सोमवार, 27 जुलाई 2015

शाखा संजीवनी
हिन्दु कुल में जन्मे यह भाग्य। ‘हिन्दु' के नाते स्वाभिमान से जीवन स्थापन करे यह कर्तृत्व हिन्दुत्वके रक्षण हेतु जियेंगे-आवश्यक तब मरेंगेभी यही समर्पण, यह भावना अनायास निर्माण होती है, ऐसा पवित्र स्थान याने समिति शाखा का मैदान!
स्वामी विवेकानंद-तब का नरेंद्र अपनी व्यक्तिगत इच्छा की परिपूर्ति हेतु कालीमाता के मंदिर में गये। मंदिर की पवित्रता, तेजस्विता, उदात्तता का प्रभाव ऐसा रहा की सब कुछ भूलकर मुख से शब्द निकले, ‘माँ, मुझे शक्ति दो, बुद्धी दो, वैराग्य दो' शाखास्थान का ऐसा प्रभाव अनेकोंकी अनुभूति का विषय है।
संजीवनी अर्थात क्षीण प्राणशक्ति का पुनरूज्जीवन/प्राणशक्ति के कारण ही शरीर के सभी अंगोपांग संपूर्ण सामंजस्य से काम करते है। यह ऊर्जा हृदय से निकलनेवाली रक्तवाहिनियाँ शरीर के आखरी छोर तक पहूँचाती है- चैतन्य प्रदान करती है। व्यक्तिगत जीवन में शरीर में प्राणशक्ति का संचार रूकना याने मृत्यू। राष्ट्र जीवन में प्राणशक्ति है, संस्कृति अर्थात जीवनदृष्टी अर्थात जीवनमूल्य। उसकी अनुभूती-विचार, उच्चार व्यवहार का प्रवाह खंडीत होना राष्ट्र की चेतना लुप्त होने जैसा ही है। भारत सनातन राष्ट्र है। केवल मानव के नही, अपितु चराचर सृष्टि के कल्याण का विचार संस्कार देता है। अत: वह जीवित रखना, प्रबल रखना अनीवार्य है। प्रबल राष्ट्रकी दखल विेशमंचपर होती है। हमारी यह जीवनदृष्टि से जीवनमूल्यों का आदर अनुकरण होने हेतु इस जीवित कार्य का एहसास। इसके संस्कार विविधतासे सहज होने का स्थान है शाखा।
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का समन्वित विकास राष्ट्र सेवा के लिए ही ऐसा सहज संकल्प करने का स्थान है, समिति, शाखा का मैदान। शाखा में आते ही मन की नाराजी, उद्विग्नता, निराशा, अपनी सखियोंको देखकरही भाग जाती है। खेल, व्यायाम, योगासन, गणसमता के साथ साथ जीवन में अनुशासन, समयपालन, आज्ञापालन, नेतृत्व गुणोंका विकसन, जीवन का अंग स्वभाव बन जाता है। राष्ट्र धर्म के प्रेरक गीत, कहानियाँ, विषय प्रतिपादन, नित्य-नैमित्तिक कार्यक्रमों को प्रीावी बनाने हेतु नियोजन, व्यवस्थापनकुशलता, आत्मविेशास, समरसता और बहुत कुछ ग्रहण कर लेते है। मन में आश्चर्य होता है, वही हूँ मैं- जो पहले मुखदुर्बल, संकोची थी?
वर्तमान एक लोकप्रिय लहर है। ‘व्यक्तिमत्व विकास' की कितने प्रकार के वर्ग, शिबिर उद्बोधन के खर्चीले औपचारिक आयोजन होते है। केंद्र है-मैं, केवल मैं। खेलो में भी चमू जीतने-हारने का कोई सुख-दु:ख नही। ‘मैं नही, तू नहीं' का अनोखा संस्कार आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' श्रद्धा का संस्कार। यह मिट्टी शाखास्थान की - उससे घाँव भरते है, मोच जाती है, वेदना मिटती है। ‘इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है हिन्दुस्थान की', ‘चंदन है इस देश की माटी' यह श्रद्धा, निष्ठा राष्ट्र संस्कृतीधर्म की संजीवनी है। यह संजीवनी बडे भाग्यसे तपस्या के कारण मिलती है। ‘प्रसादात तव एव अत्र' पूर्वपुण्य के कारण मिलती है। हिन्दु राष्ट्र का गौरवशाली पुनरूत्थान करनेवाली शक्ति मातृशक्ति मैं हूँ, यह मेरा कितना बडा सौभाग्य, सम्मान। मैं हुँ, ज्ञान-विज्ञान दायिनी सरस्वती माता, विभयदायिनी लक्ष्मी माता और दुष्टता संहारिणी दशप्रहरणधारिणी दुर्गामाता। इस गौरवपूर्ण प्रेरणादायी आत्मभूती का स्थान समितिशाखा। भगिनी निवेदिता ने कहा था, की एक निर्धारित स्थान पर, निर्धारित समय, सामुहिक रुपसे, भारतमाता की प्रार्थना
श्रद्धाभाव से करने से उस स्थान से शक्ति का मंगल अविरत स्त्रोत निर्माण होगा। इसी अर्थसे वं. मौसिजी, वं. ताईजी से लेकर आज की छोटी सेविका तक अपने अपने स्तरपर, अपनी अपनी पद्धती से शाखा एक संजीवनी रही। अनुभुति है, यही स्वरुप निरंतर बना रहे, इसी में हमारे जीवन की सफलता, सार्थकता है।
 साभार-

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