मंगलवार, 21 मई 2013

धर्म का सच्चा अर्थ बताया स्वामीजी ने




'जो दीन है, दलित है, असहाय है उसे ऊपर उठाना ही धर्म है। मानव होकर मानव का शोषण करना उस पर अत्याचार करना धर्म नहीं है। 'यह कथन है धर्म के नाम पर अभेदपूर्ण दृष्टि रखने वाले  मानवता के सच्चे पुजारी स्वामी विवेकानंद का। 
उनका अवतरण इस भारत भूमि पर ऐसे समय में हुआ जब भारतीय संस्कृति अपने आत्मगौरव से विच्छिन्न हुई सिसकियाँ भर रही थी  चारों ओर अज्ञान का अहंकार छाया हुआ था परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा देश अपने आध्यात्मिक गौरव को भूल पश्चिम के अंधानुकरण में लीन था। ऐसी स्थिति में 12 जनवरी मकर संक्रांति के दिन देश के पूर्वी क्षितिज पर नवीन ज्ञान के प्रकाश रूप में स्वामी विवेकानंद का प्राकट्य हुआ। 
   बचपन में पिता विश्वनाथ दत्त का दिया नाम नरेन्द्र बाद में गुरु परमहंस रामकृष्ण देव द्वारा 'विवेकानंद' नाम में विलीन कर दिया गया। निश्चय ही समाज में प्रचलित रूढ़ परंपराओं, धार्मिक विश्वासों को विवेक की कसौटी पर कसने वाला यह नवयुवक विवेक तथा आनंद का समन्वित रूप था। विवेक की कसौटी पर कसे बिना कोई बात उसकी बुद्धि स्वीकार नहीं करती थी और आनंद उसका सहज स्वभाव था। ऐसा आनंद जो बिना आध्यात्मिकता के प्राप्त नहीं होता और आध्यात्मिकता जिसकी परिधि में आत्मज्ञान, प्रेम, धार्मिकता समता  त्याग, साधना आदि तत्व सम्मिलित हैं और ये ही हैं सच्ची मानवता के लक्षण हैं। 
स्वामी विवेकानंद ने अपने आत्मज्ञान, प्रेम, समता की ज्योति जलाकर भारतीय संस्कृति को नवीन गौरव प्रदान कर विश्व के सम्मुख पुनः व्यासपीठ कर बैठा दिया। भारतीय संस्कृति जो आत्मा की साधना करती है धर्म जिसका मूल तत्व है  प्रेम जिसका मूल मंत्र है  त्याग, तप-वैराग्य-अपरिग्रह जिसकी साधना है अभय-सत्य-अहिंसा जिसके सबसे बड़े अस्त्र हैं आत्म गौरव, आत्म-सम्मान जिसकी विशिष्ट पूँजी है  प्रेम-दया करुणा-समता-विश्व बंधुत्व जिसके विशिष्ट गुण हैं। 
उसको अपने तन-मन-आत्मा के अणु-अणु में धारण किए हुए जब स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शहर शिकागो की धर्मसभा में वहाँ के श्रोता समुदाय को जैसे ही संबोधित किया- 'मेरे अमेरिका निवासी भाइयों और बहनों...' तब उनके इस दिव्य प्रेममय संबोधन से संपूर्ण श्रोता मंत्रमुग्ध होकर तालियाँ बजाने लगे। कुछ समय पूर्व जो लोग उनका उपहास कर रहे थे वे इसयुवा भारतीय संन्यासी के रूप में सच्ची मानवता का दर्शन कर उसके सामने हृदय की गहराइयों से नत हो गए। 
ऐसे महान मानव प्रेमी संत स्वामी विवेकानंद ने अपने स्वयं के आचरण से बता दिया कि देश जाति-धर्म-वर्ण आदि के नाम पर मानव-मानव में भेद करना अधर्म है। उन्होंने मानव को एक सूत्र में बाँधने के लिए धर्म की नवीन व्याख्या की। उन्होंने स्पष्ट कहा कि धर्म का काम तोड़ना नहीं जोड़ना है। जो धर्म मनुष्य को मानवता के विपरित आचरण करना सिखाए वह धर्म नहीं है। इसी मानवता के प्रसार के लिए मनुष्य समाज में फैले आडंबरों ,रूढ़ियों अंधविश्वासों को दूर कर 'उत्तिष्ठत जागृत' को मंत्र बनाकर उन्होंने अनेक बार भारत भ्रमण किया। 
उन्होंने साफ कहा- जो धर्म, जो ईश्वर, विधवाओं के आँसू नहीं पोंछ सकता अनाथ के मुँह में रोटी का टुकड़ा नहीं दे सकता उस धर्म अथवा ईश्वर पर मैं विश्वास नहीं करता। देश की भूखी नंगी जनता के आगे धर्म परोसना बेमानी है। उनके अनुसार जब मानव समाज अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए छटपटा रहा है  अज्ञान, अशिक्षा के अँधकार से घिरा हुआ है उसे आत्म त्याग का मार्ग दिखाना कोरी प्रवंचना है। ऐसा संन्यास किस काम का जो समाज की उन्नति में कर्मठता पूर्वक योगदान देने के बजाए पलायन सिखाए। 
स्वामीजी के अनुसार सबसे पहले मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताएँ पूरी कर आत्मसम्मान के साथ जीना सीखे। इसके लिए देश को गरीबी से उबारना होगा। कृषि का विकास इस प्रकार करना होगा कि प्रत्येक मनुष्य को पेट भर अन्न प्राप्त हो सके। अमीर-गरीब के बीच की खाई को पाटना होगा। स्त्री-पुरुष दोनों को समाज में समान विकास के अवसर प्राप्त कराने होंगे। 
अपने समय की शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा- 'वर्तमान शिक्षा प्रणाली मनुष्य तत्व की शिक्षा नहीं देती। गठन नहीं करती। वह तो बनी बनाई चीज को तोड़ना-फोड़ना जानती है। ऐसी अव्यवस्थामूलक तथा अस्थिरता का प्रचार करने वाली शिक्षा किसी काम की नहीं।' 
स्वामी विवेकानंद के ज्ञान के प्रकाश में खड़े होकर हमें आज फिर से आत्म मंथन करना है।





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