सोमवार, 2 जून 2014

संस्थापिका एवं आद्य प्रमुख संचालिका वं.मौसीजी

वह समर्थ महिला कौन थी, जिसने केवल भारत में ही नही अपितु पूरे विश्वभर के विभिन्न देशों में रहनेवाली सैकडों-हजारो महिलाओं में हिन्दुत्व की भावना की ज्योति जगाकर उन्हें संगठन का महान मंत्र पढाया है। उस अलौकिक व्यक्तित्व का जीवन कैसा रहा होगा, जिसने मातृशक्ति को राष्ट्रकार्य के लिए प्रेरित किया और साकार हुआ एक विश्वव्यापी नारी संगठन जिसे आज विश्वभर में सम्मान की नजर से देखा जाता है।

व्यक्तिगत जीवन

राष्ट्र सेविका समिती की आद्य संस्थापिका श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर उपाख्या वं. मौसीजी के जीवन के बारे में जानने के लिए सभी निश्चित ही उत्सुक होंगे। माँ जैसी ममताका वर्षाव करनेवाली वं. मौसीजी का जन्म आषाढ शुद्ध दशमी के अवसरपर ५ जुलै १९०५ को नागपूर के दाते परिवार में हुआ। तरोताजा प्रफुल्लित कुसुम जैसी बालिका देखते ही डॉक्टर ने उनका नामकरण ‘कमल' रख दिया। (जो आगे जाकर यथार्थ सिद्ध हुआ।) दाते परिवार लौकिकार्थ से विशेष संपन्न नही था, परंतु वैचारिक रूपसे पूर्णतः, संपन्न था। छोटी कमल ने अपनी ताईजी से सुश्रुषा का गुण, पिताजी से तन-मन-धन से सामाजिक कार्य का तथा माताजी से निर्भयता, राष्ट्रप्रेम के गुण विरासत में लिए, आत्मसात किये। लो. तिलकजी की प्रतिमा घर में रखकर, पास-पडोसकी महिलाओं को एकत्रित करके उनकी माताजी ‘केसरी' नामक समाचार पत्रका वाचन करती थी। जिन दिनो सरकारी नौकरों को केसरी घरमें रखने की अनुमती नही थी, उन दिनों में कमल की माताजी अपने नाम पर केसरी खरीदती थी। अपनी चाची ताईजी के साथ वह गोरक्षा हेतु भिक्षा के लिए तथा कीर्तनों में जाती थी और जानेअंजाने संस्कार ग्रहण कर रही थी। जिसका प्रभाव उनकी बाल्यावस्थासे ही दिखाई देने लगा। उन दिनों में स्वतंत्र बालिका विद्यालय न होने के कारण उन्हें मिशनरी स्कूल में प्रवेश लेना पडा। वहाँ की शिक्षा और घर में मिलनेवाली शिक्षामें महान अंतर का प्रतीत होने से उनके मनमें निरंतर संघर्ष चलता रहता था और यही संघर्ष एक दिन वास्तव रूप में उभर आया विद्यालय में प्रार्थना के समय आँखे बंद रखने का नियम था। एक दिन कमल ने बीच में ही आँखे खोली, तो उसे डांट पडी। तो निर्भय कमल ने तुरंत उस अध्यापिका से प्रश्न किया ‘अगर आपकी आँखे बंद थी तो आपको कैसे पता चला की मैने आँखे खोली थी?' जिसका उत्तर अध्यापिका के पास नही था। कमल ने उस विद्यालय में जाना छोड दिया। अब उनकी आगे की शिक्षा हिन्दु प्रेमी व्यक्तियों द्वारा स्थापित ‘हिन्दु मुलींची शाळा' इस विद्यालय में हुई। उन दिनों की प्रथा के अनुसार कमलकी शिक्षा चौथी कक्षा तक पहुँचते ही उसके विवाह के प्रयास शुरू हो गये। कमल बचपन से ही अपने विचारों के बारे में सचेत थी, उसमें आत्मविश्वास ओतप्रोत भरा था। वाचन, श्रवण, मनन से वह परिपक्व हो चुकी थी। अन्याय कारक घटनाओं से उसे बचपन से ही चीढ थी। दहेज प्रथा की शिकार बनी बंगाल की स्नेहलता के पत्रने उनके अंदर के स्फुल्लिंग को चेतावनी सी मिली और उन्होंने सभी को बिना दहेज दिये और लिए विवाह के लिए आग्रहपूर्वक प्रेरित किया और स्वयं भी इसी विचारधारा का अनुकरण किया। विवाह के पश्चात् लगभग १४ वर्ष की आयुमें ही वह दो बच्चों की माँ, बन गयी। विवाह के बाद वह ‘कमल' से ‘लक्ष्मी' बनी। उनके पती पुरुषोत्तम राव केलकर वर्धा के प्रख्यात विधिज्ञ (वकील) थे। उनकी रहन-सहन और विशिष्ट स्वभाव के कारण लोग उन्हें सरदार कहते थे। कमल को वैवाहिक जीवन का सुख १०-१२ साल ही मिला, राजयक्ष्मा के कारण अल्पायुमें ही पुरुषोत्तम राव परलोक सिधारे। अब लक्ष्मी के सामने ८ संतानो की - २ बेटियाँ और ६ बेटे की जिम्मेदारी थी। पतिनिधन का वज्राघात, बच्चों की देखभाल, गृहस्थी की जिम्मेदारी इन आपत्तियों से लक्ष्मी सी हो गयी।

विवाहोत्तर जीवन :

अपने पती के जीवनकाल में भी लक्ष्मी अपनी गृहस्थी की सभी जिम्मेदारियों को निभाते हुए कांग्रेस की प्रभात फेरी, पिकेटींग आदि कार्यक्रमों में सक्रिय थी। पती निधन के पश्चात् भी उनके कार्यक्रम चलते ही रहे, जिस समय विधवा होते ही महिला को बाहर के दरवाजे बंद किये जाते थे। ऐसे समय लक्ष्मी का यह व्यवहार प्रवाह को विरूद्ध दिशा में मोडने वाला था। वह वर्धा के गांधी आश्रम में प्रार्थना के लिए उपस्थित रहती थी। प्रार्थना के समय गांधीजी द्वारा इस कथन ने उन्हें अंतर्मुख बनाया कि सीता के जीवन से ही राम की निर्मिती होती है, अतः महिलाओंने अपने सामने सदैव सीताजी का आदर्श रखना चाहिए। अब लक्ष्मी ने सीता में स्त्री की वास्तविक भूमिका को खोजने के लिए रामायण का अध्ययन शुरु किया। महिलाओं की स्थिती, उनके ऊपर लादे गये बंधन, अपहरण, अत्याचार तो वह स्वयं देखती थी, समाचार पढती थी। धीरे-धीरे जीवन पद्धती में परिवर्तन हो रहा था। स्त्री की ओर देखने का दृष्टीकोण बदलने लगा था, उसे पढने को प्रवृत्त किया जाने लगा। केशवपन प्रथा का भी जोरदार विरोध हो रहा था। स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूपमें माना जाने लगा। स्त्री को निर्भयता से डटकर खडा होना आवश्यक है इसकी आवश्यकता वह स्वयं ही अनुभव कर रही थी।

बंगाल में कुसुमबाला को घसीटकर ले जाकर उसका अपहरण करते समय गुंडोंने उस के पति को सुनाया कि, कानून तुम लोगों के लिए है। हमारा कानून हमारी बाहुओं में है। ऐसी घटनाओं से महिलाओं की असुरक्षितता प्रकट होती थी और परिणाम स्वरुप लक्ष्मीजी के मन में दिनरात विचार मंथन चलता रहता था कि अब महिलाओं को स्वसंरक्षणक्षम कैसे बनाये। कौन सा मार्ग ढूँढे?

लगभग इसी समय अपने पुत्र मनोहर और दिनकर के माध्यम से उनका परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ और इसी प्रकार का संगठन महिलाओं के लिए भी बनाने की आवश्यकता की बात उनके मन ने ठान ली। उनके मन में डॉ. हेडगेवारजी से भेंट करने की इच्छा जाग उठी और संयोगवश यह अवसर शीघ्र ही उन्हें प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने बेटों से डॉक्टर हेडगेवारजी से अपने स्वयंसेवक बेटों की अभिभावक के नाते मिलने की इच्छा प्रदर्शित की। उन दिनों पिता या घर के पुरुष को ही अभिभावक समझा जाता था। इसलिए बेटों ने अधिकारियों से पूछकर अनुमति ले ली और अनुमति मिलने पर कार्यक्रम के समय वे उपस्थित रही। वार्तालाप के लिए अलग से समय माँगने पर डॉक्टर साहबने स्वीकृती दे दी। उस समय वं. मौसीजीने महिलाओ के लिए भी राष्ट्रीय दृष्टी से संघटित होने की आवश्यकता की बात बतायी। तथा महिला व्यक्तिगत ही नहीं अपितु सामाजिक दृष्टी से सुरक्षित होने की बातको भी उठाया। वं. मौसीजी का दृढनिश्चय तथा प्रगल्भता को देखकर डॉक्टरजी ने उन्हें इस कार्य से पूरा सहकार्य देने का आश्वासन दिया। अब मौसीजी के विचारों को वास्तविक रूप प्राप्त हुआ और राष्ट्र सेविका समिति का जन्म होकर वर्धा में उसका कार्य प्रारंभ हुआ। महिलाएँ प्रतिदिन निश्चित समय पर एकत्रित होने लगीं, मातृभूमी के प्रति अपने दायित्व के रूपमें सोचने लगी। प्रार्थना तैयार हुई, जिससे मन में हिन्दुत्व जगे, शक्ति, बुद्धि प्राप्त हो, स्त्री सुशीला, सुधीरा समर्थ बनें। इस तरह महिलाओं का प्रतिदिन एकत्रित होना, सैनिकी पद्धतिका प्रशिक्षण लेना यह बात उस समय के समाज द्वारा विरोध भी हुआ, लेकिन मौसीजी अपने विचार से परे नहीं हटी। गृहस्थी के साथ-साथ यह कार्य करना रस्सीखेच जैसा ही था।

स्वयं सिद्धता :

स्वयं को निरंतर संगठन के ढाँचे में ढालने का उनका प्रयास निरंतर जारी था। प्रारंभ में उन्हे भाषण देने का अभ्यास नहीं था। वक्तृत्वशैली भी नहीं थी। लेकिन समाज जागरण के हेतु से समाज को मार्गदर्शन करने की आंतरिक, अत्यंतिक इच्छा थी, जिससे आगे का मार्ग सुगम हुआ। विषय का अध्ययन करना, उसमें से महत्त्वपूर्ण मुद्दे निकालना और उन्हें प्रभावी भाषा में जनता के सामने प्रस्तुत करना - यह बातें अभ्यासपूर्वक आत्मसात की और आत्मविश्वासपूर्वक अपने विचार व्यक्त करनेवाली उत्कृष्ट वक्ता बन गई। मधुर आवाज, स्पष्ट उच्चारण, भावस्पर्शी शब्दों का चयन इन सबका मनोहारी संगम होने के कारण उनका वक्तृत्व श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था।

उन्हें समिति की शाखा-शाखाओं में जनसंपर्क हेतु जाना पडता था, इसलिए मौसीजीने साइकिल चलाना सीख लिया, तैरना भी उन्हें आता था। उनकी बेटी वत्सला की पढने में रुचि देखकर घरपर शिक्षक बुलाकर उसकी पढाईका प्रबंध किया। वर्धा में विद्यालय शुरु करने के लिए अपनी देवरानी को प्रोत्साहित किया और वहाँ पढाने के लिए आयी कालिंदीताई, वेणुताई जैसी शिक्षिकाओं का रहने का प्रबंध अपने स्वयं के घर में किया, जिन शिक्षिकाओं ने उन्हें समिति का कार्य में भी सहयोग दिया।

गहरा चिंतन :

वं. मौसीजीने संगठन की चौखट स्वयं तैयार की थी। जिसमें उन्होंने अपने स्वयं के विचारों से ध्येय धोरण के रंग भरे थे। स्वसंरक्ष हेतु समिती में दी जानेवाली शारीरिक शिक्षा कहीं उसकी शारीरिक रचना या स्वास्थ्य में बाध तो नही बनेगी इस बातपर भी वह सोचती थी। १९५३ में उन्होंने स्त्रीजीवन विकास परिषद का आयोजन करके डॉक्टरोंको एकत्रित किया और महिलाओं के सौष्ठव के बारे में परिचर्चा आयोजित की। योगासन का महत्व जानकर उन्होंने स्वयं योगासनों की शिक्षा ली। योगमूर्ति जनार्दन स्वामीजी को अनेक स्थानोंपर आमंत्रित करके सेविकाओं को योगासनों का शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण दिया। समिती के शिक्षा वर्गो में भी योगासन का समावेश किया गया।

सेविका कैसी हो उनके सामने इसकी स्पष्ट रूपरेखा थी कि वह संतुलित व्यक्तित्ववाली हो तभी वह समाज के लिए पोषक और प्रेरक सिद्ध होगी। अतः उन्होंने देवी अष्टभुजा की प्रतिमाआराध्यदेवता के रूप में सेविकाओं के सामने रखी। देवी के आठ हाथों में धारण किये आयुधों का वह वर्णन करके बताती थी जिसमें से उनकी अलौकिक प्रतिभा तथा प्रगल्भ और गहरे चिंतन की ज्योति झलकती थी।

रामभक्ति :

मौसीजी राम की निस्सीम भक्त थी। उन्होंने रामायण पर उपलब्ध अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया और उसमें का राष्ट्रीय दृष्टीकोण अपने १३ दिनों के रामायण के प्रवचन के माध्यम से जनता के सामने लाकर स्पष्ट किया। उन्होंने लगभग १०८ प्रवचन किये और लोगों को समझाया राम को केवल भगवान समझकर उसकी पूजा मत करो, वह एक राष्ट्रपुरुष है, उसका अनुकरण करो। इन प्रवचनों से प्राप्त, धनराशि का विनियोग उन्होंने समिती के कार्यालय निर्माण करने के लिए किया। आज उनके वक्तृत्व की अमोल निधी ‘पथदर्शिर्नी श्रीराम कथा' के रूप में हमारे पास है।

वं. मौसीजी की स्मरण शक्ति अद्भुत तेज थी। एक बार परिचय होने के बाद वह उस व्यक्ति को नाम सहित हमेशा याद रखती थी। जीवन के अंतिम चरण में जब वह चिकीत्सालय में भर्ती थी, तो सेविकाओं से भजन गीत गाने को कहती थी और बीच में अगर गानेवाली भूल गयी तो तुरंत आगे के शब्द बताती थी।

व्यवस्थित सरल जीवन, कलात्मक, सांस्कृतिक दृष्टि :

वं. मौसीजी का रहन सहन का ढंग अत्यंत सीधासाधारण था। वह हमेशा स्वच्छ और सफेद सूती साडी ही पहनती थी। अपने कपडे स्वयं धोने का उनका परिपाठ था। उनका हर काम कलात्मक रहता था। समय मिलते ही सिलाई कडाई चालू रहती थी। भगवान के सामने रंगोली सजाना, पूजा करना उसमें भी एक विशेषता थी। हर उत्सव में चाहे वह शाखा में हो या घर में, सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रदर्शन का उनका आग्रह रहता था। हर परिवार में एक राष्ट्रीय कोना हो, जहाँ परिवार के सदस्य मिलकर समाज के, राष्ट्र के बारे में दिन में एक बार सोचे इसलिए वह हमेशा प्रयत्नशील थी।

वर्ष प्रतिपदा (गुढी पाडवा) के दिन गुढी के बजाय अपने घरोंपर हमारी संस्कृती का प्रतीक भगवा ध्वज फहराया जाय यह उन्हीकी कल्पना थी। पूजा के लिए छोटे-छोटे ध्वल उन्होने ही बनवाएँ। वंदे मातरम् माँ की प्रार्थना है अतः वह गाते समय हाथ जोडने की प्रथा उन्होंने शुरु की।

पाककला में वह निपुण थी। परोसने में भी उनकी कला तथा मातृभाव का अनुभव होता था।

कुशल संघटक :

‘दो महलायें कभी एकत्र आकर कार्य करना संभव नहीं है' यह जनापवाद उन्होंने झूठा साबित कर दिया है। आव्हान के रूप में महिलाओं का सशक्त संगठन स्थापित करके यह सिद् कर दिया कि समिती की सेंकडों सेविकाएँ मिलजुलकर आपस में आत्मीयता से ध्येय निष्ठा से राष्ट्र के लिए विधायक काम सशक्तता से कर सकती है। पूना में श्रीमती सरस्वतीबाई आपटे द्वारा महिलाओं के संगठन के कार्यकी शुरुआत की जानकारी मिलनेपर मौसीजी स्वयं पूना जाकर सरस्वतीबाईजी से मिली। मौसीजी के कुशल, आत्मीय और सौहाद्र्र व्यवहार से, प्रसन्न व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सरस्वतीबाईजी ने अपने संगठन को राष्ट्र सेविका समिती में संम्मिलित कर दिया।

पत्र व्यवहार से मौसीजी सभी के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती थी। अखंड प्रवास का सिलसिला और सेविकाओं से मिलना निरंतर शुरु ही रहता था। प्रातः स्मरण, देवी अष्टभुजा स्तोत्र, पूजा, नमस्कार इत्यादि रचनायें उन्होंने की महिलाओं की संगीत में रूचि और भक्तिभाव को देखते हुए उन्होंने भजन मण्डलके लिए प्रोत्साहित किया।

अनेक चित्रकारों को एकत्रित करके उनके सामने प्रदर्शनी के विषय रखे और चित्र निकालने का आव्हान किया। कला के द्वारा राष्ट्रीय विचारधारा पुष्ट करने मे सहयोग वाली बात की नईदृष्टी प्राप्त होनेवाली बात एक चित्रकार ने ही कही। समितीद्वारा उन्होंने अनेक प्रदर्शनियों का आयोजन करवाया।

साहसी वृत्ती :

अगस्त १९४७ कर समय था। प्रिय मातृभूमि का विभाजन होनेवाला था। मौसीजी को सिंध प्रांत की सेविका जेठी देवानी का पत्र आया कि सेविकाएँ सिंध प्रांत छोडने से पहले मौसीजी के दर्शन और मार्गदर्शन चाहती है। इससे हमारा दुःख हल्का हो जायेगा। हम यह भी चाहते है कि आप हमें श्रध्दापूर्वक कर्तव्यपालन करने की प्रतिज्ञा दे। देश में भयावह वातावरण होते हुए भी मौसीजी ने सिंध जानेका साहसी निर्णय लिया और १३ अगस्त १९४७ को साथी कार्यकर्ता वेणुताई को साथ लेकर हवाई जहाज से बम्बई से कराची गयी। हवाई जहाज मे दूसरी कोई महिला नही थी। श्री जयप्रकाश नारायणजी और पूना के श्री. देव थे वे अहमदाबाद उतर गये। अब हवाई जहाज में थी ये दो महिलाएँ और बाकर सारे मुस्लिम, जो घोषणाएँ दे रहे थे - लडके लिया पाकिस्तान, हँस के लेंगे हिन्दुस्थान। कराची तक यही दौर चलता रहा। कराची में दामाद श्री चोळकर ने आकर गन्तव्य स्थान पर पहुँचाया।

दूसरे दिन १४ अगस्त को कराची में एक उत्सव संपन्न हुआ। एक घर के छतपर १२०० सेविकाएँ एकत्रित हुई। गंभीर वातावरण में वं. मौसीजी ने प्रतिज्ञा का उच्चारण किया, सेविकाओं ने दृढता पर्वक उसका अनुकरण किया। मन की संकल्पशक्तिको आवाहन करनेवाली प्रतिज्ञा ने दुःखी सेविकाओं को समाधान मिला। अन्त में मौसीजी ने कहा, ‘धैर्यशाली बनो, अपने शील का रक्षण करो, संगठन पर विश्वास रखो और अपनी मातृभूमिकी सेवा का व्रत जारी रखो यह अपनी कसौटी का क्षण है।' वं. मौसीजी से पूछा गया - हमारी इज्जत खतरे में है। हम क्या करें? कहाँ जाएँ? वं. मौसीजीने आश्वासन दिया - ‘आपके भारत आनेपर आपकी सभी समस्याओं का समाधान किया जायेगा।' अनेक परिवार भारत आये। उनके रहने का प्रबंध मुंबई के परिवारों में पूरी गोपनीयता रखते हुए किया गया। इस तरह असंख्य युवतियों और महिलाओं का आश्रय और सुरक्षितता देकर वं. मौसीजी ने अपने साहसी नेतृत्व का परिचय दिलाया।

व्यक्ति निष्ठा नहीं :

व. मौसीजी के जीवन का एक प्रसंग। एक शाखा में मौसीजी के आगमन की पूर्वसूचना मिलते ही सेविकाओं ने उनके स्वागत की जोरदार तैयारियाँ की। उनके लिए गौरवपर गीत रचकर गाया गया। बौद्धिक के समय वं. मौसीजीने सेविकाओं से कई प्रश्न कि और कहा कि इस गीत में एक परिवर्तन चाहिए। इसमें आपने मौसीजी कार्य के प्रति समर्पण की भावना की बात जतायी है, लेकिन यह किसी एक व्यक्ति का कार्य नही है अपितु आपको राष्ट्र सेविका समिती के राष्ट्र कार्य के प्रति समर्पण की भावना रखनी है। ऐसे कई गुणों के कारण ही वह वंदनीय बन गई।

ऐसे व्यक्तित्व को ही वंदनीय कहा जाता है। वंदनीय इसलिए नहीं कि उनके पास लम्बी उपाधियाँ थी या वह धनवान थी। न तो उनके पास कोई सिद्धी थी, न वह कोई तंत्र-मंत्र जानती थी। यह तो एक आम महिलाओं जैसी एक सरल, सीधा साधा गृहस्थी जीवन व्यतीत करनेवाली स्त्री। बाल्यकालसे ही प्राप्त राष्ट्रीय संस्कार और बुद्धिमत्ता और तेजस्विता के साथ-साथ राष्ट्रकार्य के प्रति आत्यंतिक आस्था के कारण ही उन्होंने यह अद्वितीय कार्य कर दिखाया। राष्ट्र सेविका समिती की स्थापना, अखिल भारतवर्ष में उसका प्रचार और प्रसार तथा निर्माण की हुई कार्य पद्धती जिसपर आज भी समिती का कार्य सरलता से चल रहा है। इन्हीं गुणों से उन्हें वंदनीय बताया।

यह शांत, पवित्र तेजस्वी जीवन २७ नवम्बर १९७८, कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्ण द्वादशी, युगाब्द ५०८० को पंचत्व में विलीन हो गया। देह नष्ट हुआ, कीर्ति, प्रेरणा अमर है, निरंतर चलती रही है और आगे भी रहेगी।

किं साधितं त्वया मृत्यो। अपहृत्येद् ज्ञान निधिम्।।

नश्वरशरीरं भस्मीकृतम्। अनश्वरथशासि का ते गतिः।।


दीपज्योति प्रणाम
दीपज्योति प्रणाम तुझे नित दीपज्योति प्रणाम।
शुभंकरी तू जग कल्याणी, मातृशक्ति प्रेरक तू मानी
कोटि-कोटि हृदयों में अंकित मंगलमय तव नाम।
रामायण वाल्मिकी कृर्ती तू, लवकुश जननी स्वयं स्फूर्ती तू
दिव्य चरित सीता से ज्योतित प्रकट हुये श्रीराम।
ध्येयमार्ग का दीपस्तंभ तू, कोटी करों का स्नेहबंध तू
कण क क्षण-क्षण राष्ट्र समर्पित किये कर्म निष्काम।
ज्योतिर्मय है मार्ग हमारा, चंचल मन क्यों भ्रम में हारा।
तव जीवन की स्मृति सुमनों में प्रेरक शक्ति महान।।
साभार-http://rashtrasevikasamiti.org/pages/LakshmiTai.aspx

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें