पुत्र शिवराज जननी तू अतुलनीय माता। ।
माँ भवानी अराध्य शक्ति से तुझको बल मिलता।।१।।
राज्य हिन्दवी स्वप्न युगों का
अश्व टाप शिव सैन्य, काँपती मुगल सलतनत मन में ।
अमर हो गई तव वचनों हित सिंहगढ की गाथा ।।२।।
हर हर, हर-हर महादेव हर घोष गगन गुंजा।
महापाप तरू अफझलखां पर प्रलयंकर टूटा।
मूर्तिभंजन अरिशोणित से मातृचरण धुलता ।।३।।
छत्रपति का छत्र देखकर तृप्त हुआ तनमन ।
दिव्य देह के स्पर्श मात्र से सार्थ हुआ चंदन।
प्रेरक शक्ति बनी हर मन की जीवन जनसरिता  ।।४।।


देवी अहल्याबाई होलकर


$img_titleकर्तृत्व का महामेरू

राष्ट्र सेविका समिती ने प्रारंभकाल से ही देवी अहल्याबाई को कर्तृत्व के आदर्श रूप में माना है। गंगाजल के समान शुद्ध, पुण्यश्लोक, देवी अहल्याबाई अपने इतिहास का एक सुवर्णपृष्ठ है। देवी अहल्याबाई के प्रति अपने जनसामान्योंकी श्रद्धा, आदर तथा अपनेपन की भावनाओं को प्रतिबिम्बित करनेवाली एक लोककथा बतायी जाती है।
लोकमाता अहल्याबाई
वर्षा ऋतु में नर्मदा उफनती हुई बह रही थी। उसकी लहरे होलकर जी के राजगृह की दीवारोंसे टकरा रही थी। गांजा के नशें में धुत कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे। अचानक उन लोगोंमें से एक उठकर अपने हाथोंसे दीवार को सहारा देता हुआ खडा हो गया। अन्य साथी भी उसके बुलानें पर हाथों से दीवार को सहारा देने लगे। वहां खडे अन्य लोगोंने जब पुछा कि वे इस प्रकार क्यों खडे है, तब उत्तर आया, ‘क्या इतना भी नही समझते हो? अरे, अपनी माताश्री अंदर है। आओ, तुम लोग भी आ कर माँ को बचाने के काम में जुट जाओ।’
नशें में बेहोश व्यक्ति भी अहल्याबाई की सुरक्षा के बारें में कितना सजग है यह देखकर ऐतिहासिक सत्यासत्यता के अतिरिक्त जनमानस की भावना का दर्शन होता है।
व्यक्तिगत जीवन
देवी अहल्याबाई का जन्म जन्म इ. १७२५ में वर्तमान अहमदनगर जिले के जामखेड तहसील के चौडी नामक छोटे से ग्राम में हुआ। माणकोजी शिंदे की यह कन्या १२ साल की हुई। एक बार पेशवे महाराज ने शिव मंदिर में शिवजी के पूजा में लीन अहल्या को देखा । उन्होंने मल्लरराव से इस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने को कहां और २० में १७७३ इस शुभ दिन अहल्याबाई का विवाह खंडेराव के साथ संपन्न हुआ। वैभवसंपन्न होलकर कुल में गुण संपन्न अहल्याबाई ने पदार्पण किया। ऐसा ही मानसिक अवस्था में वह सन १७४५ में पुत्र मालेराव एवं सन १७४८ में कन्या मुक्ताबाई की माता बनी। पुत्र की दुराचारी वृत्ति से व्यथित सुभेदार मल्हरराव ने अहल्याबाई की योग्यता को परखते हुए उन पर कारोबार का अधिकाधिक दायित्व सौंपना शुरू किया।
अग्निपरीक्षा के क्षण
दि. २४ मार्च १७५४ में कुंभेरी की लडाई में खंडेराव की मृत्यू हुई। मल्हरराव के आग्रह पर अहल्याबाई ने सती होने का निश्चय बदलकर प्रजजनों की माता बनाना श्रेष्ठ माना। अहल्याबाई राजनीति का एक-एक पाठ मल्हरराव से ग्रहण कर पति के चिरवियोग का दु:ख कम करने का प्रयास कर रहीं थी। तभी सन १७६१ में उनको माँ की ममता देनेवाली उनकी सांस गौतमाबाई का स्वर्ग वास हुआ। और तीन साल के बाद ही सन १७६४ में उनके गुरू, मार्गदर्शक पितृसदृश आधारस्थान मल्हरराव की मृत्यू हो गई।
अब शासन का संपूर्ण दायित्व अहल्याबाई पर आया। उनका पुत्र मालेराव अपने दादजी जैसा दूरदर्शी राजनीति कुशल नहीं था। राजकार्य से भी उसे अधिक रूचि थी। जंगली जानवरों का शिकार खेलने में रूचि थी। पूजापाठ के लिये आनेवाले पंडितों कोजूतों में तथा दान पात्रोंमें बिच्छू इ. रखना और उनके दंश से पीडित पंडितों की  चीखें सुननें में उसे असुरी आनंद मिलता था। इन हरकतों को धेखकर तथा एक दर्जी के दुवर्तन से आशांकित मालेराव ने उसकी क्रुरता से की हुई हत्या से व्यथित अहल्याबाई ने अपने पुत्र को माहेश्वर में स्थानबद्ध किया। वहाँ पर ही उसकी मृत्यू हो गई।
देवी अहल्याबाई की कन्या मुक्ताबाई का पति यशवंत फणसे, एक होनहार युवक था। मुक्ताबाई का पुत्र जो जन्म से ही कुछ दुर्बल था, उसकी मृत्यु हुई। उनकी उत्तराधिकारी बनाने का देवी अहल्याबाई का सपना टूट गया। यशवंतराव इस सदमे को सह नहीं सका। उससे वो बीमार हो गये। तीन साल के अंदर ही वह भी अपने पुत्र के रासते चल पडें। मुक्ताबाई ने पति के साथ सती होने का निश्चंय किया। अहल्याबाई अपनी कन्या को इस निश्चय से परावृत्त नहीं कर पायी। देवी तीन दिकतक अपने कक्ष से बाहर नहीं आयी। नियती को अपनी विजय का आभास हुआ। परंतु लोकमाता अपनी भूमिका नहीं भूल सकी। अहल्याबाई ने राजकर्तव्य क कठरो;तापूर्वक पालन करते हुए मन:शांति एवं आत्मिक बल के लिये धर्मकृत्य में समय बिताती रही।
सदैव प्रतिकूल परिस्थितीयों और दुर्भाग्य से संघर्ष करने के कारण शरीर क्षीण होता गया। दि. १३ अगस्त १७९५ श्रावण ९भाद्रपद० कृष्ण चतुर्दशी का दिन. गंगाजल सम निर्मल जीवन प्रवाह अखंड शिवनाम स्मरण करते हुये शिवप्रवाह में विलीन हुआ।
श्रेष्ठ प्रशासक
देवी अहल्याबाई ने संस्थशन का कार्यभार संभाला। तब अनेक संकट उनके सामने थे। राज्य का पुराना अधिकारी गंगाधर चंद्रचूड राघोबादादा के सहयोग से बडी सेना लेकर इंदौर आ धमके। अहल्याबाई ने अपनी सेना के महिला पथ को सतर्क किया। और राघोबाको कहाँ, ‘मेरे पुरखोंनेअपने परिश्रम और पराक्रम से यह राज्य प्राप्त कियाहै। आक्रमण करने वालोंको मूंहतोड उत्तर दिया जाएगा। ‘अहल्याबाई ने पत्र भेजा कि, मेरी महिला सेना पर आपने विजय प्राप्त तो की तो भी आपको कोई बड्डपन नहीं मिलेगा। परंतु उल्टा हुआ तो आपकी हंसी उडाई जायेगी। इसका विचार करकेही आप युद्ध के लिये आगे बढे|’
राघोबा दादा हालात को समझ गयें उन्होंने देवी अहल्याबाई को संदेश भेजा। ‘मै आपसे लडाई नही अपितु आपके उकलौते पुत्र की मृत्यू परशोक प्रकट करने आया हूँ|’ अहल्याबाई ने प्रत्युत्तर भेजा। ‘शोक प्रकट करने के लिये इतनी बडी सेना का क्या काम? आप अकेले पधारे, घर आपका है। आपका स्वागत है|’ राघोबा बाजी हार गये। पालकी में बैठकर आयें। इस तरह से देवी ने राज्य को युद्ध के संकट से बचाया।
नारो गणेश नाम के अधिकारी की प्रमाणिकता पर देवी अहल्याबाई को संदेह था। इसलिये उस बंदी बनाया। तुकडोजी होलकर ने देवी अहल्याबाई को पुछे बिना ही उसे  रिहा कर दिया और पूर्व पद पर बिठा दिया। लेकिन अहल्याबाई अपने प्रशासन में यह परिवर्तन सहन नहीं करेगी इस भय से वह बहोत बेचैन हुआ। इसलिये महादजी शिंदे के पास जाकर अहल्याबाई को समझाने की प्रार्थना की। महादजी ने कहां, ‘श्रीमंत पेशवे, मुगल, भोसले इनमें किसी को कुछ समझाना है तो समझा सकता हूँ। किन्तु अहल्याबाई के बारें में यह असंभव है। क्योंकि वह बहुत सोच समझकर निर्णय लेती है अत: उसे बदलना कठिन है।
देवी अहल्याबाई के प्रशासन को दिया गया यह एक मौलिक प्रमाणपत्र  ही है।
सेनापति तुकोजी, सेना के व्य के लिये धन की माँग करता था। उसके बारें में सेना खर्च के लिये राज्य कोष पर निर्भर नही रहना चाहिए ऐसी स्पष्ट विचारधारा थी।  आवश्यक मात्रा में धन जरूर देती थी। परंतु पहले दिये गये धन का पुरा हिसाब प्राप्त होने के उपरान्त ही अगले किश्त देने की उनकी नीति थी।
वीरता का परिचय
देवी अहल्याबाई ने बार बार अपने अधिकारी नही बदले। परंतु किसी का एकाधिकार न हो इसके संदर्भ में वो सतर्क रहती थी। सेना में भर्ती के बारे में वो ध्यान देती थी। कर्नल बॉयड इंदौर में रहकर संस्थान की सेना को प्रामाणिकता से प्रशिक्षित करने के लिये लिखित रूप से वचनबद्ध था। अपराधी चाहे कितना भी बडा हो, इसकी गलती माफ नहीं की जाती थी। निर्धारित राशी से अधिक धन किसीसे नहीं लिया जोता था। देवी अहल्याबाई ने बार- बार युद्ध नही किया। एक बार चंद्रावत से युद्ध उसने होलकर शासन से किये हुए विद्रोह के कारण हुआ। अहल्याबाई को सामान्य महिला समझकर उन्होंने बडी भूल की। अहल्याबाई ने सेनानि शरीफभाई को बडी सेना के साथ भेजा और स्वयं युद्ध का संचालन किया। होलकर सेना की विजय हुई। सौभाग्य सिंह को तोफ के मूँह बाँधकर उडा दिया। उससे सारे देवी के शरण में आये।
न्याय व्यवस्था
देवी अहल्याबाई की निष्पक्ष न्याय व्यवस्था निश्चित ही अनुकरणीय एवं अभिमानास्पद है। महत्पुर के राजमूतोंने अपनी शिकयत प्रस्तुत करने पर देवी अहल्याबाई ने संबंधित कर्मचारियों को बुलाया और ११ सूत्रीय पत्रक दिया जो उनकी न्यायबुद्धि का द्योतक है।
रघुनाथसिंह निवाडी नामक एक रसोइयां के मरने के बाद वह निपुत्रिक ही थश ऐसे समझकर उसकी ४२६ रू. ३ आने ६ पाई की संपत्ती राजकोष में जमा कर दी गई। परंतु उनका एक पुत्र है। ऐसा पता चलने पर वह राशि तुरंत उस पुत्र को वापस देने को आदेश नदे दिया।
उनके राज्य में न्याय पाना बहोत ही सरल था। नागरिकों की उकने न्याय पर इतनी श्रद्धा थी कि उनकी आज्ञा न मानना वे पाप समझतो थे। श्रीमंत पेशवे द्वारा भी अगर किसीपर अन्याय हुआ तो देवी स्वयं उनसे बात करके न्याय दिलवा देती थी।
लुटेरे भील बने शूर सैनिक
उन दिनों भीलोंका उपद्रव बढा था। उनको कुछ सामंतो का आश्रय था। देवी अहल्याबाई ने उनके मुखिया को दरबार में बुलाया और लुटमार करके यात्रियों को परेशान करके का कारण पुछा-‘सीधे रास्ते से जीने का कोई साधन न होने के कारण यात्रियों को लुटना पडता है। ‘यह जवाब सुनकर उन्हें शस्त्र, वेतन और इज्जत देने की इच्छा देवी अहल्याबाई ने प्रकट की औरभीलों पर यात्रियों की सुरक्षाकी जिम्मेदारी सौंपी गयी। यात्रियों से एक कौंडी करके रूप में लेने की व्यवस्था शुरू की गयी, जो ‘भील कौंडी’ नाम से प्रसिद्ध है।
डाक व्यवस्था
इसवी १७८३ मेंअहल्याबाई ने महेश्वर से पुणे तक डक व्यवस्था चलाने का दायित्व पद्मसी नेन्सी नामक कंपनी को सौपा था। डाक लाने-ले जाने के लिये २० जोडियां थी। डाक पहुँचने में विलंब होने पर प्रतिदिन उत्तरोत्तर देर राशि में कटौती होती थी। कुछ हानि होने पर कंपनी से क्षतिपूर्ति ली जाती थी।
अपमानों का चिन्ह मिटाया
तीर्थयात्रा करते समय देवी अहल्याबाई ने जब भग्न मंदिरोंके अवशेष देखे तो उनका मन पीडा से व्यथित हुआ। इन मंदिरोंमें फिर से पूजन, धार्मिक ग्रंथों का पठन हो इसलिये योजना बनाई। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से बद्री नारायण से लेकर रामेश्वर तक व द्वारका से लेकर भुवनेश्वर तक अनेक मंदिरो का पुन:निर्माण किया। धर्मस्थल शासनावलंबी न हो स्वावलंबी हो इसलिये उन्होंने उनको भूखंड दान दिये। इस प्रकार के धार्मिक कार्य के लिये संपूर्ण व्यय देवी अहल्याबाई ने अपनी व्यक्तिगत संपत्ती से ही किया। व्यक्तिगत संपत्ती का हिसाब के समान रखती थी। व्यक्तिगत धर्म से अधिक महत्व राष्ट्र धर्म को देती थी। उन्होंने धर्म धर्म क्षेत्र को राजाश्रय दिया। परंतु राष्ट्रीय स्वरूप भी प्रदान किया। राजनीतिक प्रदेश भिन्न होंगे परंतु उनको सांस्कृतिक एकात्म रूप दिया अहल्याबाईने। उनके मानव धर्म का लाभ पशु-पक्षियों को भी मिला। अनेक विद्वान अभ्यासकोंको राजाश्रय दिया। गंगाजल की कावड निर्धारित स्थान पर और निर्धारित समय पर पहुँचाने की व्यवस्था स्थायी रूप से की है। बुनकर उद्योग को प्रोत्साहन स्वरूप अन्न, वस्त्र, निवारा, उद्योग के लिये धन एवं तैयार कपडे बेचने की वयवस्था की। महेश्वर को राजधानी बनाते समय वहाँके ग्रामजनों का पूर्ण सहयोग लिया। अपनी राजधानी सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बनाने के पयास किये। राजकीय व धार्मिक दृष्टि से देवी अहल्याबाई का जीवन बेजोड था।
जयजयतु अहल्यामाता
हे कर्मयोगिनी । जयतु अहल्यामाता। जयजयतु अहल्यामाता ।
युगो युगों तक अमर रहेगी यशकीर्ति की गाथा। जय जयतु अहल्या माता  ।।धृ।।

दीप ज्योतिसम तिल तिल जलकर, स्वार्थ भावना परे त्यागकर
पूज्य बन सकी सतत प्रवाहित, उज्जवल जीवन सरिता ।।१।।

कर्म भविष्य की प्रबल धारणा, कभी किसी से की न याचना
यज्ञ रूप जीवन ज्वाला में प्रखर हुई तब आभा ।। २।।

जीवन भर स्वजनों का सह दु:ख, कर्तव्यों से हुई न परमुख
नीलकंठ सम गरल पानकर क्षण-क्षण जीवन बीता ।।३।।

अन्न क्षेत्र धर्मात्म चलायें मंदिर घाट कुएँ खुदवाएँ
परार्थ- सुख जीवन को सार्थक दिव्य चरित्र की गाथा ।।४।।


नेतृत्व की तेजस्वी ज्योति - रानी लक्ष्मीबाई



$img_title१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम को अपने नेतृत्व से नया आयाम देनेवाली साहसी, शूर युवती का चरित्र नित्य प्रेरणा देनेवाला है। उनकी तेजस्विता स्वदेशाभिमान, स्वातंत्र्य प्रेम अभूतपूर्व था।
उनका जन्म वाराणसी में कार्तिक कृ. १४ नवम्बर १८३५ को हुआ। मोरोपंत तांबे तथा भागिरथी की यह कन्या का मनकर्णिका मनु छबेली नाम से परिचित थी। ब्रह्मावर्त में दुसरे बाजीराव पेशवा के आश्रय से तांबे परिवार रहता था। बाजीराव के पुत्र रावसाहब और नानासाहब के साथ मनु की भी शिक्षा प्रारंभ हुई। पेशवा ओंके सान्निध्य से उनके मन में स्वतंत्रता का स्फुल्लिंग सुलग उठा। उसकी ही प्रलयंकार ज्वालांएँ १८५७ में प्रकट हुई।
तेजस्वी बाल्यकाल
मनु के बालजीवन की एक दो घटनांएं प्रसिद्ध है। वह छोटी थी तब उसको गंगा माता के किनारे जाकर बैठने की आदत थी। ऐसे ही एक दिन घांट पर नदी प्रवाह में पैर डालकर वह बैठी थी तब दो- चार अंग्रेजी सिपाही आये और घाटों पर बैठनेवाले सभी को हटाने लगे और ‘मॅडम आ रही है उठो, हटों ‘का शोर मचा। सभी लोग डर के मारे भागने लगे परंतु मनु वैसे ही बैठी रही। ऐसा देखकर सिपाही गुस्सा हो गये। छोटी सी मनु निर्भयता से उनको पुछती है। कौन आ रहा है? सबको क्यूँ हटा रहे हो? ‘जब पता चला की कोई अंग्रच अधिकारी की पत्नी आ रही है तो मनुने कहां, ‘वह कौन होती है हमें हटानेवाली? गंगामैय्या हमारी है। हम नहीं हटेंगे।’ वे जबरदस्ती से हटाने लगे तो वह चिल्लाकर प्रतिकार करती रहीं। नानासाहब और रावसाहब घुडसवारी का अभ्यास कर रहें थे तब घोडा एकबार बेकाबू हो गया। और नाना साहब गिर गये। मनु ने यह देखा तो वह जोर से हंस पडी। नानासाहब को बहोत गुस्सा आया। नोकर उनको उठाकर ले गये। दुसरे दिन मनु उन्हें देखने गई। नाना साहब का गुस्सा उतरा नहीं था। मनु आती हुई देखकर उन्होंने दीवार की ओर मुंह फेर लिया। मनु के पुछने पर उन्होंने बताया कि, ‘हम गिर गये, और तुम हस रहीं थी? अगर तुम गिर जाती तो? ‘मनु अबतक मजाकी मानसिकता में थी। अब गंभीर होकर बोली, ‘एक तो मै घोडे पर ऐसी पकड रखूंगी की घोडा बेकाबू होकर मै कभी गिरूंगी नहीं और यदा कदा गिरूंगी तो रोऊँगी नहीं। जो कुछ होगा धैर्य से सह लूँगी’ मनु की नियती ही मानो बोल रहीं थी।
राज परिवार के होने का कारण नाना साहब राव साहब हाथी पर बैठ रहे थे। छोटी मनु के मन में भी हाथी पर बैठने की इच्छा हो रही थी तब उसको कहां गया, ‘तुम तो आश्रित की बेटी हो, राजवंश के लोग ही हाथी पर बैठते है। ‘मनु को घोर अपमान महसूस हुआ। उसने कहां कि आप भी देखेंगे की मेरे दरवाजें पर ४-४ हाथी झूलेंगे। और सचमुच मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर पंत नेवालकर से हुआ। हाथी पर बैठकर रानी की शांन सेही उन्होंने झांसी में प्रवेश किया। तुरंत उसने एक हाथी बहोत सजाधजाकर ब्रह्मावर्त में भेट रूप भेज दिया। ऐसी है यह मानिनी।
नेवालकर पूर्व इतिहास
गंगाधर पंत के पूर्वज रघुनाथराव इ. स. १७७० में झांसी के सूबेदार बने। उनके भाई शिवराम भाऊ १७७१ में सूबेदार बने। बसई समझौते के पश्चात १८०४ में अंग्रेजी और शिवराम भाऊ में समझौता हुआ उसके अनुसार झांसी का राज्यवंश परंपरागत शिवरामभाऊ के वंशजों को ही मिलेगा ऐसा तय हुआ। शिवरामभाऊ के पुत्र गंगाधर राव इ.स. १८४२ में झांसी के अधिपति बने। ३० लाख रू. आमदनीवाला हिस्सा अंग्रजों ने झांसी में व्यवस्था हेतु रखी अपनी सेना की व्यवस्था के लिये रख लिया।
वैभव संपन्नता
गंगाधर राव के राज्य में शासन तथा न्याय की उत्तम व्यवस्था थी। ठाकुर, बुंदेले का विद्रोह उन्होंने दबाया। परंतु वे रसिक, कलाप्रेमी थे। कलाकारों को आश्रय देते थे। उनका महालक्ष्मी का मंदिर जगमगाता था। उनके पास ९२ हाथी, १०० घोडे ,५०० घुडसंवार और ५००० पदाति थे। स्थान-स्थान पर बगीचे, तालाब नाट्यगृह थे।
ऐसे सुंदर, वैभव संपन्न राज्य की स्वामिनी मनु बनी थी। गंगाधर राव को पुत्र नहीं था। पत्नी का स्वर्गवास हुआ था। कला सक्त राजा को संभालने वाली रानी आयेगी तो वह झांसी को बचायेगी। अंग्रजों की आखें इस राज्य पर गडी थी। मनु जैसी दृढ निश्चयी , देशप्रेमी युवती उनसे टक्कर ले सकती है। इस राजनीतिक उद्देश्य से यह विवाह हुआ ऐसे माना जाता है।
१८४२ में गंगाधर पंत और मनु का विवाह हुआ। दोनों की आयु में अंतर था। १८५१ में लक्ष्मीबाई को पुत्र हुआ परंतु वह अल्पायु रहा। इस आघात से गंगाधर राव का स्वास्थ्य गिरने लगा। राजवैद्या की दवाइयां व रानी लक्ष्मीबाई की सेवा का विशेष उपयोग नहीं हो रहा था। अत: एक बालक गोद लेने का निर्णय किया। गोद लिये हुए बालक का नाम दामोदर रखा गया। इस समारोह में झाँसी राज्य के पॉलीटिकल एजेंट एलिस, सेना का प्रमुख अधिकारी मेजर मार्टिन मोरोपंत आदि लोग उपस्थित थे। कंनी सरकार को दत्तक विधान की स्वीकृती देने हेतु आवेदन पत्र गंगाधर राव ने भेजा। समय-समय पर अंग्रेजी को दी हुई सहायता एवं उनके साथ किये हुए संधी की ९ वी शर्त का स्मरण दिलाया गया।
झांसी अनाथ हुई
आखिर गंगाधर राव का शरीर दि. २० नवंबर १८५३ को शांत हुआ। झांसी शहर शोक सागर में डूब गया। लक्ष्मीबाई पर कुटराघात हुआ। मेजर मार्टिन और एलिस ने सांत्वनापत्र भेजा परंतु उसी समय उन्होंने राज्य का खजाना मुहरबंद किया। शिंदे की ६वी टुकडीको उसके संरक्षण का दायित्व दिया। श्री. गंगाधर राव के पत्र का उत्तर नहीं आने पर लक्ष्मीबाई ने १९ फरवरी १८५४ को गवर्नर जनरलके पास पुन: आवेदन पत्र भेजा।
विस्तारवादी नीति
लॉर्ड डलहौसी की नीति थी कि किसी का भी दत्तक विधान मंजूर नहीं करनाऔर वह राज्य कंपनी राज्य से जोडना तथा अंग्रेजी राय का विस्तार करना। अत: रानी लक्ष्मीबाई के पत्र का एकही उत्तर आनेवाला था आया भी। झांसी का राज्य अंग्रजी राज्य में विलीन करो। ‘दत्तक विधान को मान्यता नहीं दे सकते। ‘एलिस यह पत्र लेकर रानी लक्ष्मीबाई के दरबार में पहुँचा। तब सिहनी जैसी गरजकर वो बोली, ‘ मै मेरी झांसी नहीं दूंगी। ‘एलिस को ऐसी अपेक्षा नहीं थी। अपनी भुमि, अपने राज्य विदेशियों को सौंपकर गुलाम बनना स्वीकार करना रानी के लिये असंभव था। परंतु अंग्रेजी बलशाली थे। उनकी हडपनीति के शिकार झांसी जैसे पंजाब, सातारा,  नागपूर, अयोध्या,  आदि अनेक राज्य थे।
महारानी लक्ष्मीबाई ने राजनीति के तहत अपना गुस्सा पी लिया और प्रतिशोध का अवसर खोजती रहीं। जांसी आते ही युद्धकाल का अपना शौक पति को बताकर महिला पथक तैय्यार करवाये थे। उसने कभी गहनें की वस्त्र की चाह नहीं रखी। इसका गंगाधरराव को आश्चर्य लगता था। उन दिनों में महिलाओं को घर से बाहर मैदान में आना समाज को पान्य नहीं था। परंतु रानी लक्ष्मीबाई ने अपना शौक पूरा करने के लिये पति को मना लिया। उसका अब उपयोग होगा यह सोचकर रानी ने अपने व्यक्तिगत आपत्ती के कारण शोक में न डूबते हुए महिला सैनिकों का अभ्यास चलता रहे यह देखा।
विस्फोट की ज्वालाएं
७ मार्च १८५४ को झांसी राज्य की स्वतंत्रता पूरी तरह समाप्त हुई। अंग्रेजों की सत्ता आकर १०० साल पूरे होनेवाले थे। अंग्रेजों के अत्याचार बढते ही जा रहें थे। अपनी भारत माता का धीरे-धीरे गुलामी की शिकंजे में फसाने का उनका कुटिल षडयंत्र सभी के ध्यान में आया था। विदोह की ज्वाला भीतर ही सुलग रहीं थी। ३१ मई सार्वत्रिक विद्रोह एक साथ करने की योजना में अनेक लोग सम्मिलित हो रहे थे। रोटी और कमलपुष्प का संकेत चिन्ह था। परंतु अचानक १० मई १८५७ को विस्फोट हुआ मेरठ की छावनी में बंदूक की गोलियों को गाय या सुअर की चरबी लगायी जाती है वह मूंह से खोलना पडता था। यह धर्मविरूद्ध आचरण का पाप हम कर रहें है, ऐसी भावना फैलती गयी। सैनिक जब बाजार में जाते थे। तब महिलायें उन्हें चिढाती थी या कभी चूडियाँ भेट करती थी। चरबी की घटना के कारण छावनी में क्षोभ फैलाव १० मई को मंगल पांडे ने विद्रोह कर दिया उसको तोप से उडाया गया। अन्य ९० सैनिकों को १० साल के लिये कारावास में भेजा गया। इस घटना ने तो आग में घी डाल दिया। अंग्रेज अधिकारियों की हत्या करना, उनके बंगलों को आग लगाना, कारागृह तोडना आदि का सिलसिला चल पडा। सैनिक अपनी छांवनी छोडकर दूसी छावनीयों में जाकर वहां विद्रोह की ज्वाला जलानें में लगे। ४ जून १८५७ को झांसी सेना की ७ वी टुकडी झांसी के किलें में प्रवेश कर अपना अधिकार जमा लिया। गोरे अधिकारी गोलियों से भूने जाने लगे। उन्होंने किले में आश्रय लिया। क्रांतिकारी वहां भी पहुँचे। वहां भी गोलियां चली। अंग्रजों ने संधि का निशान फहराया। किला क्रांतिकारियों की घोषणा थी। ‘खुल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अंमल रानी साहिब का’ ८ जून को किला रानी को सौंपकर क्रांतिकारी दिल्ली की ओर बढे।
८ जून १८५७ से ४ अप्रैल १८५८ तक रानी का अत्यंत गौरवशाली कार्यकाल रहा। परंतु उनको घर के शत्रुओंसे ही निपटना पडा। साशिवराव पारोलकर झांसी के राज्य उत्तराधिकारी के नाते खडे और करेरा का किला अधिकार में लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने  सेना की सहायता से वह किला जीत लिया।  ओरछश के दीवान नत्थे खां का आकमण भी रानी ने सफलता पूर्वक लौटाया। उसे युद्ध का खर्चा वसूल किया।
तेजस्वी व्यक्तिमत्वकी धनी
रानी लक्ष्मीबाई अत्यंत तेजस्विनी थी। दरबार में वह अत्यंत आत्मविश्वास से शुभ्र वेश धारण कर या पुरूषी वेश पहन कर फेटा बांधकर आती थी। कुशल रीती से न्याय करना, गुणवंतो का सम्मान करना, निर्भयता धैर्यशीलता, साहस ये  ये उनके कुछ विशेष गुण थे। शूरवीर सैनिकों को भी उदार उदार मन से सहाय्य करती थी। युद्ध में घायाल हुए सैनिकोंकी वह खुद पुछताछ करके मलमपट्टी करती थी। बहोत घायल या मरणोन्मुख सैनिककी अंतिम इच्छा पुछती थी। कुछ सैनिक उनके मातृस्पर्श की अपेक्षा रखते थे। उनके मन में विश्वास थाकी हमारी रानी हमारे परिवार की पूरी चिन्ता करेगी। मातृत्व की झालर होनेवाला जैसा नेतृत्व यहीं हमारी परंपरा है। नेता के बारें में पूर्ण विश्वास यहीं नेता का बल है।
अपने ११ मांस के कार्यकाल में रानी लक्ष्मीबाई ने काफी शस्त्र व बारूद का संग्रह किया। तोपें व बारूदे बनाने के कारखाने भी प्रारंभ किये। दूरदर्शिता के कारण उसने समझ लिया था अग्रेजो से घनघोर युद्ध करना पडेगा। और सच २१ मार्च को ह्यू रोज झांसी में पहुंचा। मार्ग में सागर, वाणपूर,शहागढ,के क्रांतिकारियों पर विजय प्राप्त की थी। ह्यू रोज ने मौके के स्थान पर मोर्चे लगायें। रानी लक्ष्मीबाई के पास शक्तीशाली ८० तोपे थी। खुदाबक्ष और गौसखान ये ये दो अत्यंत एकनिष्ठ तोपची थे। बारूद खाद्य सामुग्री आदि में स्त्रियां भी पीछे नहीं ती।
एक बुंदेला सैनिक ने अंग्रजों का मोर्चा लगाने का मौके का स्थान बताया। रानी साहिबा के निवास स्थान के सामने वाले मैदान पर ही गोल-बारूद का कारखाना थां। वहां एक गोला आकर गिरा। जोरदार धमाका हुआ और अपरिमित हानी हुई
दि. १ अप्रैल को २० हजारकी सेना लेकर सहाय के लिये तात्या टोपे आ रहें थे। उनके सैनिक प्रशिक्षित तो थे नही। रास्ते में उनको घेरकर अंग्रजों ने हमला किया तो उनको भागना पडा। फिर भी अंग्रेज झांसी के किलें में घुंस नहीं पाये। झांसी के नागरिक, हर सैनिक ने प्रतिकार किया। भेदवृत्तीके जयचंद की कुछ कमी नहीं रहती, ऐसा ही एक जयचंद निकला उसने किले का दरवाजा खोल दिया। अंग्रज आसानी से अंदर घुंस गये। रानी चडिका अवतार लेक वहां दौड गई और शत्रु की जोरदार कत्तल करना शुरू किया लेकिन अंग्रेज की संख्या जादा होने के कारण उन्हें लौटना पडा। झांसी के रास्ते रास्ते पर नागरिकों की कत्तल लगातार तीन दिन होती रहीं। शव ही शव बिखरे थे। दुर्गंध सभी और फैल गयी। रानी महाल भी टूट गया। उनका अमूल्य ऐसा ग्रंथ संग्रह भी उध्वस्त किया गया। काफी क्षति पहुंची थी। परंतु वे हमारी बुद्धी तो नहीं जला पायें।
प्रजावत्सल रानी माँ का ह्रदय अपने लोगांकी यह दुर्दशा देखकर द्रवित हुआ। वह अतीव निराश हो गयी। फिर भी सभी से की हुई बात के अनुसार किले से बाहर निकलकर राव साहब की सेना से मिलकर प्रयत्न करने का तय हुआ। इस युद्ध में रानी ने युद्ध का उत्कृष्ट संचालन किया।
सर ह्यू रोज को यह पता चलने पर वह आश्चर्यचकित हुआ। झांसी पे कालपी १३० मील की दूरी २२ घंटो के अंदर काटकर वहीं कोलपी पहुंची। तात्या टोपे ने युद्ध का नेतृत्व किया परंतु यश नहीं मिला। परंतु विचलित न होते हुए रानी ग्वालियर की ओर बढी। परंतु शिंदे साथ नही मिली। युद्ध में सेना की व्यूहरचना बडी ही कुशल थी। उस दिन उनके हाथ में नेतृत्व नहीं था। इस भीषण रन में उनकी सखी सुंदराबाई पर हमला करनेवालोंपर उसने मौत के घाट उतार दिया। महारानी लक्ष्मीबाई पकडकर देनेवालों को २०,००० रु. का इनाम अंग्रज सरकारने रखा था। रणक्षेत्र में ही उनकी प्राणज्योत शांत हुई। गंगादास बाबा ने कुटी में ही उनपर अग्नि संस्कार कर दिये। ‘मै क्या मेरा एक बाल भी अंग्रजों को नही मिलेगा’ यह उनकी प्रतिज्ञा उन्होंने सच कर दिखायीं। वह दिन था दि. १८ जून १८५८ ज्येष्ठ शुद्ध ७
क्रांतियुद्ध में सतत अग्रेसर रहकर हजारों वीरों का स्फूर्ति स्थान होनेवाली रानी लक्ष्मीबाई की युद्धकुशलता किसी पुरूष से कई गुना श्रेष्ठ थी। उनकी तेजस्विता का प्रभाव शत्रु पर ही पडा था। राजमाता के नाते उन्होंने काफी समाज कार्य किया। सामान्य लोगों में वो घुल-मिलकर बातचीत करती थी। उनके सुखदुख पुछती थी। अपनों के लिये ममतामयी माँ होनेवाली यह सुजनता की मूर्ति राष्ट्रीय भावना से प्रेरित हुई थी। हाथ में तलवार लेकर रणरागिणी बनकर बिजली जैसी चमकती थी तब शत्रु थर्रा गये।

अध्ययन हेतु पुस्तके 
१) झांसी की रानी-वृंदावनलाल शर्मा 
२) क्रांतिकथाएँ- श्रीकृष्ण सरल

खड्गधारिणी तुम्हें देत मानवंदना,
शत्रुसंहारिणी तुम्हारी आज अर्चना  ।।धृ।।
 शाम शांत धी मूर्ति तेजोमयि दिव्यकांति
अश्वारूढ देवि क्रान्ति! बार बार वंदना  ।।१।।
स्वाभिमरन दीप्त ज्योति बिजलीसे चंचल गति
वीरों को दे रहीं चंडीमूर्ति चेतना  ।।२।।
बीत गया वत्सरशत युद्धानल सर्व शांत
स्वतंत्र राष्ट्र आज स्मरें तुम्हारी तप: साधना  ।।३।।
राणी लक्ष्मी अमर नाम आर्य नारी का विक्रम
पुण्यरूप लो हमारी नम्र पूज्य भावना  ।।४।। 
जय जय कार करो लक्ष्मी का
जय जयकार, जयजयकार.जय जयकार करो लक्ष्मी का जो रणचंडी अवतार ।।धृ।।
तांबे कुल में जनम लिया, जिन मातुपिता यश फैलाया

रानी बन झांसी में आयी,राजवंश का मान बढाया
सैनिक शिक्षण दे सखियों को, महिला पथक किया तैय्यार ।।१।।
हुआ आक्रमण जब झांसी पर, शासन छोडो बोला गोरा
मेरी झांसी कभी न दूँगी, कडक बिजली काँप उठी घरा
रक्षण करने हिन्दु राष्ट्र का, हुई भवानी तब साकार  ।।२।।
स्वतंत्रता के प्रथम समय की, सेनानी यह वीर शिरोमणि
किया युद्ध का सफल संचलन, सरण में चमकी थी रणलक्ष्मी
दुष्ट दुर्जनोंका महिषासुर का मर्दिनी ने ही किया संहार ।। ३।।
एक बार पुनि आज दुहिते करती माता तुझे स्मरण है
पारतंत्र्य की लोह शृंखला, करने लगी पुन: झन झन है
स्वतंत्रता की ग्योति जलाओ, सुनो हमारी आर्त पुकार  ।। ४।।
                                                                                 संकलित 

नमामो वयं मातृभूः पुण्यभूस्त्वाम्
त्वया वर्धिताः संस्कृतास्त्वत्सुताः
अये वत्सले मग्डले हिन्दुभूमे
स्वयं जीवितान्यर्पयामस्त्वयि ।।१।।

नमो विश्वशक्त्यै नमस्ते नमस्ते
त्वया निर्मितं हिंदुराष्ट्रं महत्
प्रसादात्तवैवात्र सज्जाः समेत्य
समालंबितुं दिव्यमार्गं वयम् ।।२।।

समुन्नामितं येन राष्ट्रं न एतत्
पुरो यस्य नम्रं समग्रं जगत्
तदादर्शयुक्तं पवित्रं सतीत्वम्
प्रियाभ्यः सुताभ्यः प्रयच्छाम्ब ते ।।३।।

समुत्पादयास्मासु शक्किं सुदिव्याम्
दुराचार-दुर्वृत्ति-विध्वंसिनीम्
पिता-पुत्र-भ्रातृंश्च भर्तारमेवम्
सुमार्गं प्रति प्रेरयन्तीमिह ।।४।।

सुशीलाः सुधीराः समर्थाः समेताः
स्वधर्मे स्वमार्गे परं श्रद्धया
वयं भावि-तेजस्वि-राष्ट्रस्य धन्याः
जनन्यो भवेमेति देह्याशिषम् ।।५।।

भारत माता की जय।।







प्रार्थना का हिन्दी में सरल अनुवाद

१) हे मातृभूमे, हे पुण्यभूमे, ये तरी कन्याएं- जिनका संवर्धन और संस्करण तूने किया है – वे तुझे वंदन करती है, हे वत्सले, मंगले, हिन्दुभूमे तेरे लिए हम स्वयं अपना जीवन समर्पण कर रही है।

२) हे विश्वशक्ति, तुझे नमस्कार। इस महान् हिन्दु राष्ट्र का निर्माण तूने किया है। यह तेरी ही कृपा है कि हम इस दिव्य मार्ग का अवलंबन करने के लिए सुसज्जित होकर संगठिम हुई है।

३) जिस सतीत्व ने इस राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाया है जिसके सामने समग्र विश्व नम्र होता है, उस आदर्श, पवित्र सतीत्व को हे अम्बे अपनी प्रिय कन्याओं को प्रदान करो।

४) दुराचार और दुर्वृत्तिओं का विध्वंस करनेवाली दिव्य शक्ति हमे प्रदान करे, तथा पिता, पुत्र, बंधु और पति इन सबको सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाली दिव्य-शक्ति हमें प्रदान-करो।

५) हम सुशील, सुधीर, समर्थ और संगठिम बने, स्वधर्म और स्वमार्ग पर अत्याधिक श्रद्धा करें। हम भावी तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ जननी बन सकें, यह आशीष दो।

समिति की प्रार्थना

राष्ट्र सेविका समिति प्रार्थना भारतीय नारी की आशा आकांक्षाओं की नितांत सुन्दर अभिव्यक्ति है। जीवन के प्रारंभसे ही प्रार्थना करने की मानवीय प्रवृत्ती रही है। जिन जीवनमूल्यों के कारण भारत गौरव शिखारका उच्च स्थान सम्मानपूर्वक प्राप्त कर सका उनको सुरक्षित, अबाधित रखने के लिए समुचित शक्ति (शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मिक) प्राप्त करना आवश्यक है। मानवी प्रयत्नके साथ-साथ दैवी कृपा भी हो तो मणिकांचन योग कहा जायेगा। इसलिये अपने से श्रेष्ठ शक्ति के सम्मुख नम्रतापूर्वक अपनी मनोकामना व्यक्त करने में लाचारी नहीं क्यों कि वह श्रेष्ठ दैवी शक्ति हमारी मनीषा पूर्ण करेगी इसका हमें विश्वास है। अपनत्व का यह नाता शब्दों से प्रगट करना (सर्वथा) असम्भव है।

प्रार्थना का उद्देश्य व्यक्ति विशेष के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है। कोई केवल तपस्या के लिये, कोई शक्ति के प्राप्ती के लिये, तो कोई सुखशांति के लिये प्रार्थना करता है। भक्तिभाव से की हुई प्रार्थना में समर्पणभाव भी रहता है। ऐसी प्रार्थना से व्यक्तिगत जीवनमें सुप्तशक्तियोंका विकास होकर जीवन तेजस्वी होगा ऐसा विश्वास रहता है। सभी धर्मो और पंथो में प्रार्थना का स्वतंत्र स्थान है। अपने इष्टदेवता के सम्मुख मन से अथवा भावूपर्ण शब्दों से उच्चारण करना ही प्रार्थना है। ध्येय का ध्रुवतारा सतत दृष्टि के सामने स्थिर रहने के लिये तथा वहाँ तक हमें पहुँचना ही है, इसका ध्यान रखने के लिये प्रार्थना आवश्यक है।

समिती की प्रार्थना सामूहिक होती है। समाज की आशा आकांक्षाए केन्द्रित होनेपर निर्माण होनेवाली प्रचण्ड शक्ति परिस्थिती में आमुलाग्र परिवर्तन ला सकती है। सामुहिक प्रार्थना हमें व्यक्तित्व की संकुचित सीमा से समाष्टि के विशाल परिघि तक पहुंचाती है। हम सब एक है ऐसी अनुभूति निर्माण करनेका सामथ्र्य सामूहिक प्रार्थना मे है। मै से हमतक पहुँचने के लिये सामूहिक प्रार्थना नितान्त आवश्यक है। जो कुछ माँगना है वह सबके लिये, अपने समाज के लिये, अपने राष्ट्र के लिये। व्यक्तित्व की संकुचित सीमा से समष्टि की विशाल परिघि में प्रवेश करना इस कारण सुलभ होता है। ऐसे ही राष्ट्रीय प्रार्थना का उदय हुआ था।

Greatest pleasure of the greatest number यह आधुनिक संकल्पना नही। हमारे पूर्वजोने ऋषि मुनियोंने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय यही उद्दिष्ट सामने रखकर वैदिक काल में सामूहिक प्रार्थना की थी।

प्रार्थना संस्कृतमें क्यों?

प्रारंभ में समिती शाखाओं में मराठी भाषा में प्रार्थना बोली जाती थी। किन्तु समिति का प्रचास, विस्तार जब महाराष्ट्र से बाहर अन्य प्रांतो मे होने लगा तब सबको समझने वाली, मन में उत्साह तथा चेतना जगानेवाली पूरे भारत वर्ष में परिचित ऐसी संस्कृत भाषा में प्रार्थना लिखी गई। संस्कृत सुसंस्कारित लोगोंक भाषा है। वह अन्य भारतीय भाषाओंकी जननी होने के कारण भारत में मान्यताप्राप्त है। वह हमारे ज्ञानका भांडार है। उसको देववाणी या गीर्वाणवाणी भी कहा जाता है। भारत के सभी प्रांतों को एक सूत्र में ग्रथित कर उनमे सामंजस्य, एकात्मता, प्रेमभाव निर्माण करने का संस्कृत भाषा एक श्रेष्ठ माध्यम है। कार्य का अखिल भारतीय स्वरूप ध्यानमें रखते हुए समिति की प्रार्थना संस्कृत भाषा में लिखी गई।

शाखा स्थानपर परम पवित्र भगवे ध्वजके सम्मुख नियमित रूपसे बोली जानेवाली प्रार्थना यह अपना मंत्र है। उससे हमें प्रेरणा मिलती है। मननात् त्रायते इति मन्त्रः। शब्दों को मंत्र का सामथ्र्य तभी प्राप्त होता है जब उनके शब्दों का अर्थ का चिंतन, मनन, निदिध्यास के लिये की हुई तपस्या सफल होती है। हर मंत्र का एक विशिष्ट तंत्र होता है। तंत्र याने आचरण के नियम। मंत्र व तंत्र के सामंजस्य से ही मंत्र सफल (सिद्ध) होता है। वह अपना सुरक्षा कवच होता है। इसलिये प्रार्थना के प्रत्येक शब्द का अर्थ समझ लेना, उसपर चिंतन करना, उसके अनुसार आचरण करना सभी सेविकाओं का आद्य कर्तव्य है।

तपःपूत शब्दों का शुद्ध उच्चारण लाभदायी तथा अशुद्ध उच्चारण हानिकारक होता है।

‘दुष्टः शब्दो स्वरतो वर्णतो वा। मिथ्या प्रयुक्तः न तमर्थमाह। स वाग्वज्रोयजमानं हिनस्ति। यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात।।' इस प्रसिद्धध उक्ति से यह स्पष्ट होता है की केवल शुद्ध उच्चारण ही पर्याप्त नही है, अर्थ भी समझना चाहिये। बिना अर्थ समझे मंत्र पठन करना बोझ ढोने जैसा है।

‘प्रार्थना' शब्द मे दो पद है। प्र-अर्थना। यह एक निवेदन है, परन्तु इसके पीछे तपस्या की शक्ति है। प्रार्थना में भक्ति के साथ-साथ समर्पण भावना होती है। आन्तरिक सुप्तशक्तिओंका विकास होकर जीवन तेजस्वी होता है। दैवी गुणों से युक्त तेजस्वी राष्ट्रशक्ति का निर्माण यह हमारी महती आकांक्षा है। वह प्रार्थना के प्रत्येक शब्द में प्रकट होती है। हम दैवी राष्ट्र के अनुचर है उसीके कारण संपूर्ण विश्व में सुखशान्ति का साम्राज्य आएगा ऐसा हमारा विश्वास है।

प्रार्थना के अन्त में ‘भारत माता की जय' ऐसा बोलते है। ‘भारत हमारी माता है' यह संस्कार इससे दृढ होता है। मेरी माँ को कलंक लगेला ऐसा आचरण तथा व्यवहार नही करना चाहिये। ऐसा नैतिक भाव मनमें निर्माण होगा तब अनिर्बंध आचरण पर रोक लगेगी।

१)अन्वय - हे मातभूः हे पुण्यभूः त्वया वर्धिताः संस्कृताः
वयं त्वत्सुताः त्वाम नमामः। अये वत्सले, मंगले
हिंदुभूमे, (वयं सर्वाः) स्वयं जीवितानि त्वाम् अर्पयामः।
अर्थ - हे मातृभूमे, हे पुण्यभूमे भारतमाते, तूने ही पाली हुई संस्कारित की हुई हम तेरी कन्यायें तुझें वन्दन करते है। हे वत्सले, मंगले हिंदूभूमे हम स्वयं अपने जीवन तेरे चरणों में अर्पण करते है।।१।।

२)अन्वय - नमो विश्वशक्त्यै नमः ते नमः ते।
त्वया महत् हिन्दुराष्ट्रं निमितम्।
तव एव प्रसादात् दिव्यमार्ग समालम्बितुं वयं अत्र समेत्य सज्जाः।
अर्थ - हे विश्वशक्ति (आदिशक्ति) तूने ये महान हिन्दुराष्ट्र का निर्माण किया है। तुझे बार-बार प्रणाम। तेरी ही कृपासे हम सब दिव्य मार्ग का अवलंबन करने के लिये तैय्यार होकर यहाँ संघटित हुए है।।२।।

३)अन्वय - येन नः एतत् राष्ट्रं समुन्नामितं यस्य पुरतः समग्रं जगत् नम्रं (भवेत्) हे अम्ब, तद् आदर्शयुक्तं पवित्रं सतीत्वं (तव) प्रियाभ्यः सुताभ्यः प्रयच्छ।
अर्थ - हे माँ जिससे सारा राष्ट्र उन्नत हुआ, जिस के सम्मुख सम्पूर्ण जगत् विनम्र हुआ ऐसा पवित्र सतीत्व तुम अपनी प्रिय कन्याओंको प्रदान करो।।३।।

४)अन्वय - हे मातृभूमे (त्वं) इह सुदिव्यां, दुराचार दुर्वृत्ति विध्वंसिनीम् पिता पुत्र भातृन् भतारं च एव सुमार्ग प्रति प्रेरयन्तीम् शक्तिम् अस्मासु समुत्पादय।
अर्थ - हे मातृभूमे, हम सेविकाओं में दुराचार, दुवृत्तिओं का विध्वंस करनेवाली दिव्य शक्ति का आप निर्माण करें जिससे हम पिता, पुत्र, बन्धु तथा पती को सन्मार्गपर चलने की प्रेरणा दें सके।

५)अन्वय - वयं (सर्वाः) सुशीलाः, सुधीराः, समर्थाः (अत्र) समेताः। (अस्मभ्यं) स्वधर्मे, स्वमार्गे, परं श्रद्धया चलन्त्यः (तथाच) भावि तेजस्वी राष्ट्रस्य धन्याः जनन्यः भवेम इति आशिषं देहि।
अर्थ - हे मातृभूमे, हम सुशील, सुधीर, समर्थ (चारित्र्यवती, धैर्यवती, बलवती) सेविकाएँ संगठित होकर भविष्य में इस तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ माताएँ बने तथा अतीव श्रद्धासे अपने मार्गपर, स्वधर्मपर चलनेवाली बनें ऐसा आशिष आप हमें दें।।५।।

प्रार्थना का आशय इस प्रकार का है -

अपनी प्रार्थना का प्रारंभ मातृभूमि की वंदना से है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'। यह संस्कार हमें बचपन से ही मिलता था। अतएव हम राष्ट्ररूप में समर्थता से खडे थे। किन्तु आज व्यक्तिशः हम धर्म का पालन करते है परंतु धर्मसंरक्षण के लिये राष्ट्ररूप में खडा रहना पडता है यह बात हम अनेक शताब्दियों से भूल गये। इस विस्मृती के कारण हमारा समाज दुर्बल, स्वत्वहीन तथा दस्यवृत्तिवाला बन गया। व्यक्तिगत आदर्श तथा धर्मपालन उच्च, ध्येयवाद के पीछे सशक्त राष्ट्रभाव खडा होने पर ही राष्ट्र जीवित रहता है, तत्वज्ञान टिकता है। इसीलिये प्रथम मातभूमि को वन्दन किया है।

मेरी मातृभूमी पुण्यभूमि भी है। जन्मदात्री माँ विशिष्ट समय के पश्चात् शिशु को स्तन्य देना बंद करती है परंतु यह मातृभूमि जीवन के अंतिम क्षणतक पोषण करती है। इतनाही नही तो जीवनांत पर भी अपने आंचल में प्रेम और क्षमा की यह मूर्ति है। वात्सल्य और क्षमा ऊपरी नही है अपितु अंतः प्रेरणा है। उसमें मांगल्य का भाव है। हमारी मातृभूमि का हिन्दुत्व ही एकमात्र स्वत्व है जिसके रक्षणार्थ हम यहाँ रहते है। इस हिन्दुभूमि को केवल हिन्दु ही पवित्र मानता है ऐसा नही तो चौदहवी शताब्दि में भारत में आया हुआ विदेशी प्रवासी लिखता है कि, It's dust is purer than air and its air is purer than purity itself. It's delightful plains resemble the gardens of paradise. If it is asserted that paradise is in India be not surprised, because paradise itself is not comparable to it. यहाँ का व्यक्ति नगांधिराज हिमालय को देवतात्मा मानता है। देवताओंको भी इस भूमि में मोक्षप्राप्ति के लिये जन्म लेना पडता है। ‘दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।' इस प्रसिद्ध उक्तिसे सुचित होता है की जीवन के अंतिम सत्य की अनुभूती होने के लिए ऋषिमुनि महात्माओंने यही जन्म लिया है। जो-जो पवित्र, मंगलमय है वह सब यहाँ ही केन्द्रिभूत हुआ है। योगी अरविन्द कहते है कि, ‘यह भूमि केवल माटी नही, भौतिक पदार्थो से बना हुआ पुंज नही, तो वह है दिव्यत्व का साकार रूप।' अपनी मातृभूमि दैवी शक्ति की अभिव्यक्ति है।

हमारे देश का प्रत्येक कण अपने पूर्वजों के त्याग, तपस्या, बलिदान से अनुप्राणित हुआ है। यह महानता, पवित्रता, तपःसाधना हमें पूर्वजों से विरासत से प्राप्त हुई है। हमने वह आत्मसात करनी है। ऐसी मातृभूमि ने हमें संवर्धित संस्कारित किया है। इन्ही संस्कारों से हमारा मन तथा बुद्धि विकसित हुई है। ऐसी तेरी कन्याएं संगठित होकर तुझे अभिवादन करती है।

हमारी मातृभूमि वत्सलता का मूर्तिमंत प्रतिक है। मांगल्य इसके कण-कण में प्रकट होता है। ‘चरण पावन चल रहे थे, राम प्रभु और जानकी के। धूलिकण इस धरती के माँ, करे पुनीत मलिन तन मन।' यह हमारी आकांक्षा है। यह भूमी हिन्दुओंकी है। हिन्दुभूमि का नाम लेते ही ध्यान आता है।

हिमालयात् समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम्।
तं देवनिर्मित देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।

हिन्दु अर्थात् दैवी गुणों के लिए साधना करनेवाला, तेजस्वी, दुर्बलरक्षक, दुष्टनिर्दालक, धर्मनीतितत्व का प्रतिष्ठाता यह उसकी पहचान है। यहाँ के मूलनिवासी, राष्ट्रोत्थानार्थ सर्वत्याग करनेवाले, रक्षणार्थ लडनेवाले, उत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील हिन्दु ही है।

१)आसिन्धु सिन्धुपर्यंता यस्य भारत भूमिका । मातृभूः पितृभूश्चैव सवै हिन्दुरितिस्मृतः ।।

हिंदूहृदयसम्राट स्वातंत्र्यवीर वि. दा. सावरकरजीने हिन्दु की यही पहचान दी है।

हे हिन्दुभूमे, हम सेविकाएं तेरे चरणो पर अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प प्रतिदिन दोहराते है। यह जीवन तेरे लिये ही है। इसका एक-एक क्षण तेरे ही सुख के लिये समर्पित है। यह समर्पण स्वेच्छापूर्वक, निरपेक्ष प्रेम तथा श्रद्धासे किया है। प्रलोभन या किसी दबावसे नही। इस समर्पण से हमारा जीवन कृतार्थ होगा ऐसी हमारी श्रद्धा है, यही हमारा परम सौभाग्य है।

२)नमो विश्वशाक्त्यै -.......

अब हम विश्वशक्ति को वंदन करते है। विश्वशक्ति (आदिशक्ति) से पहले मातृभूमि को वंदन क्यों?

वास्तव में यह भूमी विराट विश्व का एक छोटासा भाग है। इस विराट विश्व का नियंत्रण करनेवाली एक शक्ति है वह जगज्जननी आदिशक्ति है जिसने यह विशाल हिन्दुराष्ट्र का निर्माण किया। राष्ट्र का अर्थ केवल भूखंड नही तो इतिहास, पंरपरा, संस्कृति आदि का समावेश राष्ट्र संकल्पना में होता है। इस राष्ट्र ने ‘कृष्णन्तो विश्वमार्य' का उद्घोष किया। विश्व को मानवता का पाठ पढाया। ऐसे महान राष्ट्र के हम घटक है। उसकी सेवा करने की प्रेरणा हमें प्राप्त हुई यह आदिशक्ति की असीम कृपा है उस शक्ति को हमारा प्रणाम।

जिस विराट दिव्यशक्ति ने इस मातभूमि का निर्माण किया उस विश्वशक्ति को तो प्रथम वंदन करना हमारा कर्तव्य है। किन्तु मातृभूमि ने ही हमको इस विराट दिव्य आदिशक्ति का परिचय कराया है। मातृभूमि के पुजारी होने के कारण हमारी स्थिती इस प्रकार हो गई।

‘गुरु गोविन्द दोनो खडे काके लागू पाव।
बलिहारी गुरू आपकी गोविन्द दियो बताय।।'

वास्तव में गुरु और परमेश्वर दोनो सामने खडे होते हुए भक्त गुरु को प्रथम वन्दन करता है। क्योंकि परमेश्वर तक पहुँचाने का मार्ग गुरु ही दिखलाता है। इसी लिये गुरु को प्रथम वंदन। ऐसी ही हमारी धारणा है। मातृभूमि ने ही विश्वशक्ति तक जाने का मार्ग दिखाया है। इसीलिए मातृभूमि को प्रथम वंदन। हे विश्वशक्ति तेरी ही कृपा से हम सब संगठित होकर राष्ट्र भक्ति का प्रखर दिव्यमार्ग स्वीकारने को सिद्ध हुए है।

३) समुन्नामितं येन राष्ट्रं न एतत् .....

इस राष्ट्र की एक विशेषता है, जिसके कारण संपूर्ण विश्व उसके सामने नतमस्तक होता है। वह है भारतीय स्त्री का पवित्र शील, विशुद्ध चारित्र्य। शीलवती, चारित्र्यसंपन्न, त्यागी निष्ठावान स्त्री भारत माँ का सबसे विशेष आभूषण ही नहीं अपितु राष्ट्र का मानबिंदु है। आधुनिक भौतिक प्रगति से भी यह आभूषण मूल्यवान है। परंतु पश्चिम विचारधारा का अन्धानुकरण हमे पदभ्रष्ट कर रहा है। हम हमारी तेजस्विता तथा सतीत्व खो रहे है। मन का समाधान हमसे दूर भाग रहा है। छोटे से कारण को लेकर अपने पती को छोडनेवाली स्त्री कहाँ और कसौटी के, संकटो के क्षणों मे भी पति का साथ न छोडनेवाली उसको अच्छे कार्य की प्रेरणा देनेवाली, उसकी माता बनकर रहनेवाली भारतीय स्त्री कहाँ! जगज्जननी के पास हम सेविकाए मांग रही है यही विशुद्ध, पवित्र शील, निष्ठा, त्याग, संयम, स्नेहशील मातृत्व जो हम में, बाधाओं के हिमालय को पार करसकने की जिद तथा क्षमता निर्माण करे। सती अर्थात् केवल जलना ही नही। सतीत्व यह एक असिधाराव्रत है। अविवाहित स्त्री भी सती हो सकती है। सतीत्व की शक्ति प्राप्त करना किसी साधारण स्त्री का काम नही। अग्नि धारण करनेवाला पात्र भी उतना ही समर्थ चाहिये, अन्यथा पात्र भी जल जाएगा। मन की यह शक्ति से जीवन विकसित करने का कार्य केवल भारतीय स्त्री ही कर सकती है। वनवास में पति का साथ देनेवाली सीता, पति के हृदय का, तेजस्विता का स्फुल्लिंग सतत प्रज्वलित रखनेवाली द्रौपदी, मृत्यु के विकराल मुख से अपने पति को जीवित निकालनेवाली सावित्री हमारा आदर्श है। हे माँ हम तेरी लाडली कन्याएँ है ना? सीता का असीम त्याग, द्रौपदी का प्रखर तेज, सावित्री का कठोर निश्चय तथा परम्परागत विरासत तुम हमें प्रदान करोगी यह विश्वास है। सतीत्व का यह आभरण तू तेरी प्रिय कन्याओं को प्रदान कर जो केवल भारत का नही अपितु अखिल विश्व का तारण करेगा।

४) समुत्पादयास्मासु ......

एक ही स्त्री कन्या, बहन, पत्नी तथा माता की भूमिकाएं निभाती है। इस प्रत्येक भूमिका में अपने परिवार को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा वह देती है। जीवनरथ का सारथ्य कुशलता से करती है। परिवार में कोई दुष्प्रवृत्त, दुराचारी, राष्ट्रद्रोही न बने इसलिये निरंतर सजग रहना उसका सार्वकालिन कर्तव्य है। घर ऐसा स्थान है जहाँ मानव गढता है। उसकी आकांक्षा, कर्तव्यबुद्धि यहाँ पुष्ट होती है। अपने परिवार के घटकों में दुराचार दिखाइ पडा तो उसे नष्ट करने की हिंमत, हे जगजज्जननी हमें दो। क्षणिक सुखों का आकर्षण, उनके पिछे लगने पर घरमें आनेवाला पैसा जिस मार्ग से आ रहा है उसपर नियंत्रण रखने की जारूकता तथा क्षमता हममें निर्माण करो। इस प्रकार पिता, पुत्र, भाई तथा पति इन सबको सन्मार्गपर चलने की प्रेरणा हम दे सके ऐसी दिव्य शक्ति हमें दो। दुराचार से बचाना, सन्मार्गपर चलनेकी प्रेरणा देना यह ठिक है ही लेकिन दुर्वृत्ति निर्माण ही नही होगी यह प्रयास करने की शक्ति दो। समाज के भयसे शायद दुराचार नही होगा, किन्तु मनमें दुष्ट प्रवृत्ति रहेगी, वह भी नष्ट करनी है।

५) सुशीलाः सुधीराः समर्थाः समेताः ....

शीलवती, धैर्यशालिनी, शरीर और मन से सुदृढ महिलाएं राष्ट्र निष्ठा के सूत्र से संगठित होने पर तेजस्वी राष्ट्र निर्माण कर सकती है। शारीरिक दुर्बलता होने पर भी आत्मिक तथा मानसिक बल से वह अद्भूत कार्य कर सकती है। इसीलिये आत्मबल बढाने हेतु नित्य दैनंदिन प्रार्थना करने की प्रवृत्ति निर्माण करने के लिये एकत्रित आना, संगठित होना आवश्यक है। महान ध्येय के लिये व्यक्तिगत भेदभाव, तथा वैषम्य और क्षुद्रभाव पर विजय पाकर ध्येयपथपर हमने चुने हुए दिव्य मार्ग पर स्वमार्ग पर, स्वधर्म पर अर्थात् स्वकर्तव्य पर अविचल श्रद्धा रखकर ही हम हमारा ईप्सित प्राप्त कर सकते है। भविष्य में इस तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ माताए हम बने ऐसा आशीर्वाद, हे जननी तुम हमे दो।

हमारी प्रार्थना माँग नही, कृतसंकल्प का उच्चारण और स्वयंप्रयास का निश्चय है।
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