गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

नूतन बर्षाभिनन्दन

आत्मीय बन्धु एवं भगिनी,
                                   नूतन बर्षाभिनन्दन।
           विक्रम संवत्२०७3 आपको तथा आपके परिवार के लिए मंगलमय हो-----
नवबर्ष की नयी पहल हो
   कठिन जिंदगी और सरल हो।
     अनसुलझी जो रहीं पहेली
       अब शायद उनका भी हल हो।
        उगता सूरज नये बर्ष का
           सवके लिए सुनहरा पल हो।
             समय हमारा साथ सदा दे
              कुछ ऐसी आगे हलचल हो।
                सुख के चौक पुरें हर द्वारे
                 सुखमय जीवन का हर पल हो।

एक वार पुन: सभी आत्मीय जनों को नवबर्ष की हार्दिक शुभकामनायें -------


शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

मकर संक्राति उत्सव

आत्मीय बन्धु एवं भगिनी
सूर्योपासना के महापर्व मकर संक्रांति की आप सभी को हार्दिक बधाई।भारत अर्थात तेज की उपासना करने वाला देश सनातन काल से ही सूर्य का उपासक रहा है। वेदों से लेकर पुराणों तक इसका वर्णन मिलता है।आज का यह पर्व उसी सूर्य की उपासना का, प्रकृति को नमन करने का पर्व है।

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

समस्त लोकों की ईश्वरी, अपने कर-कमलों में कमल-युगल धारण करने वाली तथा समस्त सर्वांगींण कल्याण का विधान करने वाली जगजननी लक्ष्मी की उपासना भारतवर्ष और इसके बाहर के देशों में अति प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है तथा लक्ष्मी की दशांग उपासना की सम्पूर्ण विधि पटल, पद्धति, शतनाम, सहस्त्रनाम आदि स्त्रोतों एवं ऋग्वेद के खिल पर्व श्रीसूक्त के सम्पूर्ण विधान, लक्ष्मी तंत्र आदि का पाठ प्रायः घर-घर में नित्यप्रति होता है । भक्त जनों के अपराधों को क्षमा करके मुस्काराते रहने वाली, जिनके नेत्र कमल दलों के सामान सुन्दर नेत्र वाली है, उन विष्णुप्रिया लक्ष्मी के श्रीविग्रह की उपासना-अराधना से नैरन्तर्य माधुर्य-मंगलमयी आनन्द-प्राप्ति के साथ ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रुपी पुरूषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति एवं विविध प्रकार के अभीष्टों की सिद्धि सहज ही हो जाती है ।
लक्ष दर्शनांकनयोः इस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुलास में कहा गया है कि ‘यो लक्षयति पश्यत्यंकते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः’ जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता, जैसे शरीर के नेत्र, नासिकादि और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र, सूर्यादि चिह्न बनाता तथा सब को देखता, सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादिशास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है, इससे उस सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अनन्त गुण , कर्म, स्वभावानुसार अनेकों नामों में से एक नाम ‘लक्ष्मी’ है। इसी प्रकार श्री शब्द की व्युत्पति करते हुए कहा गया कि ‘श्रिञ् सेवायाम्’ इस धातु से ‘श्री’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च स श्रीरीश्वरः’। जिस का सेवन सब जगत्, विद्वान् और योगीजन करते हैं, उस परमात्मा का नाम ‘श्री’ है।
संस्कृत के शब्द कोशों में लक्ष्मी शब्द के अर्थ विष्णु पत्नी, हरिप्रिया, हरिवल्लभा,श्रीस्सागरसुता, कमला, पद्मा, सरस्वती, धन अधिष्ठात्री देवी तथा श्रीसौभाग्य लक्ष्मी के साथ ही सम्पति, समृद्धि,सफलता, शोभा, विभूति, सिद्धि- बुद्धि, कीर्ति, सुगन्धि, सुन्दरी, शक्ति, भार्गवी, दुर्गा, लोकमाता,राजशक्ति, वीरपत्नी,मोती,हल्दी एवं औषधि आदि अनेकार्थक अर्थ मिलते हैं । वैदिक साहित्य में श्रीलक्ष्मी के प्राप्त होने वाले सन्दर्भों में कहीं भी विष्णु के साथ देवी के सम्बन्ध की स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलती । वेदों में श्री शब्द तेजस या कान्ति के रूप में प्रयुक्त हुआ है । कृष्ण यजुर्वेद (तैतिरीय संहिता 7/5/14) में अदिति को भी लक्ष्मी कहा गया है । वैसे अदिति कश्यप की पत्नी, मित्र, वरुण, धातादि देवताओं की माता कही गई है तथा प्रकृति के रूप में मन , अहंकारादि आठ पुत्रों की माता कही गई है । अदिति की प्रिय सखी भूदेवी का वर्णन भी उपलब्ध है। ऋग्वेद के परिशिष्ट खिल भाग में श्रीसूक्त में श्रीलक्ष्मी की स्तुति गायी गई है । विद्वान् उस स्तुति को आदि स्तुति मानते हैं । श्रीसूक्त में लक्ष्मी का नाम भी आया है । दोनों नाम विष्णु पत्नी सूचक ही हैं । उन्हें कमल के ऊपर बैठी हुई कहा गया है । शुक्ल यजुर्वेद 31/16 व कृष्ण यजुर्वेद के अनुसार भगवान् की दो ह्री (श्री) लक्ष्मी अथवा भूदिव्यलक्ष्मी पत्नियाँ दो शक्तियाँ मानी गई हैं –
ह्रीश्च (श्रीश्च) ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ ।
वेदों में कहीं-कहीं पृथ्वी भी लक्ष्मी के रूप में प्रयुक्त हुई है । श्रीसूक्त में लक्ष्मी को महीमाता कहकर भी संबोधित किया गया है । अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में भी धरतीमाता लक्ष्मीरूपा हो गई है ।श्रीसूक्त में लक्ष्मी को यश प्रदायिनी, अपूर्व सौन्दर्य की स्वामिनी, समृद्धि की वर्षा करने वाली, धन – धान्य से युक्त अपने भक्तों को समृद्धि प्रदान करने के साथ ही सुवर्ण, पशुधन, अन्न प्रदान कर उनके जीवन से अपनी बहन अलक्ष्मी को जो दारिद्रय, क्षुद्धा, अभाव की प्रतीक है, हटाकर दूर करने वाली कहा गया है । लक्ष्मी सूर्य सी तेजोमयी, सुवर्ण देह्कान्ति, अग्नि के समान जाज्वल्यमान, दमदमाते आभूषणों से नित्यमंडिता है ।कमले कमलासना, पवित्रता की प्रतीक कमल पर स्थित हरिप्रिया ही कैलाश की पार्वती, श्रीरोद की सिन्धुकन्या है, बैकुण्ठ की महालक्ष्मी है । कमल सृष्टि का प्रतीक है, जल से जीवन का रस ग्रहण कर व्यापक सृष्टि का प्रजननकर्ता, कर्दम से निकला फिर भी परम पवित्र । एक ओर कमल को पवित्रता का मूर्तिमान विग्रह कहा गया है तो दूसरी ओर आध्यात्मिकता का संचार करने में पूर्णतया सक्षम । उस पर विराजमान हरिप्रिया- दोनों ओर सूंड से जलवृष्टि करते हुए हस्तिद्वय । ये ऐरावत हैं, ऐश्वर्य के प्रतीक, साथ ही धन- धान्य की निरन्तर वृष्टि करने वाले । कालान्तर में मिश्र की असुर देवियों के भावना के अनुकरण में श्रीनामी देवी के अंशों को दुर्गा, काली, भवानी,भैरवी,चण्डी , अन्नपूर्णा, चामुण्डा आदि रूप में कल्पित कर लिए गए । मिश्र में भी आदिमाया मिनर्वा, जुनोब्रेनसा, हीआ, हेक्ट्री, डायना और इयर आदि देवी पूजा प्राचीन काल से चन्दन, अक्षत, धूप, मांस- रूधिर से होती रही है । जिस तरह भारत की देवी दुर्गा ने महिषासुर को मारा जिसका मुँह भैंसे के समान था, उसी प्रकार मिश्र की देवी ईसिस मिनर्वा ने हीकस हिपोपोटेमस (दरियाई घोड़े के समान मुँह वाले) राक्षस को मारा था ।
लक्ष्मी को धन की देवी और विष्णु की पत्नी माना गया है । परन्तु सूर्य विष्णु का नाम था । सूर्य महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री अदिति के कनिष्ठ पुत्र थे । इनके पुत्र मनु वैवस्वत ने आर्य जाति की स्थापना की तथा सूर्य वंश चलाया । कहा जाता है कि समुद्र-मंथन में विष्णु को लक्ष्मी प्राप्त हुई थी, परन्तु विद्वान् इस कथा को आलंकारिक मानते हैं तथा कहते हैं कि वास्तव में यह वह एक स्वर्ण खान के मिलने का प्रसंग है जो देव-दैत्य, नाग तीनों ने मिलकर प्राप्त की थी । पीछे सरस्वती नदी को विद्या की देवी मान लेने की भांति धन-लक्ष्मी को धन की देवी मान लिया गया । उसे विष्णु ने प्राप्त किया था । अतः वह विष्णु की चरणसेविका बन गई । परन्तु श्री नाम से लक्ष्मी, पार्वती तथा दुर्गा तीनों को समावेश किया गया तथा अब तीनों को ही श्री नाम से जाना जाता है ।
लक्ष्मी का एक नाम पद्मा भी है । ऋग्वेद परिशिष्ट श्रीसूक्त एवं श्रीमद भागवत पुराण 10/47/13 में लक्ष्मी को पद्मा कहा गया है ।श्रीसूक्त में लक्ष्मी के लिए पद्मस्थिता, पद्मवर्णा,पद्मिनी, पद्ममालिनी.पुष्करणी, पद्मानना. मद्मोरू. मद्माक्षि, पद्मसम्भवा , सरसिजनिलया , सरोजहस्ता, पद्मविपद्मपत्रा, पद्मप्रिया, पद्मदलायताक्षी आदि का प्रयोग हुआ है । लक्ष्मी के लिए प्रयुक्त परिशिष्ट श्रीसूक्त के 4/26 में प्रयुक्त इन नामों से कमल के साथ इनके अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध का पता चलता है। लक्ष्मी सुगन्धित कमल की माला धारण करती है, हाथ में कमल रखती है तथा कमल पर निवास भी करती है । इनका वर्ण पद्म से उत्पन्न पद्म का सा है ।पद्म (कमल) की पंखुड़ियों की भान्ति इनकी लुभावनी बड़ी-बड़ी आँखें हैं । हाथ, चरण, अरू, आदि समस्त अवयव पद्म की भान्ति है । इनके इन्हीं गुणों के कारण इनका नाम पद्मा भी है ।बाल्मिकीय रामायण, महाभारत, पुराणादि संस्कृत साहित्यों में लक्ष्मी का वर्णन विष्णु-पत्नी के रूप में अंकित करते हुए लक्ष्मी को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है । समुद्र से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी का समुद्रकन्या नाम प्रसिद्ध हुआ ।
महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत आदिपर्व 18/35 के अनुसार लक्ष्मी का प्रकटी समुद्रमंथन के अवसर पर हुआ था । श्रीमद्भागवत पुराण 8/8/24 के अनुसार विष्णु भगवान में इनकी परा अनुरक्ति थी । अतः इन्होने पति के रूप में वरन करते हुए उन्हें ही पद्मों की माला पहनाई थीं ।श्रीमद भागवत पुराण 10/47/13 में अंकित है कि लक्ष्मी के अनेक रूप हैं, उनमें पद्माविष्णु की अनुरागरूपिणी (अनुरागिनीरूपा) है । गोपियों ने विष्णु के प्रति पद्मा के प्रेम की इस एकतानता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । पद्मा के अतिरिक्त अन्य रूपों में ये ऐश्वर्य प्रदान करती हैं, सम्पति का अम्बार लगा देती हैं और सर्वत्र शोभा का आध्यान भी करती हैं । इसमें सृष्टि के आदि में कृष्ण के नामांश से महारास के समय लक्ष्मी का प्रादुर्भाव दिखाया गया है ।
स्कन्द पुराण वेवर खंड भूमि वराह खंड के अनुसार आकाश राज की अयोनिजा कन्या के रूप में अवतीर्ण हुई, तब इनका नाम पद्मावती, पद्मिनी और पद्मालय रखा गया । भगवान् जब कल्कि अवतार ग्रघन करते हैं, तब लक्ष्मी का नाम पद्मा ही होता है ।मार्कंडेय पुराण में लक्ष्मी के स्वरुप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इनका मुखमंडल चन्द्रमा के सदृश है । ये कमललोचना एवं पीनपयोधरा हैं । इनका शरीर सुगन्धित है ।ये मृदुभाषिणी एवं समस्त स्त्रियोचित गुणों से विभूषित हैं ।भक्तमाल में लक्ष्मी को कमला तथा विष्णु की शक्ति के रूप में निरूपित किया गया है।वायुपुराण 9/79/98 में लक्ष्मी की उत्पति का वर्णन करते हुए कहा गया है- हिरण्यगर्भ से पुरूष तथा प्रकृति की उत्पति हुई । पुरूष ग्यारह भागों में विभक्त हुआ । प्रकृति के दो भाग – प्रज्ञा या सरस्वती तथा श्रीलक्ष्मी हुए। वे दोनों अंश अनेक रूपों में संसार में व्याप्त हुए। विष्णु पुराण 1,8/29 में कहा गया है कि विष्णु भगवान् विश्व के आधार हैं और लक्ष्मी जी उनकी शक्ति हैं – अवष्टम्भो गदापाणिः शक्तिर्लक्ष्मीर्द्विजोत्तम् ।।(विष्णु पुराण 1/8/29)
लक्ष्मी आख्यानों के लिए सर्वप्रचलित श्रीमद्भागवत पुराण में लक्ष्मी को धन की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठा मिली।इसके साथ ही धन की देवी के र्रोप में लक्ष्मी की पूजा आरम्भ हुई ।लक्ष्मी जो सागर मंथन में चौदह रत्नों के साथ प्राप्त हुई थी, भागवत पुराण 8/8/23 के अनुसार जिसको भगवान श्रीविष्णु ने स्वयं वरण किया था, शताब्दियों के पश्चात् उनका पौराणिक दिव्य रूप प्रतिष्ठित हुआ है । लोकमान्यता के अनुसार लक्ष्मी स्वर्णवर्णा हैं और अत्यंत सुन्दरी, नित नवीना सदा युवती रहने वाली चार भुजाओं वाली देवी है तथा जो जल में लाल कमल पर विराजमान है, जिन पर द्विगज स्वर्ण कलश से निरन्तर जलार्पण करते रहते हैं । इन्हीं देवी का दीपावली की सघन रात्रि में दीपों के प्रकाश के साथ पूजा-अर्चना का विधान है । ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में भी इनकी पूजा-अर्चना का वृहत वर्णन अंकित है । इसमें लक्ष्मी सर्वऐश्वर्य और सर्वसम्पत्ति देने वाली है । लक्ष्मी देवी गौरवर्णा, रत्नजटिता, अलंकार विभूषितापीत वस्त्र धारण किये हुए नवयौवना है । नारायण, विष्णु एवं शिव के साथ ही स्वयंभू मनु, ऋषियों एवं गन्धर्वों द्वारा भी ये पूजित हुईं । श्रीमद्भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, नारद,मार्कंडेय आदि विविध पुराणादि ग्रन्थों में लक्ष्मी के स्वरुप व उनकी अभ्यर्थनाओं, प्रार्थनाओं से सम्बंधित साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है । वस्तुतः लक्ष्मी युगों-युगों से लोकाराध्या है
(संकलित)

बुधवार, 4 नवंबर 2015

राष्ट्र का निर्माता

अथर्ववेद में एक मन्त्र आया है:-
भद्रमिच्छन्त: ऋषय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। भद्रमिच्छन्त: ऋ षय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।
ततो राष्टंऊ बलमोजश्च जातं तदस्मैं देवा उपसंनमन्तु।। ततो राष्टंऊ बलमोजश्च जातं तदस्मैं देवा उपसंनमन्तु।।
(अथर्व0 19-41-1) (अथर्व0 19-41-1)
‘‘सुख शान्ति को जानने और प्राप्त करने वाले ऋ षियों ने सर्वप्रथम सुख दु:ख आदि द्वन्द्व सहन करने की क्षमता तथा किसी लक्ष्य विशेष के लिए आत्मसमर्पण ग्रहण किया। उस तप और दीक्षा के आचरण से राष्ट्रीय भावना बल और ओज से राष्ट्रीय प्रभाव उत्पन्न हुआ। इसलिए इस राष्ट्र के सम्मुख देव भी अर्थात शक्ति सम्पन्न लोग भी झुकें, अर्थात उचित रीति से इसका सत्कार करें।’’
मन्त्र हमें बता रहा है कि राष्ट्र की भावना को बलवती करने के लिए हमारे ऋषियों ने अपने जीवन को तप और दीक्षा में ढ़ाला और तब राष्ट्र में बल और ओज की उत्पति हुई। यहाँ तप का अर्थ एकनिष्ठ होकर कर्तव्य का पालन करने से है, तथा दीक्षा का अर्थ आत्मनिग्रहपूर्वक धर्म सिखाने से है। दोनों बातें ही बड़ी ही महत्वपूर्ण हैं। शिक्षक के जीवन में तप और दीक्षा ही होती है। उन्ही से वह अपने विद्यार्थियों का निर्माण करता है, और उस शिक्षक के इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर विद्यार्थी राष्ट्रभक्त बनते हैं। उनमें बल और ओज का संचार होता है।
राष्ट्रवाद की भावना नागरिकों के मध्य पायी जाने वाली विभिन्नताओं को समाप्त करती है और विभिन्नताओं को समेटकर एक चादर के नीचे ले आती है। इस भावना से एकनिष्ठ होकर एक व्यक्ति की आज्ञा को मानकर उसके अनुसार चलने की भावना बनती है। जैसे विद्यालय में बच्चे एक प्राचार्य के आदेश को मानना अपना सर्वोच्च कर्तव्य मानते हैं, घर में माता या पिता की आज्ञा का पालन करना अपना पुनीत कर्तव्य मानते हैं। घर पिता के आदेश से चलता हैं उसी प्रकार राष्ट्र भी एक (राष्ट्रपति) राजा के आदेश से चलता है।
आचार्य यदि अयोग्य है, तो विद्यालय का चलना कठिन हो जाता है, माता-पिता यदि अयोग्य हैं झगड़ा करने वाले हैं, तो घर का चलना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में विद्यालय में शिक्षा का परिवेश विकृत होता है, घर में कलह बढता है, और राष्ट्र में अराजकता फैलती है। अयोग्यों की आज्ञाओं का पालन तब योग्य करने से बचते हैं। इसलिए ऐसी स्थितियों में नेतृत्व के लिए संघर्ष की परिस्थितियां भी बना करती हैं राजा यदि शोषक हो जाये अपने कर्तव्यपालन को भूल जाये, अपनी प्रजा के प्रति एकनिष्ठ न होकर अपने कर्तव्यपालन के धर्म को भुला दे तो उसके विरूद्ध विद्रोह फूट पड़ता है।
भारत में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह क्यों हुआ? क्योंकि अंग्रेजों ने भारत के प्रति एकनिष्ठ होकर इस देश की भलाई के लिए कभी कोई कार्य नहीं किया। अंग्रेजों के विषय में कुछ लोगों ने कहा है कि उन्होंने भारत में रेल, डाक-तार आदि का प्रसार किया, तो यह उनका भारत पर उपकार था। पर हम कहते हैं कि उन्होंने भारत में रेल डाक-तार आदि की भी व्यवस्था अपने शासन के चिरस्थायित्व के दृष्टिकोण से ही की थी। उनसे अंग्रेजों को भारतीयों की अपेक्षा कहीं अधिक लाभ हुआ था।
अंग्रेजों ने भारतीयों को भारतीयों की भाषा में भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास पढ़ाकर भारत पर भारतीयों का हक बताने की गलती कभी नहीं की। जब उनका सच भारत के ‘‘रामप्रसाद बिस्मिलों’’ को समझ में आया तो अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हजारों लाखों ‘‘बिस्मिल’’ घर छोडक़र बाहर आ गये। राष्ट्र के शासकों में तप और दीक्षा का भाव समाप्त हो गया तो राष्ट्रवासियों ने तप और दीक्षा को अंगीकार कर लिया। वो एकनिष्ठ होकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने लगे। सारा राष्ट्र देशभक्ति की भावना से मचल उठा। देश का कण-कण वन्देमातरम् की ज्योति से ज्योतित हो उठा। ऐसा केवल इसलिए हुआ कि तप और दीक्षा राष्ट्र के आवश्यक तत्व हैं। 
सचमुच राष्ट्र का निर्माता शिक्षक ही होता है। शिक्षक की शिक्षा ही आदर्श नागरिकों का निर्माण करती है। यदि देश का युवा-वर्ग राष्ट्रभक्ति से हीन है, राष्ट्र के प्रति सजग नहीं है, तो यह शिक्षक की असफलता है। व्यक्ति तो क्या देश की धरती का कण-कण राष्ट्र भक्ति की भावना से मचल उठे, रोम-रोम में राष्ट्र रम जाये, राष्ट्र भक्ति की भावना से मचल उठे, उसका चिन्तन बस जाये, यह शिक्षक की सफ लता है।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

 5 सितम्बर 1888 को जन्में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने प्रारंभिक जीवन में कहा था कि उनके सामने दो कुर्सियां रखी जायें। एक शिक्षक के लिये तथा दूसरी राष्ट्रपति केलिये तो वे शिक्षक की कुर्सी को चुनते। उन्होंने सेवा के रूप में शिक्षा का कार्य किया। बाद में आजाद भारत के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति बने। शिक्षकीय कार्य करनेवाला यह शख्स उपराष्ट्रपति बना राष्ट्र उनकी जयंती को शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है। शिक्षक के रूप में सेवा कर उंचे ओहदे में पहुॅचने वाले व्यक्ति में सिर्फ डां.राधाकृष्णन ही नहीं है बल्कि इनसे 8 वर्ष पहले जन्में मुंशी प्रेमचंद जी ने तो सारी जिंदगी शिक्षा का कार्य किया और साहित्य सृजन तो इतना किया कि उनकी रचनाओं को प्राथमिक, माध्यमिक ,उच्च, उच्चतर, स्नातक, तथा स्नातकोत्तर सभी स्तर के विद्यार्थी पढ़ते हैं। शिक्षा जगत के हर स्तर पर काम करनेवाले महान विभूति (जिनका जन्म 31 जुलाई 1880 को हुआ था) मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती मनायी तक नहीं जाती है। डां राधाकृष्णन से 51 वर्ष पूर्व जन्मे महात्मा ज्योतिबा फूले ने शिक्षा से वंचितों को शिक्षा दे डाली। उन्होंने 1848 में पूना में लड़कियों के लिये पाठशाला खोली। 1848 से 52 वर्ष तक 4 वर्षों में उन्होंने विभीन्न स्थानों में 18 पाठशालाऐं खोलकर शिक्षकीय कार्य किया था। जिनके लिये शिक्षा का द्वार बंद था वैसे लोगों को शिक्षित बनाने का कार्य करनेवाले (11 अप्रैल 1827 को जन्में) महात्मा ज्योतिबा फूले की सुधि तक नहीं ली जाती है। इतिहास में देश की प्रथम महिला शिक्षिका सरोजिनी नायडू से लगभग 50 वर्ष पूर्व जन्मी शिक्षा में क्रांति लानेवाली श्रीमति सावित्री फूले को इतिहास में जगह तक नहीं दी गयी है।

सोमवार, 27 जुलाई 2015

शाखा संजीवनी
हिन्दु कुल में जन्मे यह भाग्य। ‘हिन्दु' के नाते स्वाभिमान से जीवन स्थापन करे यह कर्तृत्व हिन्दुत्वके रक्षण हेतु जियेंगे-आवश्यक तब मरेंगेभी यही समर्पण, यह भावना अनायास निर्माण होती है, ऐसा पवित्र स्थान याने समिति शाखा का मैदान!
स्वामी विवेकानंद-तब का नरेंद्र अपनी व्यक्तिगत इच्छा की परिपूर्ति हेतु कालीमाता के मंदिर में गये। मंदिर की पवित्रता, तेजस्विता, उदात्तता का प्रभाव ऐसा रहा की सब कुछ भूलकर मुख से शब्द निकले, ‘माँ, मुझे शक्ति दो, बुद्धी दो, वैराग्य दो' शाखास्थान का ऐसा प्रभाव अनेकोंकी अनुभूति का विषय है।
संजीवनी अर्थात क्षीण प्राणशक्ति का पुनरूज्जीवन/प्राणशक्ति के कारण ही शरीर के सभी अंगोपांग संपूर्ण सामंजस्य से काम करते है। यह ऊर्जा हृदय से निकलनेवाली रक्तवाहिनियाँ शरीर के आखरी छोर तक पहूँचाती है- चैतन्य प्रदान करती है। व्यक्तिगत जीवन में शरीर में प्राणशक्ति का संचार रूकना याने मृत्यू। राष्ट्र जीवन में प्राणशक्ति है, संस्कृति अर्थात जीवनदृष्टी अर्थात जीवनमूल्य। उसकी अनुभूती-विचार, उच्चार व्यवहार का प्रवाह खंडीत होना राष्ट्र की चेतना लुप्त होने जैसा ही है। भारत सनातन राष्ट्र है। केवल मानव के नही, अपितु चराचर सृष्टि के कल्याण का विचार संस्कार देता है। अत: वह जीवित रखना, प्रबल रखना अनीवार्य है। प्रबल राष्ट्रकी दखल विेशमंचपर होती है। हमारी यह जीवनदृष्टि से जीवनमूल्यों का आदर अनुकरण होने हेतु इस जीवित कार्य का एहसास। इसके संस्कार विविधतासे सहज होने का स्थान है शाखा।
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का समन्वित विकास राष्ट्र सेवा के लिए ही ऐसा सहज संकल्प करने का स्थान है, समिति, शाखा का मैदान। शाखा में आते ही मन की नाराजी, उद्विग्नता, निराशा, अपनी सखियोंको देखकरही भाग जाती है। खेल, व्यायाम, योगासन, गणसमता के साथ साथ जीवन में अनुशासन, समयपालन, आज्ञापालन, नेतृत्व गुणोंका विकसन, जीवन का अंग स्वभाव बन जाता है। राष्ट्र धर्म के प्रेरक गीत, कहानियाँ, विषय प्रतिपादन, नित्य-नैमित्तिक कार्यक्रमों को प्रीावी बनाने हेतु नियोजन, व्यवस्थापनकुशलता, आत्मविेशास, समरसता और बहुत कुछ ग्रहण कर लेते है। मन में आश्चर्य होता है, वही हूँ मैं- जो पहले मुखदुर्बल, संकोची थी?
वर्तमान एक लोकप्रिय लहर है। ‘व्यक्तिमत्व विकास' की कितने प्रकार के वर्ग, शिबिर उद्बोधन के खर्चीले औपचारिक आयोजन होते है। केंद्र है-मैं, केवल मैं। खेलो में भी चमू जीतने-हारने का कोई सुख-दु:ख नही। ‘मैं नही, तू नहीं' का अनोखा संस्कार आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' श्रद्धा का संस्कार। यह मिट्टी शाखास्थान की - उससे घाँव भरते है, मोच जाती है, वेदना मिटती है। ‘इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है हिन्दुस्थान की', ‘चंदन है इस देश की माटी' यह श्रद्धा, निष्ठा राष्ट्र संस्कृतीधर्म की संजीवनी है। यह संजीवनी बडे भाग्यसे तपस्या के कारण मिलती है। ‘प्रसादात तव एव अत्र' पूर्वपुण्य के कारण मिलती है। हिन्दु राष्ट्र का गौरवशाली पुनरूत्थान करनेवाली शक्ति मातृशक्ति मैं हूँ, यह मेरा कितना बडा सौभाग्य, सम्मान। मैं हुँ, ज्ञान-विज्ञान दायिनी सरस्वती माता, विभयदायिनी लक्ष्मी माता और दुष्टता संहारिणी दशप्रहरणधारिणी दुर्गामाता। इस गौरवपूर्ण प्रेरणादायी आत्मभूती का स्थान समितिशाखा। भगिनी निवेदिता ने कहा था, की एक निर्धारित स्थान पर, निर्धारित समय, सामुहिक रुपसे, भारतमाता की प्रार्थना
श्रद्धाभाव से करने से उस स्थान से शक्ति का मंगल अविरत स्त्रोत निर्माण होगा। इसी अर्थसे वं. मौसिजी, वं. ताईजी से लेकर आज की छोटी सेविका तक अपने अपने स्तरपर, अपनी अपनी पद्धती से शाखा एक संजीवनी रही। अनुभुति है, यही स्वरुप निरंतर बना रहे, इसी में हमारे जीवन की सफलता, सार्थकता है।
 साभार-

शनिवार, 25 जुलाई 2015

हिंदू चिंतन से जीवन में शांती और समाधान मिलेगा इसीलिए आज विश्व उसे आत्मसात करना चाहता है, ऐसा विचार वंदनीय प्रमुख संचालिका मा. शांताक्काजी ने राष्ट्र सेविका समिति की अर्धवार्षिक बैठक के समापन कार्यक्रम में व्यक्त किया। शांताक्काजी ने आगे कहा की, त्याग आधारित जीवन बिताने से शाश्वत आनंद प्राप्त होता है इस दृष्टी से समिति कार्य भी समर्पित भाव से करना है। जिस तरह योग्य दबाव एवम उष्णता कोयले के अंदर छिपे हिरे को बाहर निकालता है वैसेही त्याग एवम साधना से कार्यकर्ता के अंतर्निहित गुण उभरकर आते है। ऐसे कार्यकर्ताओं के माध्यम से समर्थ राष्ट्र का निर्माण होता हैं।

राष्ट्र सेविका समिति द्वारा त्रिदिवसीय अर्धवार्षिक बैठक का आयोजन देवी अहिल्या मंदीर नागपूर, 17 जुलै से 19 जुलै 2015 में संपन्न हुर्इ ।


इस बैठक में राष्ट्रहित के लिए सजग होकर राष्ट्र के विकास में समस्त नागरिकों को बहुमूल्य योगदान देने का तथा भावी पीढी, समाज व देश का उज्ज्वल भविष्य निर्माण करने के लिए हम अपने बच्चों को अपने राष्ट्र की आशाओं के अनुरूप गढने की दिशा मे सार्थक कदम उठाए ऐसा आवाहन किया गया। तथा बैठक में जम्मु-काशिमर समस्या के बारे में उदबोधन दिया गया।

समिति के बैठक में देश के सभी राज्योंसे कार्यकर्ता भगिनी उपसिथत थे। समिति के ओर से आगामी वर्ष युवती प्रेरणा वर्ष के रूप में देश भर में मनाया जाएगा। इस बैठक को प्रमुख कार्यवाहिका सुश्री सीता गायत्री अन्नदानम सहित अनेक पदाधिकारीयों का मार्गदर्शन मिला।

साभार-