शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

हिंदू अपमानित तो क्या भारत गौरवान्वित?


संकलित 



$img_titleजिस वर्ष हम दुनिया के सबसे महान और क्रांतिकारी हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द की 150वीं जयंती मना रहे हैं, उसी वर्ष वही सरकार जिसने 150वीं जंयती का शासकीय स्तर पर कार्यक्रम आयोजित किया, हिंदुओं पर एक सामान्यीकृत लांछन लगा रही है।
गृहमंत्री श्री शिंदे साहब द्वारा विश्व के सबसे बड़े हिंदू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा देश के प्रमुख विपक्ष भाजपा पर आतंकवादी तैयार करने के शिविर चलाने और हिंदू आतंकवाद फैलाने का नाम लेकर जो आरोप लगाया गया, वह इतना आत्मदैन्य से भरा गैर जिम्मेदाराना बयान है कि जिसके बारे में सिर्फ केवल इतना ही कहा जा सकता है कि सर, अगर कोई देश के कानून और संविधान के विरुद्ध काम कर रहा है, उसे पकडि़ये, सजा दीजिए पर उस पर हल्के स्तर का राजनीतिक खेल तो मत करिए।
जिस हिंदू समाज ने पिछले एक हजार साल से विदेशी बर्बर आक्रमणकारियों का सामना किया, जिस विधर्मी और अधर्मी आक्रमणकारियों ने हमारे तीन हजारे से अधिक मंदिर नष्ट किए, हम्पी जैसा विश्वविख्यात नगर जला दिया, 18 बार दिल्ली को लूटा और यहां नरसंहार किया, तलवार के बल पर धर्मांतरण किया, उसके बावजूद जिसने उन तमाम मतावलंबियों के प्रति नफरत न रखते हुए खंडित आजादी के बाद भी सबको समान अधिकार दिए, तीन-तीन मुस्लिम राष्ट्रपति, वायुसेना अध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायाधीश, मंत्रिमंडलीय सचिव, आईबी के प्रमुख, आनंद और सम्मान के साथ होने दिए, क्या उस हिन्दू के मानस में ऐस घृणा का तत्व हो सकता है कि जिसे पहचान कर शिंदे साहब ने आतंकवाद के साथ हिंदू शब्द जोड़ने की जरूरत समझी ?

$img_titleआतंकवाद कायरों का काम है। जो डरपोक और चोर-उचक्कों की तरह आघात करना चाहते हैं वे आतंकवाद का सहारा लेते हैं। वीर युद्ध करते हैं और या तो शत्रु को नियमों के अंतर्गत लड़े गए युद्ध में परास्त करते हैं या वीरगति को प्राप्त होते हैं। जिस वर्ष हम दुनिया के सबसे महान और क्रांतिकारी हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द की 150वीं जयंती मना रहे हैं, उसी वर्ष वही सरकार जिसने 150वीं जंयती का शासकीय स्तर पर कार्यक्रम आयोजित किया, हिंदुओं पर एक सामान्यीकृत लांछन लगा रही है। आश्चर्य की बात यह है कि हिंदू आतंकवाद का शब्द प्रयोग किए जाने पर वे राजनीतिक दल भी चुप रहे जिनमें 90-95 प्रतिशत तक हिन्दू हैं और जो बार-बार इस बात पर आपत्ति करते हैं कि आतंकवाद के साथ इस्लामी शब्द नहीं जोड़ना चाहिए। शायद वे मानते हैं कि जब हिंदुओं पर आघात होता है तो उसका अर्थ है केवल और केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा पर आघात, इसलिए उस आघात का जवाब देने की जिम्मेदारी भी इन्हीं संगठनों पर है।
यह एक मानसिकता है जो लगातार विदेशी आक्रमणों के कारण आम हिंदू को दब्बू तथा अपने हिंदुपन के प्रति क्षमा तथा लज्जा का बोध रखने वाला बना गयी। दुनिया में केवल हिंदुओं में ही ऐसे लोग मिलेंगे जो हिंदू कहे जाने पर अचकचाकर संकोच के साथ कहेंगे- साहब, मैं तो इंसान हूं, मैं सब धर्मों में यकीन करता हूं। अपने को आग्रहपूर्वक हिंदू कहने का कोई अर्थ नहीं है। केवल हिंदू धर्म के आश्रमों, मठों और मंदिरों में अक्सर अल्लाह, जीसस तथा जरथुस्त्र के प्रतीक मिलते हैं और वहां लिखा रहता है- सब धर्मों का सार एक है, ईश्वर एक है, अल्लाह को भजो या जीसस की उपासना करो, पहुंचोगे उसी एक निराकार, परम ब्रह्म की ओर।
लेकिन यह बात किसी ईसाई या मुसलमान से आप कहें तो वह छाती तानकर, माथा उठाकर सीधे-सीधे बोलेगा कि मुझे गर्व है कि मैं ईसाई या मुसलमान हूं और मैं केवल अपने मत या मज़हब के अलावा बाकी सभी मतों और मजहबों को झूठा तथा जन्नत तक ले जाने में असमर्थ मानता हूं इसलिए उन सबके मतांतरण के लिए मैं दुनिया भर से चंदे इकट्ठा करके प्रभु के सच्चे प्रकाश की ओर ले चलने का अधिकार सुरक्षित रखता हूं।
जिस देश में हिंदुओं का बहुमत हो और जिन्होंने एक हजार साल तक विदेशी आक्रमणकारियों के जुल्म् और अत्याचार झेले हों, उन्होंने यह नहीं कहा कि कम से कम अब आजादी के बाद तो हमें अपने धर्म, मंदिर और आस्था के सांस्कृतिक तौर-तरीकों की सुरक्षा का संवैधानिक अधिकार दो तथा हमारे गरीब, अनपढ़ और मजबूर लोगों का अन्य मतों में मतांतरण पूरी तरह से काननून बंद करने का प्रावधान बनाओ। हिंदू तो इतने उदारवादी और अपने ही समाज को खत्म तथा तोड़ने की साजिशों के प्रति उदासीन रहे कि उन्होंने गैर-हिंदू अल्पसंख्यकों को वे विशेषाधिकार भी दे दिए जो खुद उन्हें प्राप्त नहीं है।
अगल-बगल में जहां कहीं हिंदू अल्पसंख्यक तथा मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, वहां मंदिर तोड़े जाते हैं, शमशान घाट तक खत्म् कर दिए जाते हैं, हिंदू बच्चे स्कूल में अपने धर्म के प्रतीक पहनकर नहीं जा सकते, अपने धर्म ग्रंथ संस्कृत में पढ़ने की सुविधा नहीं पाते, उन्हें नागरिकता के समान अधिकार नहीं मिलते और यहां तक कि अपने ही देश में एकमात्र मुस्लिम बहुल प्रांत जम्मू-कश्मीर के कश्मीर खंड से हिंदुओं को प्रताडि़त और अपमानित करके निकाल दिया गया।
फिर भी हिंदुओं में से कोई ऐसा संगठन नहीं खड़ा हुआ जिसने हिंदू राज के लिए गैर हिंदुओं के समापन का ऐलान किया हो। बल्कि दुनिया के सबसे बड़े और शक्तिशाली हिंदू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदू राज की थियोक्रेसी यानी सांप्रदायिक या पंथ पर टिकी शासन व्यवस्था का निषेध किया। हम भारत के सेक्यूलर संविधान और उसकी लोकतांत्रिक, बहुलतावादी अवधारणा को ही भारत के लिए सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।
फिर भी यदि कोई हिंदू आतंकवाद जैसा शब्द इस्तेमाल करता है तो क्या यह भारत की गौरवशाली सभ्यता, परम्परा और उसके इतिहास का अपमान नहीं ? यदि केवल कुछ व्यक्तियों के गलत आचरण के कारण पूरे समाज को दोषी ठहराना है तो क्या नैना साहनी हत्याकांड या 1984 के बर्बर सिख नरसंहार के लिए समूची कांग्रेस को दोषी ठहराते हुए कांग्रेसी आतंकवाद जैसे शब्द प्रयोग प्रचलन में लाये जाने चाहियें ? हिंदू समाज और उसकी महान परंपरा भारत की पहचान है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने आह्वान किया था कि- गर्व से कहो कि तुम हिंदू हो और केवल तभी तुम स्वयं को हिंदू कहाने योग्य कहे जाओगे जब तुम अपना आदर्श और अपना नायक गुरु गोविंद सिंह को मानो। उनकी शक्ति और भक्ति से प्रेरणा लेकर ही तुम इस भारत की सच्ची संतान हो सकते हो। शिंदे साहब क्या आपने यह सब पढ़ा है ?

रविवार, 21 अप्रैल 2013

हिंदुत्व के आधार से ही देश का पुनरुत्थान संभव : डॉ. भागवत

 हिंदुत्व अपनी स्वप्रकृति है। उसके आधार से ही देश का पुनरुत्थान संभव है, परानुकरण से नहीं, ऐसा स्पष्ट प्रतिपादन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने किया।
राष्ट्रीय स्वंयेसवक संघ के कार्य का यथार्थ रूप सभी लोगों तक योग्य प्रकार से पहुंचे इस हेतु डॉ. भागवत ने यह प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि हिंदुत्व भारत के सभी समाज घटकों को जोड़नेवाला लानेवाला सूत्र है। इस स्व के आधार से सबको करीब लाकर उनकी गुण सम्पन्नता बढ़े । सभी भेदों को भूलाकर, स्वार्थों को तिलांजलि देकर, देश के लिए जीवन-मरण की लड़ाई लड़ने के लिए सारा समाज संगठित हो ऐसा वातावरण निर्माण होने के लिए देशा के हर एक गांव, हर एक बस्ती में समाज के साथ आत्मीय सम्पर्क रखनेवाले, समाज जिन्हें विश्वास की भावना से देखता है ऐसे  गुण संपन्न कार्यकर्ताओं का निर्माण आवश्यक है। ऐसे कार्यकर्ताओं का निर्माण करने का काम यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।
                   डॉ. भागवत ने आगे कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुओं का संगठन करता है। क्योंकि संघ का मानना है कि समाज के पुरुषार्थ से ही राष्ट्र का भाग्य बदलता है। नेता,  नारा, नीति, पार्टी, अवतार, सरकार, विचार, महापुरूष ये सारे राष्ट्र का भाग्य बदलने के लिए केवल साह्य कर सकते है। समाज संगठित न हो, तैयार न हो तो ये सारे कुछ भी नहीं कर सकते। समाज तैयार हो तभी योग्य नेता, योग्य नीति, योग्य सरकार राष्ट्र का भाग्य बदल सकते हैं। इसलिए समाज का संगठित होना आवश्यक है। समाज अपने स्व के प्रति जागरुक होना चाहिए, स्वत्व के गौरव से भरे मन के साथ अपने मातृभूमि को उसके पुराने वैभव संपन्नता के दिन लौटाने के लिए अपना जीवन निःस्वार्थ बुद्धि व प्रामाणिकता से तन-मन-धन से आपने बांधवों की सेवा में जीने की उसकी परिपाटी बननी चाहिए। यह वास्तिवकता में आने के लिए उसकी रोज की आदत बननी होगी। संघ ने इसके लिए कार्य पद्धति का विकास किया है।
                                                                                    अपने समाज में कई दोष है। इन दोषों को दूर किए बिना राष्ट्र का उत्थान संभव नहीं है, यह बात अनेक महापुरुषों ने कही । संघ की विशेषता यह है
कि जो बात इतने सारे महापुरुषों ने कही उसे वास्तविकता में लाने के लिए आवश्यक कार्य पद्धति संघ ने विकसित की। हर रोज एक घंटा शाखा यह वह अमोघ कार्य पद्धति है। शाखा में बहुत ही सरल, सीधे-सादे कार्यक्रमों के माध्यम से समाज के दोष दूर करने के लिए आवश्यक संगठन निर्माण करने का तंत्र संघ ने पुछले 87 वर्षों में विकसित किया है। उसी से समाज हित के लिए सदैव तत्पर, राष्ट्र के लिए तन-मन-धन से प्रयास करनेवाले आसमानी-सुलतानी सभी प्रकार के संकटों में निजी नफा-नुकसान की चिंता न करते हुए सहायता के लिए सर्वप्रथम पहुंचनेवाले अपना काम बखुबी करने वाले, समय से पहले परिणाम देनेवाले और हर एक पैसे का हिसाब रखने वाले संघ के स्वयंसेवक ही हैं। यह समाज अब स्वानुभव से जान गया है, ऐसा कहते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से देशभर में चलाए जाने वाले सवा लाख से अधिक सेवा प्रकल्पों का जिक्र भी डॉ. भागवत ने अपने भाषण में किया।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

देश की आस्था

समस्त देशवासियों को रामनवमी की हार्दिक बधाई।इस पावन पर्व पर फिर से विचार करें, इस देश की सरकार का,जिसने अपने शपथपत्र में इस देश की आस्था के प्रतीक श्रीराम के अस्तित्व को ही नकार दिया। और अव उनके द्वारा बनवाये गये रामसेतु को हिन्दुओं का तीर्थ मानने से ही इन्कार कर दिया है।  रामसेतु जैसे पुकार रहा है-~हे राम ! त्राहि माम् । इस आर्तनाद को सिंहनाद वनाने के लिए आज आवश्यकता है-एकनिष्ठ देशभक्ति की,अडिग राष्ट्राभिमान की,और उत्कृष्ट राष्ट्रभक्ति की। 
                   हम राम-सेतु के कण -कण को देवता मानकर जीते हैं। 
                    इस रामसेतु को माँ सीता का पता मानकर जीते हैं ।। 
                                                         इन भग्न शिलाओं पर अपना गौरव भुजवल अभिमान खड़ा। 
                                                            इसकी देहली पर राम- नाम दीपक से हिन्दुस्थान खड़ा॥ 
                          इसको मत समझो रामसेतु यह तो जयकेतु विधाता का। 
                             पूरे भारत का दिव्य तीर्थ यह मन्दिर भारतमाता का॥ 

जय श्रीराम। जय हिन्दू आस्था की----  

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

जीवन में विकल्प जरुरी है



एक बार एक राजा ने अपने दो सैनिको को मृतुदंड की सजा सुनाई. तो पहले सैनिक ने राजा से बहुत विनती की कि "उसे मृतुदंड न दिया जाए" पर राजा ने उसकी बात नही सुनी। तब दुसरे सैनिक ने राजा से कहा "महाराज मैं एक ऐसी विद्या जानता हूँ ,जिससे आप का घोड़ा उड़ने लगेगा"(उसे पता था की राजा को अपने घोडे से बहुत प्रेम है). राजा ने कहा कि "मैं कैसे मानु की तुम सही बोल रहे हो". सैनिक बोला "महाराज आपने ने मुझे मृतुदंड दिया है अगर मैं मर गया तो ये विद्या मेरे साथ खत्म हो जायेगी और वैसे भी एक मरने वाला आदमी कभी झूठ नही बोलेगा".राजा बोला "ठीक है मैं तुम्हे एक वर्ष का समय देता हूँ अगर तुमने मेरे घोडे को उड़ना सिखा दिया तो तुम्हे जीवन दान मिल जाएगा अन्यथा तुम्हे मौत मिलेगी". सैनिक इस बात पे तैयार हो गया .
राजा के जाने के बाद पहले सैनिक ने दुसरे से पूछा "क्या तुम्हे वाकई में ऐसी विद्या आती है ". दुसरे ने बोला "नही! मुझे ऐसी कोई विद्या नही आती ". पहले ने फिर पूछा "फ़िर तुमने राजा से झूठ क्यों बोला की तुम उनके घोडे को उड़ना सिखा दोगे". दूसरा सैनिक बोला "अगर मैं ऐसा नही बोलता तो मैं आज ही मार दिया जाता पर अब मेरे पास एक वर्ष का समय है ". पहले ने फिर पूछा "लेकिन एक वर्ष बाद जब तुम घोडे को उड़ना नही सिखा पायोगे तो तुम्हे मार दिया जाएगा". दूसरा सैनिक बोला " मेरे पास अब चार विकल्प है "
१ . एक वर्ष के अन्दर राजा मर सकता है .
२. एक वर्ष के अन्दर घोड़ा मर सकता है .
३. मैं भी मर सकता हूँ .
४. शायद मैं घोडे को उड़ना सिखा ही दूँ ?
पर तुम्हारे पास केवल एक ही विकल्प है कि "आज तुम्हे मार दिया जाएगा".


इस प्रसंग से मैं ये कहना चाहता हूँ कि आप जब भी कोई काम करे तो कम से कम एक से ज्यादा विकल्प आप के पास होने चाहिए अन्यथा आप मुसीबत में पड़ सकते हैं   संकलित 

शर्त और अनुभव{संकलित ]


उम्र के साथ अनुभव आता है , एक बुजुर्ग व्य]क्ति और नवयुवक के बीच जो सोच तथा निर्णय का जो फर्क होता है वो अनुभव के कारण ही होता है ।

शायद आपने ये कहानी सुनी होगी . एक बार की बात है, एक शादी में लड़की वालों ने शर्त रखी की बारात में कोई बुजुर्ग नहीं आयेगे , केवल जवान ही शादी में शामिल होंगे . यह बात जब गाँव के एक बुजुर्ग राम जियावन बाबा को पता चली तो वो बोले "देखो बारात में केवल जवान लोग बुलाये गए हैं तो हो न हो कोई गड़बड़ जरुर है ". लड़के के मित्र बोले "बाबा आपको जाने को नहीं मिल रहा है इसलिए आप ऐसा बोल रहे हो ". राम जियावन बोले "नाहीं बच्चा , कुछ बात है, तभी लड़की वाले ऐसी शर्त रखे हैं ".

लड़के के पिता जी बोले "देखिये रिश्तेदारी में शादी हो रही है तो क्या गड़बड़ होगी. लड़की का भाई तो हमें भी आने से मना कर गया है ". राम जियावन बोले "देखो भैया , हम तो शादी में जायेंगे ". लड़के के पिता जी बोले "ठीक है राम जियावन आप लड़को से पूछ लीजिये की वो आप को ले के जायेंगे की नहीं ". लड़को ने मना कर दिया की हम बाबा को लेके नहीं जायेगे .

बाबा ने लड़के के छोटे भाई को बुलाया और कहा "देखो , हम शादी में जायेंगे और ये बात किसी को पता नहीं चलनी चाहिए". लड़के भाई भाई बोला "पर आप जायंगे कैसे ". बाबा बोले "वो जो कपडे और सामान वाला बक्सा जा रहा है , वैसे ही एक बक्से में हम बैठ के चले जायेंगे और वो बक्सा तुम गाड़ी से निचे मत उतरवाना ".

शादी का दिन आ गया ,केवल जवान लड़के ही बारात में शामिल हुए और बाबा बक्से में बैठ कर चल दिए . बारात लड़की के दरवाजे पर पहुंची तो बड़ी आव-भगत हुई लोग बड़े खुश वाह मज़ा आ गया कोई बड़ा नहीं है जम के खायो-पियो . नाश्ते के बाद जब रात में खाने का समय आया तो लड़की का भाई आया और बोला "भोजन तैयार हो गया है पर एक सब्जी बनना बाकी रह गयी है अगर उसे आप लोग बना ले तो आप भोजन कर सकते है अन्यथा आपको भोजन नहीं मिलेगा ".

दुल्हे के दोस्त बोले "अरे इतने लोग है सब्जी तो आराम से बन जायेगी बस आप सब सामान दे दीजिये". लड़की का भाई एक बड़ा सा मटका, जलाने के लिए लकडी और सामान ले आया और बोला "इस मटके में कोहडा (कद्दू ) है आप लोग इसकी सब्जी बना लीजिये शर्त ये है की ये मटका टूटना नहीं चाहिए ". अब सारे लड़के सोच में पड़ गए की बिना मटके को तोडे कोहडा (कद्दू ) बहार कैसे आएगा और उसकी सब्जी कैसे बनेगी .तभी किसी ने लड़की के भाई से पूछा "महाराज , ये कद्दू इस मटके में गया कैसे ?". लड़की का भाई बोला जब कद्दू बहुत छोटा था तभी उसे मटके में डाल दिया था , धीरे-धरे कद्दू बढता गया और अब वो मटके जितना बड़ा हो गया है ".

सारे युवक परेशान की अब सब्जी कैसे बनेगी ,और सोचने लगे "यही बात थी तभी बुजुर्गो को आने से मना किया था ".जब सब सोच के थक गए तो दुल्हे के छोटे भाई को याद आया की बक्से में तो राम जियावन बाबा है , उन्ही से पूछ के आते है . वह बाबा के पास जाता है और बाबा को पूरी कहानी बताता है , बाबा पूरी कहानी सुन कर बोलते है "बस इतनी सी बात ". लड़का बोलता है "हम बहुत देर से परेशान है और आप कह रहे हैं इतनी सी बात , बताइए सब्जी कैसे बनेगी ". बाबा बोले "कद्दू को मटके में ही रहने दो, मटके को आग पर रख पर पकाना शुरू करो, थोडा पानी डाल देना मटके में जब पानी मर्म हो जाये तो कद्दू को लकडी से मार के फोड़ देना और फिर नमक -मसाला डाल के पका देना , सब्जी बन जायेगी ". लड़के ने बाबा की बताई हुई बात पर अमल किया ,थोडी मेहनत के बाद सब्जी तैयार हो गयी तो लड़की वालो को खबर कर दी गयी .

लड़की के पिता जी आये और जब उन्होंने देखा की लड़को ने सब्जी बना दी है तो उन्होंने कहा "हो न हो , आप लोगों के साथ कोई बुजुर्ग जरुर आया है वरना आप को कैसे पता चला की कद्दू की सब्जी बिना कद्दू को काटे हुए भी बन सकती है ". लड़के पहले मना करते रहे की उनके साथ कोई बुजुर्ग नहीं आया है पर जब वो लोग नहीं माने तब दुल्हे के भाई ने बताया की राम जियावन बाबा आये हैं और वो बक्से में बैठे हुए हैं . लड़की के पिता जी बोले "ऐसा अनुभव केवल बुजुर्ग व्यक्ति के पास ही हो सकता है ".

भारतीय भाषाओँ की वैज्ञानिकता

भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी अपने आप में पूर्णत: वैज्ञानिक भाषा है। कंप्यूटर के लिए संस्कृत को सबसे उपयुक्त भाषा आज के वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। हिंदी इस भाषा (संस्कृत) की उत्तराधिकारी भाषा है। संस्कृत ने जिन अक्षरों का प्राचीन काल में आविष्कार कर भाषा विज्ञान को विकसित किया उसे हिंदी ने बड़े ही गौरवमयी ढंग से सहेज कर रखा है। अक्षर का अर्थ क्षरण न होने वाले से है। ‘ऊँ’ भी एक अक्षर है, जो प्रलयपर्यन्त भी क्षरित अर्थात नष्ट नही होता। इसका अस्तित्व सदा बना रहता है। इसी प्रकार भाषा के विकास के लिए जिन अक्षरों का आविष्कार किया गया है वो भी नष्टï न होने वाले हैं। उन्हें लिखने का ढंग नई सृष्टि में भिन्न हो सकता है-लेकिन उनका अस्तित्व नष्ट नही होगा। इसी लिए संस्कृत जैसी समृद्घ भाषा ने ‘अक्षर’ नाम देकर अक्षरों के साथ न्याय ही किया है-मानो अक्षर नाम के साथ सृष्टिï से सृष्टि का जो अनवरत क्रम चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा-इस क्रम का रहस्य खोल दिया गया है-कि इनमें ईश्वर, जीव और प्रकृति की भांति अजर और अमर यदि कोई है तो वह अक्षर ही है। संसार की अन्य भाषाओं ने अक्षर को अक्षर जैसा नाम नही दिया है। संस्कृत ने अक्षर नाम विज्ञान के शाश्वत नियमों को पढ़ व समझकर दिया है कि प्रत्येक वस्तु अपना रूप परिवर्तित करती है-उसके तत्वों का कभी विनाश नही होता। इस विज्ञान को समझने में पश्चिमी जगत को युगों लगे जबकि संस्कृत ने इसे सृष्टि के प्रारंभ में ही समझ लिया था और जब ये सृष्टिï आंखें खोल रही थी। जो संस्कृत मां के रूप में उसे अक्षर की लोरियां सुना रही थी। संसार के वैज्ञानिक सृष्टि प्रारंभ में सर्वप्रथम ध्वनि के उत्पन्न होने की बात कहते हैं-वह ध्वनि ओउम का पवित्र गुंजन था। यह पवित्र गुंजन बहुत देर तक चला और फिर इसी से सृष्टि का निर्माण होना प्रारंभ हुआ। आज भी सनातन धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य का प्रारंभ ‘ध्वनि’ (शंख में पवित्र शब्द ओउम की गुंजार) से किये जाने की परंपरा है। मानो आज फिर एक नई सृष्टि की रचना हो रही है    

शक्ति साधना


राम की शक्तिपूजा
   संकलित 
ब श्रीराम की सेना के सम्मुख रावण खड़ा था तो रावण की मायावी शक्ति के आगे राम की सेना टिक नहीं पायी। वानर सेना मारे डर के तितर-बितर भागने लगी। हजारों वानर सैनिक रावण के घातक प्रहार से मारे गये। सूर्यास्त के समय जब दोनों की सेना अपने-अपने शिविरों में लौटे, तब विजय के दंभ के कारण चलते हुए राक्षस अपने भारी पगों से पृथ्वी को कंपा रहे थे। उनके विजय हर्ष के कोलाहल से जैसे सारा आकाश गूँज रहा था। इसके विपरीत वानर-सेना के मन में घोर निराशा थी। अपनी सेना के मुख-मंडल पर व्याप्त निरुत्साह को देखकर राम का हृदय व्याकुल हो गया। उन्हें लगने लगा कि रावण की शक्ति और पराक्रम के बल के आगे अपनी सेना टिक नहीं पायेगी और सीता को रावण की कैद से छुड़ाना असंभव है। इस चिंता में डूबे श्रीराम के शिथिल चरण-चिन्हों को देखती वानर-सेना अपने शिविर की ओर बिखरी-सी चल रही थी। मुरझाकर झुक जानेवाले कमलों के समान मुँह लटकाये लक्ष्मण के पीछे सारी वानर-सेना चल रही थी। उनके आगे अपने माखन जैसे कोमल पग टेकते राम चल रहे थे। उनके धनुष की डोरी इस समय ढीली पड़ रही थी। तरकश को धारण करनेवाला कमरबंध भी एकदम ढीला-ढाला हो गया था। राम इस समय ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे किसी कठिन पर्वत पर रात्रि का अंधकार उतर आया हो।
        वे सब लोग चलते हुए पहाड़ की चोटी पर बसे अपने शिविर में पहुँचे। सुग्रीव, विभीषण, जांबवान आदि वानर; विशेष दलों के सेनापति; हनुमान, अंगद, नल, नील, गवाक्ष आदि अपनी सेनाओं को विश्राम शिविरों में लौटाकर अगली सुबह होनेवाले युद्ध के लिए विचार-विमर्श करने हेतु बड़े ही मंद कदमों से अर्थात पराजय की चिंता में डूबे हुए वहाँ पहुँचे।
       रघुकुल भूषण श्रीराम एक श्वेत पत्थर के आसन पर बैठ गए। उसी क्षण स्वभाव से चतुर हनुमान उनके हाथ-पांव धोने के लिए स्वच्छ पानी ले आए। बाकी के सभी वीर योद्धा संध्याकालीन पूजा-पाठ आदि करने के लिए पास वाले सरोवर के किनारे चले गये। अपने संध्या-पूजा से शीघ्र निवृत्त होकर जब वे सभी वापस लौटे, तो राम की आज्ञा को तत्परता से सुनने के लिए सभी लोग उन्हें घेरकर बैठ गए। लक्ष्मण राम के पीछे बैठे थे। मित्र-भाव से विभीषण और स्वभाव से धैर्यवान, जाम्बवन्त भी उनके समीप ही बैठे थे। राम के एक तरफ सुग्रीव थे और चरण-कमलों के पास महावीर हनुमान विराजमान थे। बाकी सभी सेनानायक अपने-अपने उचित और योग्य स्थानों पर बैठकर रात के नीले कमल के विकास और शोभा को भी जीत लेनेवाले श्याम-मुख को देख रहे हैं। इधर राम के मन में हार-जीत का संशय भाव रह-रहकर उद्वेलित हो रहा था। राम का जो हृदय शत्रुओं का नाश करते समय आज-तक कभी भी थका या भयभीत नहीं हुआ था, राम का जो हृदय अकेलेपन में भी कभी विचलित नहीं हुआ था, वही इस समय रावण से युद्ध करने के लिए व्याकुल होकर भी, प्रस्तुत रह कर भी बार-बार अपनी असमर्थता और पराजय को स्वीकार कर रहा था। श्री राम के चेहरे में उमटी इस चिन्ता की रेखा को देखकर जाम्बवन्त ने इसका कारण पूछा। तब श्रीराम ने कहा, ” रावण के पास मायावी शक्ति है और युद्धकला में वह निपुण है। जिस तरह उसने हमारी सेना का संहार किया उससे तो ऐसा लगता है कि उसपर विजय प्राप्त करना असम्भव है। हमारी सेना में उसके मायावी शक्ति का कोई तोड़ नहीं है।”     राम की शक्तिपूजाराम की बातें सुनने के बाद वृद्ध जाम्बवन्त ने राम को महाशक्ति की आराधना करने की सलाह दी और कहा कि, ” हे राम ! यदि रावण शक्ति के प्रभाव से हमें डरा सकता है तो निश्चय ही आप महाशक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करके उसे नष्ट कर पाने में समर्थं होंगे। अतः आप भी शक्ति की नव्य कल्पना करके उसकी पूजा करो। आपके साधना की सिद्धि जब तक प्राप्त नहीं हो पाती, तब तक युद्ध करना छोड़ दीजिए। तब तक विशाल सेना के नेता बनकर लक्ष्मण जी सबके बीच में रहेंगे, हनुमान, अंगद, नल-नील और स्वयं मैं भी उनके साथ रहूँगा। इसके अतिरिक्त जहाँ कहीं भी हमारी सेना के लिए भय का कोई कारण उपस्थित होगा; वहाँ सुग्रीव, विभीषण आदि अन्य पहुँच कर सहायता करेंगे।’जाम्बवन्त की सलाह सुनकर सभा खिल गई।”
           जाम्बवन्त के परामर्शानुसार श्रीराम ने हनुमानजी को 108 सहस्त्रदल कमल लाने का आदेश दिया। हनुमानजी ने वैसा ही किया। सारी वानर सेना देवी आराधना के लिए आवश्यक साधन जुटाने तथा उसकी व्यवस्था करने में व्यस्त हो गये। सभी के मन में माँ दुर्गा के दर्शन की अपार लालसा थी। आठ दिन प्रभु श्रीराम युद्ध के मैदान से दूर माँ भगवती की पूजा में लीन हो गए। राम द्वारा महाशक्ति की आराधना के पाँच दिन क्रम से बीत गए। उनका मन भी उसी क्रम से विभिन्न साधना-चक्रों को पार करते हुए ऊपर ही ऊपर उठता गया। प्रत्येक मंत्रोच्चार के साथ एक कमल महाशक्ति को वे अर्पित कर देते। इस प्रकार वे अपनी साधनाहित किया जानेवाला मंत्र-जाप और स्तोत्र पाठ पूरा कर रहे थे। राम की साधना का जब आठवाँ दिन आया तो ऐसा लगने लगा जैसे उन्होंने सारे ब्रम्हांड को जीत लिया। यह देखकर देवता भी स्तब्ध-से होकर रह गए। परिणामस्वरूप राम के जीवन की समस्त कठिन परिस्थितियों के परिणाम नष्ट हो करके रह गए। अब पूजा का एक ही कमल महाशक्ति को अर्पित करने के लिए बाकी रह गया था। राम का मन सहस्रार देवी दुर्गा को भी पार कर जाने के लिए निरंतर देख रहा था। रात का दूसरा पहर बीत रहा था। तभी देवी दुर्गा गुप्त रूप से वहाँ स्वयं प्रकट हो गई और उन्होंने पात्र में रखे एक शेष कमल पुष्प को उठा लिया। देवी-साधना का अंतिम जाप करते हुए, राम ने जैसे ही अंतिम नील कमल लेने के लिए अपना हाथ बढाया, उनके हाथ कुछ भी न लगा। परिणामस्वरूप उनका साधना में स्थिर मन घबराहट के कारण चंचल हो उठा। वे अपनी निर्मल आँखें खोलकर ध्यान की स्थिति त्याग वास्तविक संसार में आए और देखा कि पूजा का पात्र रिक्त पड़ा है। यह जाप की पूर्णता का समय था, आसन को छोड़ने का अर्थ साधना को भंग करना था। अतः राम के दोनों नयन निराशा के आँसुओं से एक बार फिर भर गए।
       अपने जीवन को धिक्कारते हुए, राम कहने लगे,- ''मेरे इस जीवन को धिक्कार है जो कि प्रत्येक कदम पर अनेक प्रकार के विरोध ही पाता आ रहा है। उन साधनों को भी धिक्कार है कि जिनकी खोज में यह जीवन सदा ही भटकता रहा। हाय जानकी ! अब साधना पूरी न हो पाने की स्थिति में प्रिय जानकी का उद्धार संभव नहीं हो सकेगा।” इसके अतिरिक्त राम का एक और मन भी था, जो कभी थकता न था और न ही अनुत्साह का अनुभव ही किया करता था। जो न तो दीनता प्रकट करना जानता था और न विपत्तियों के आगे कभी झुकना ही जानता था। राम का वह स्थिर मन माया के समस्त आवरणों को पार कर बड़ी तेज गति से बुद्धि के दुर्ग तक जा पहुँचा। अर्थात्‌ इस निराशाजनक स्थिति में भी राम ने बुद्धि-बल का आश्रय नहीं छोड़ा था। राम की अतीत की स्मृतियाँ जाग उठीं। उनमें विशेष भाव पाकर उनका मन प्रसन्न हो गया। ‘ बस, अब यही उपाय है, राम ने बादलों की गंभीर गर्जना के स्वर में स्वयं से कहा- ‘‘ मेरी माता तुझे सदा ही कमलनयन कहकर पुकारा करती थीं। इस दृष्टि से मेरी आँख के रूप में दो नीले कमल अभी भी बाकी हैं। अतः हे माँ दुर्गे ! अपनी आँख रूपी एक कमल देकर मैं अपना यह मंत्र या स्तोत्र-पाठ करता हूँ।’’ ऐसा कहकर राम ने अपने तरकश की तरफ देखा, जिसमें एक ब्रह्म बाण झलक रहा था। राम ने लक-लक करते उस लंबे फल वाले बाण को अपने हाथ में ले लिया। अस्त्र अर्थात्‌ बाण को बाएँ हाथ में लेकर राम ने दाएँ हाथ से अपनी दायाँ नेत्र पकड़ा। वे उस नयन को कमल के स्थान पर अर्पित करने के लिए तैयार हो गए। जिस समय अपना नेत्र बेंधने का राम का पक्का निश्चय हो गया, सारा ब्रह्मांड भय से काँप उठा। उसी क्षण बड़ी शीघ्र गति से देवी दुर्गा भी प्रकट हो गई।”
राम की शक्तिपूजामहाशक्ति दुर्गा ने यह कहते हुए राम का हाथ थाम लिया कि धन्य हो। धैर्यपूर्वक साधना करनेवाले राम, तुम्हारा धर्म भी धन्य-धन्य है। तब राम ने पलकें उठाकर सामने देखा- अपने परमोज्ज्वल और तेजस्वी रूप में साक्षात्‌ दुर्गा देवी खड़ी थीं। उनका स्वरूप साकार ज्योति के समान था। दस हाथों में अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्र सजे हुए थे। मुख पर मंद मुस्कान झिलमिला रही थी। उस मुस्कान को देखकर सारे संसार की शोभा जैसे लज्जित होकर रह जाती थी। उसके दाईं ओर लक्ष्मी और बायीं ओर युद्ध की वेश-भूषा में सजे हुए देव-सेनापति कार्तिकेय जी थे। मस्तक पर स्वयं भगवान शिव विराजमान थे। देवी के इस अद्‌भुत रूप को निहार मंद स्वरों में वंदना करते हुए राम प्रणाम करने के लिए उनके चरण-कमलों में झुक गए।
       अपने सामने नतमस्तक राम को देखकर देवी ने आशीर्वाद और वरदान देते हुए कहा – ” हे नवीन पुरुषोत्तम राम ! निश्चय ही तुम्हारी जय होगी।” इतना कहकर वह महाशक्ति राम में विलीन हो गई। उन्हीं में अंतर्हित होकर रह गई।
       माँ के आशीर्वाद से ही राम की सेना में महाशक्ति का अविर्भाव हुआ और श्रीराम ने रावण का वध करके माता जानकी को उसके चंगुल से मुक्त किया। हमारे देश में प्रभु श्रीराम के इस समर्पित भक्ति के आदर्श को धारण करने वालों का अभाव दिखता है। भले ही आज माँ की पूजा में बड़े-बड़े देवियों की मूर्ति की स्थापना की जाती है, बड़े-बड़े पेंडाल लगाए जाते हैं परंतु माँ तो राम के भक्ति से ही प्रगट होती है। राम का आदर्श लिए बिना शक्ति की आराधना अधुरी है। शक्ति को धारण करने के लिए रामवत हृदय की आवश्यकता है। आइए, इस नवरात्री पर्व के पावन अवसर पर हम शक्ति साधना के व्रत को समाज में जागृत करने का संकल्प लें,…पर शुरुवात तो स्वयं से ही करनी होगी।
             !! जय मां शक्ति….जय श्री राम…जय हनुमान !!