शुक्रवार, 17 मई 2013

निर्बल राष्ट्र कभी स्वाभिमान से नहीं रह सकता




बारह जनवरी सन 1863 को एक देवदूत इस पुण्य भारत भूमि पर अवतरित हुआ, जिसका नाम था नरेन्द्र। रामकृष्ण परमहंस जैसे सद्गुरु के संपर्क में आकर वह स्वामी विवेकानंद बन गया। 
शिकागो धर्मसभा में 'अमेरिकावासी बहनों एवं भाइयो!' के संबोधन के साथ दिए गए उद्बोधन से न केवल पूरी धर्मसभा में अपितु संपूर्ण पाश्चात्य जगत्‌ में उनकी जादुई वक्तृता का अद्भुत प्रभाव हुआ। सनातन धर्म एवं भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान की गंगा में अवगाहन कर एक अपूर्व आनंद की अनुभूति अमेरिकावासियों ने की। इसके बाद तो इस युवा संन्यासी के अमेरिका एवं इंग्लैंड में अनेक व्याख्यान हुए, जिन्हें लोग मंत्र-मुग्ध होकर सुना करते थे। 
स्वामीजी 40 वर्षों से भी कम समय तक धरा धाम पर रहे और 4 जुलाई सन 1902 को ब्रह्मलीन हो गए। लेकिन इतने अल्प समय में उन्होंने पूरे विश्व को भारतीय दर्शन के उच्चतम सिद्धांतों से अवगत कराकर यह सिद्ध कर दिया कि भारत के पास दर्शन की ऐसी अमूल्य धरोहर है जो हर देश, जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के मनुष्यों को एक ही स्थान पर लाकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की कल्पना को साकार करने की क्षमता रखती है। 
स्वामीजी ने शिकागो धर्मसभा में कहा था कि आप कोई भी मार्ग चुनें आराधना का, अंत में परमात्मा तक ही पहुँचेंगे। सभी मार्ग उस तक पहुँचते हैं। स्वामीजी ने जो स्तोत्र सुनाया उसका अर्थ है- 'जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।' 
  बारह जनवरी सन 1863 को एक देवदूत इस पुण्य भारत भूमि पर अवतरित हुआ, जिसका नाम था नरेन्द्र। रामकृष्ण परमहंस जैसे सद्गुरु के संपर्क में आकर वह स्वामी विवेकानंद बन गया।      
स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक ज्ञान एवं नैतिक मूल्यों को प्रसारित करने के साथ-साथ देशप्रेम के लिए भी जागृति उत्पन्ना की। जब भारत माता गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी थी और भारत के युवा उदासीन से थे, तब उन्होंने सोई हुई तरुणाई को ललकारा एवं नौजवानों में उत्साह तथा उमंग का संचार किया। स्वामीजी ने कहा था कि निर्बल राष्ट्र कभी स्वाभिमान से नहीं रह सकता। इस महत्वाकांक्षी संसार में केवल सबल ही सिर ऊँचा करके जी सकते हैं। 
स्वामीजी का अँगरेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उनकी शैली बहुत ही सुंदर, आकर्षक एवं सटीक थी। अपनी उच्चकोटि की वक्तृत्व कला के माध्यम से वेदों, पुराणों, उपनिषदों, संहिताओं, गीता आदि ग्रंथों में निहित आध्यात्मिक ज्ञान को अमेरिका एवं इंग्लैंड की अनेक धर्मसभाओं, संस्थाओं एवं क्लबों में स्वामीजी ने बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। 
इसके पूर्व भारत के किसी भी संत, महात्मा ने इस प्रकार भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार नहीं किया था। स्वामीजी के अमेरिका जाने के पूर्व तक पाश्चात्य जगत्‌ भारत की आध्यात्मिक ज्ञान-संपदा से अपरिचित जैसा ही था। भारत की विशाल सांस्कृतिक धरोहर से विदेशियों को परिचित कराने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही जाता है। 
आज भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म की ओर सारी दुनिया के लोग जो आकर्षित हो रहे हैं, उस आकर्षण की नींव शिकागो धर्मसभा में स्वामीजी ने ही रखी थी। भारत एवं भारतवासी स्वामीजी के इस महान कार्य के लिए सदैव उनके ऋणी रहेंगे।

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