रविवार, 13 जुलाई 2014

देवी अष्टभुजा

देवी अष्टभुजा

देवी अष्टभुजा स्तोत्र
नमो अष्टभुजे देवि पार्वति शारदे।
बुद्धि वैभव दो मातर् हमें दो शक्ति सर्वदे।।१।।
शील रूपवती नारी तेरी ही प्रतिमा बने।
धर्म संस्कृति रक्षा से धन्य भारत को करें।।२।।
सुगंधित सुवर्णाभ सुकोमल सरोज जो।
हस्त में धृत देता है पाठ निर्लेप तुम बनो।।३।।
गीता प्रदीप जो देता विश्व को ज्ञानचेतना।
कर में स्थित है तेरे स्नेहले अम्ब मंगले।।४।।
शील चारित्र्य की होवे आभा प्रसृत पावनी।
अग्निकुण्ड इसीसे है प्रदीप्त धृत हाथ में।।५।।
त्रिशूल है लिया मातर् दुष्ट संहार हेतु से।
खड्ग देवि लिया है जो सज्जनत्राण बुद्धि से।।६।।
विरागविक्रमों की जो फहराये नभ में प्रभा।
भगवा ध्वज है तूने हाथ में पकडा महा।।७।।
ध्येय का ध्यान ना भूले कार्य में रत हो सदा।
स्मरणी हाथ की देती हमें सन्देश सर्वदा।।८।।
घण्टानाद हमें देता नित्य जागृति वत्सले।
निद्रा आलस्य में खोवे अमोल क्षण ना कदा।।९।।
सिंहवाहिनी अम्बे तू जगाती जनसिंह को।
सटाओं से उठे सेना शक्तिसामथ्र्यदायिके।।१०।।
सती तू पद्मजा तू है तू है देवी सरस्वती।
परित्राणाय साधूनां काली माँ तू यशोमती ।।११।।
विनम्र भाव से देवि प्रणिपात सहस्रदा।
सेविकाएँ करें आशीष देहि देवि सुमंगले।।१२।।
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते।।१३।।
।।देवि अष्टभुजा की जय।।
 सर्वसामान्य व्यक्ति अमूर्त कल्पना समझने में सक्षम नहीं होते है। अतः ऐसा अमूर्त भाव मूर्त स्वरूप में साकार कर, सबकी विचारशक्ति की पहूच में लाकर सबके सामने प्रतिक स्वरूप में रखना यह भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है। राष्ट्र सेविका समिति ने स्त्री के आवश्यक गुण, उसकी क्षमता, उसकी सुप्त शक्ति, कायान्वित हो इस दृष्टि से १९५० में अष्टभुजा देवी का प्रतिक सेविकाओं के सामने रखा। स्त्री में त्रिवि शक्तियाँ होती है - प्रेरक, तारक, मारक। कन्या, बहन, पत्नी, माता ऐसी जीवन की इन चार अवस्थाओं में समाज को प्रेरणा देनेवालें कई स्त्री चरित्र हमारे इतिहास के पन्नों पर अंकित है। जैसे की राणा प्रताप की कन्या चंपा, खंडो बल्लाळ की बहन संतुमाई हाडा रानी, जिजामाता उसकी प्रेरक शक्ति को दर्शाते है। अपने पुत्र को बनबीर के खडग को बलिं देकर राजवंश को सुरक्षित रखनेवाली पन्नाधाय, राजादाहर की - मृत्यू बाद शत्रु को परास्त करने का प्रयास करनेवाली दाहरपत्नी जैसी कहानियाँ उसकी तारक शक्ति की परिचायक है तो महिषासुरमर्दिनी देवी, राणी लक्ष्मी, सत्यभामा जैसे चरित्र उसकी मारक शक्ति का दर्शन कराते है। देवी के हाथ के कमल, गीता स्मरणी से प्रेरणा शक्ति, वरदहस्त से तारक शक्ति तथा त्रिशूल खङ्ग धारण कर मारक शक्ति का समुच्चय हम देवी अष्टभुजा में देखते है।
 श्री बंकिमचंद्र ने भारत माँ को, ज्ञानदायिनी सरस्वती, वैभवदायिनी लक्ष्मी और दुष्टविनाशिनी दुर्गा तीनोंके समन्वित रूप में देखा। देवी अष्टभुजा की आराधना भी उसी दृष्टी से ही करते है। देवी महात्म्य में देवी की उत्पत्ति का कारण और कथा बतायी है। आसुरी वृत्ति का प्रतिरोध करने देवगण असमर्थ सिद्ध हुए। तब उन्होंने आदिशक्ति - मातृशक्ति का आवाहन किया। उसको अपने अच्छे शस्त्र अस्त्र प्रदान किये और इस संगठित सामथ्र्य से युक्त हो कर यह महाशक्ति दुष्टता के विनाश का संकल्प लेकर सिद्ध हुई और देवों को भी असंभवसा लगनेवाला कार्य उसने कर दिखाया। आज भी जीवनमूल्यों को नैतिकता के पैरोंतले कुचलने वाली अहंमन्य दानवी शक्ति को, जीवन के श्रेष्ठ अक्षय तत्त्वज्ञान को दुर्लक्षित कर क्षणिक भौतिक सुख को शिराधार्य माननेवाली मानसिकता को तथा श्रद्धा को उखाडनेवाली बुद्धि को हमें हटाना है, तो फिर मातृशक्ति को ललकारना होगा, उसे संगठित करना होगा। अतः ऐसी अष्टभुजा का प्रतीक हमेशा हमारे सामने रहे जो हमें अपने कर्तव्य शक्ति का, संगठन का बोध कराते रहेगा। विशाल वटवृक्ष, पावन मंदिर और अक्षुण्ण बहनेवाला जलस्रोत इस पृष्ठभूमिपर  सिंहारूढ, विविध आयुधों से युक्त, आत्मविश्वासपरिपूर्ण यह देवी हमें प्रसन्नता के साथ हमारे कुछ गुणों का, भावों का, शक्तियों का उन्नयन करने का संदेश प्रदान करती है।
 एक सूक्ष्म से बीज से उत्पन्न होकर भी विशालता प्राप्त करनेवाला वटवृक्ष, अपनी टहनियों से नया वृक्ष निर्माण करने की क्षमता रखता है। सहस्त्रों पक्षियों का निवासस्थान और प्रवासियों का विश्रामस्थान बनता है। अन्यान्य पंथों को जन्म देनेवाले, अन्याय पंथों का अपन में समा लेनेवाले अतिप्राचीन हिन्दू धर्म का प्रतीक है। भारतीयों का अध्यात्मिक भाव और ज्ञान वटवृक्ष तथा मानवी शक्ति से श्रेष्ठ, सामथ्र्यवान जो अगम्य अचिन्त्य विराट शक्ति है उसका परिचायक पावन मंदिर, हमारी नम्रता, श्रद्धा तथा असीम निष्ठा वृद्धिगत करता है। बिना भेदभाव के सभी को समान लाभ देनेवाली, अपने दोनों तट सुजलां-सुफलां बनानेवाली नदी, उसको आकर मिलनेवाले विभिन्न जलप्रवाहों को आत्मसात कर अखंड सातत्य से बहती है और अंत में सागर में, अपना सारा जलसंचय, सारावैभव मानों ‘स्वङ्क का भाव ही, समर्पित कर देती है।
 सदियों से लगातार चलती आयी और वधिष्णु होनेवाली विशाल तथा उदार, अनेकानेक शरणार्थियों को आश्रय देनेवाली, अनेकानेक विचारधाराओं को जन्म देनेवाली तथा अन्य योग्य विचारों को संमिलित कर लेनेवाली ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म, नीति, विविध शास्त्र, सभीमें अत्युच्च कुशलता पाकर वह विश्वकल्याण हेतु समूचे विश्व में उदारता से उंडेल देनेवाली भारतीय संस्कृति के निदर्शक इस पृष्ठभूमीपर अष्टभुजा सिंहपर विराजमान है। बलवान, स्वाभिमानी, स्वातंत्र्यप्रिय, वनराज सिंह को अपने अधीन रखने की क्षमता उसमें है। उसकी सिंहपर बैठक इतनी दृढ है कि वह जरा भी विचलित या डाँवाडोल नही होती है। स्वसामथ्र्य पर कितना अटूट विश्वास है! ऐसी अपराजिता शक्ति हमारा आदर्श है। हम भी ऐसी शारीरिक मानसिक शक्ति प्राप्त करेगी। सिंह की सावधानता चापल्य, स्वाभिमान, नेतृत्वक्षमता भी हमें मार्गदर्शक है।
 अष्टभुजा याने आठ हाथोंवाली। फिर भी उसका मस्तक एक है। चिन्तन एक, कृति में लाने आठ हाथ। एक चिंतन, कार्यकर्ता अनेक। एक मेंदू, मस्तिष्क अंग अनेक और सभी में अंगांगी भाव। स्वतंत्र अस्र्तित्व, स्वतंत्र कार्य किन्तु एक उपांग बन कर। एक का कार्य दूसरे को पूरक। हम सब एक है यह एकात्म अनुभूति। हरेक का एक उद्देश से किया जानेवाला सामूहिक काम।
 स्थान और कार्य महत्त्वपूर्ण किन्तु तब तक ही जबतक वह सबसे जुडा रहता है। किसीका भी फूटकर अलग होने का भाव उसको स्वयं को तथा समूह को भी हानि पंहुचाता है। अपनी कार्यशक्ति माँ के चरणों में समर्पित होनी चाहिये। सामूहिक कार्यसंकल्प हितकारक सिद्ध होता है। एकात्मभाव से स्पर्धा, मत्सर, अहंकार तथा विनाशकता नष्ट होते हैं और दिव्य शक्ति का निर्माण होता है।
 स्त्री का अष्टावधांनी होना भी इस आठ हाथों से सूचित होता है। एक ही समय अनेक कामों में वह ध्यान रखती है - सजग रहती है। परिवार के सभी जनों काध्यान रखती है। ईर्दगीर्द घटनेवाली घटनाओं का कार्यकारण भाव समझ सकती है। मानों एक सजग प्रहरी है। हरेक हाथ में विभिन्न आयुध धारण करनेवाली।
 बायें हाथमें त्रिशूल पर लहरता हुआ ध्वज और दाहिने हाथ में मानों वार करने सिद्ध खङ्ग हमारा ध्यान आकर्षित करता है। शस्त्रधारी देवी। ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्ङ्क हेतु से दक्ष है। भारतवर्ष में अनेक राजनैतिक प्रयोग हुए। बिना शासक शासन का भी प्रयोग हुआ। बिना शस्त्र समाज का भी हुआ। परमोच्च अहिंसा का भी हुआ। किन्तु वे असफल रहें। समाज में शतप्रतिशत लोग सत्कर्मप्रेरक, सच्चरित्र, सद्हेतुधारी होना असंभव सा है। दुष्प्रवृत्ति हमेशा आक्रमक होती है। उससे बच पाने के लिये स्वसंरक्षणक्षम बनना अनिवार्य होता है। इस आक्रमकता की पहली शिकार होती है दुर्बलता। शस्त्रधारण उस दुष्ट प्रवृत्ति को रोकता है। उसके मन में चिंता और भय निर्माण करता है। उसी समय शस्त्रधारक निर्भय और आत्मविश्वासपूर्ण बनता है। सभी का कल्याण हो, उनको सुखशांति प्राप्त हो इसके लिये शस्त्रसज्जता अत्यावश्यक है।
त्रिशूल
 दूरसे ही द्रुतगति से शत्रु को चीरने वाला। तीन शिर होने के कारण अधिक पीडादायक। त्रिगुणात्मक प्रवृत्तियाँ, त्रिताप, तीन गुण, सब मानवकल्याण वृत्ति के डंडे को जुडे हुएं। यही कारण है कि वह ध्वजदंड बन गया है। उसपर  फहरनेवाला ध्वज है भगवा-त्यागाधारित तेजस्वी संस्कृति का निदर्शक। विक्रम और वैराग्य, वैभव और त्याग जैसे दो छोर है इसके। उदयमान सूर्य, प्रज्वलित अग्नि की ज्वालाओं के समान रंग है। हिन्दु मानस में इसके प्रति प्रगाढ श्रद्धा है, अतीव आदर है, अगाध निष्ठा है। भारत के विजयी इतिहास का, श्रेष्ठ वैभव का, विश्वकल्याण हेतु विश्वसंचार का, कृण्वन्तोविश्वमार्यम् भाव का, मानवधर्म के आचरण का यह साक्षी है। वह हमारा श्रद्धास्थान है, प्रेरणाकेंद्र है, मानबिन्दु है। हमने उसको गुरु माना है। उसकी रक्षा हमारा आद्य कर्तव्य है।
खङ्ग
 शस्त्रधारी हाथ की निपुणता के साथ-साथ दृढ मन जुडा हो तो विजय निश्चित होती है। हमारी माँ के हाथ के खङ्ग के पीछे दुष्टदमनार्थ संकल्पित उसका मन है अतः यशप्राप्ति निश्चित है। दृढ संकल्पिता, निश्चयात्मक बुद्धि, समर्थ वाणी और निष्काम कर्तव्यभाव खङ्ग को तेज बनाते है। यह तीक्ष्ण खङ्ग हमेशा कोश में बंद रहता है। किन्तु आवश्यकता के समय उसे झट से खींच वार करने के लिये अभ्यास आवश्यक है।
वरदहस्त
 शस्त्रधारी हाथों के साथ ही हमारे ध्यान में आता है वरदहस्त। कहा जाता है कि सिंहनी के तीक्ष्ण नाखून उसके बच्चों को कभी घायल नहीं करते हैं। उन तीक्ष्ण नाखून के भरोसे ही बच्चे आश्वस्तता और सुरक्षितता का अनुभव करते है। हमारी माँ के वरदहस्त से हमें प्रतीत होती है उसकी क्षमाशीलता, उसकी ममता। हमसे कुछ गलती हुई तो भी माँ क्षमा करेगी यह आश्वासक भाव मन में निर्माण होता है। उसका वरदहस्त भूले भटकों को क्षमा कर शक्ति प्रदान  करता है। समाजकार्य में व्यस्त लोगों को संगठकों को यह भाव अपनाना ही चाहिये। शस्त्रधारण के साथ विवेकी क्षमाभाव। यह अभयहस्त हमें आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो आगे बढने की प्रेरणा देता है।
अग्निकुंड
 धधकती हुई ज्वालाओं की संहारक शक्ति नियंत्रित करनेवाला अग्निकुंड। विनाशक, शक्तिको, उपयोगिता में, विधायकता में बदलनेवाला। यही है मानवी बुद्धि की कुशलता। नियंत्रित स्वतंत्रता। संहारक शक्ति का तारक शक्ति में परिवर्तन। दोषों को मिटाकर गुणों का उपयोग।
 अग्नि तेजस्वी है, स्वयं पवित्र है ही दूसरों की भी अशुद्धि नष्ट कर उन्हेंभी शुद्ध पवित्र बनाता है। ‘समुन्नामितं येन राष्ट्र न एतद् पुरो यस्य नम्रं समग्रं जगत्ङ्क भारतीय स्त्री के ऐसे सच्चरित्र का, शुद्धशील का, पवित्रता, पातिव्रत्य का, सतीत्व का ही मानों प्रतिक है। अग्नि की उध्र्वगामिता ‘नाधः शिखा यान्ति कदाचिदेवङ्क सदैव विकास, उन्नति, उत्कर्ष की ओर ध्यान। यह गुण उपजाया है भारतीय संस्कृति ने। ऐसी प्रगतिशील संस्कृति का रक्षण भारतीय स्त्री ने ही किया है - कर रही है और करती रहेगी। किन्तु इस अग्नि को जलाना पडता है - घर्षण से हो, दियासलाई से, लायटर से या बटन दबाकर। जलाने के बाद यह तुरंत जलता है किन्तु उसका प्रज्वलन प्रयत्नसाध्य ही है। हमें यह ध्यान में रखना है। अग्नि को सातत्य से प्रज्वलित रखने उसमें आहुतिया भी देना है। और वह भी ‘इदं न मम’ भाव से। समर्पण एक बार नहीं बार बार। शक्ति, बुद्धि, धन, मन सब कुछ समर्पित हो। इस समर्पण से ही भारत का इतिहास तेजस्वी बना है और भविष्य में भी इसी के आधार पर भारत तेजस्वी बना है और भविष्य में भी इसी के आधार पर भारत तेजस्वी राष्ट्र बनेगा। अग्नि की और एक विशेषता है - गतिशीलता। बीच में जो जो कुछ आता है उसे आत्मसात करते हुए वह चारों तरफ फैलता जाता है।
 अग्नि के विविध गुण, उसकी विनाशकता शक्ति पर नियंत्रणक्षमता, अग्नि की उष्णता से तप्त अग्निकुंड हाथ में धारण करने की क्षमता हमे अपनानी है। उसको कृति में परिवर्तित करना है निरहंकार वृत्ति से। यह संदेश है गीता का।
श्रीमद्भगवद्गीता
 ज्ञान, कर्म, भक्ति का मधुर संगम। कर्म ज्ञानाधिष्ठित हो और भक्तिपूर्ण भी। साथ-साथ निष्काम भी। निराशा सें पलायवान नहीं, यश के अहंकार से भी ऊपर ऊठकर। गीता हमें यह कर्मयोग सिखाती है। स्वामी विवेकानंदजी ने अपने गुरु को तरह तरह से परखा। एक बार कसौटी पर उतरने बाद उनपर अविचल श्रद्धा, निष्ठा से उनके अनुगामी बने। अपना ध्येय प्राप्त करने हमने दिव्य मार्ग का स्वीकार किया है। अविचल निष्ठा से, बाधाओं पर विजय पाते हुए हम आगे बढेंगे। परन्तु उसके लिये हमें अपने ध्येय का सदैव स्मरण रहें अतः है।
स्मरणी
 जापमाला। प्रतिपल स्मरण। इसके लिये साधन है १०८ मणियों को एकत्रित गूंथकर बनायी हुई माला। १०८ बार जप किन्तु गिनती है १००। मोह के क्षण कर्तव्य ध्यान भुला सकते है। कहा जाता है खरगोश की शिकार करनी हो तो भी तैयारी करनी है सिंह के शिकार की। कार्यकर्ता ने यह हमेशा ध्यान में रखना है। कभी-कभी माला फेरना यह एक शरीर की प्रतिक्षिप्त क्रिया बन जाती है फिर भी माला का शीर्ष मणी आते तक वह नीचे नही रखी जाती। हाथ से कृति होती है, मन चिन्तन करता है।
 माला का हरेक मणि महत्त्वपूर्ण है फिर भी माला का एक अंश है। व्यक्ति कितनी भी श्रेष्ठ, विद्वान, कुशल हो उसने ‘मै अपने इस समाज का राष्ट्र का एक छोटा घटक हूं’ यह भूलना नहीं चाहिये। एकेक मणि अलग होता जायेगा तो माला रहेगी ही नही और मणि भी कटी पतंग के समान झोके खाता रहेगा और गिर जायेगा।
 ध्येय का स्मरण और पुनः पुनः प्रयत्न से ही हम ध्येय प्राप्त कर सकेंगे।
 मणि अनेक किन्तु धागा एक - संगठित रखने की क्षमता - भावी तेजस्वी राष्ट्र निर्माण का हेतु यह धागा है जो हमें कर्तव्य से बद्धरखता है।
 क्षण-क्षण से ही हमारा जीवन बनता है। जो क्षण जाता है वह फिरसे वापस नही आता। अतः हमे हरेक च्ण अपने जीवितकार्य में, राष्ट्रसेवा में व्यतीत करना है। माँ के हाथों की स्मरणी हमें इसलिये प्रेरित करती है। यह सब होगा हम सजग रहेंगे तो। घंटानाद हमें जगाता रहे।
घंटा
 घंटा मंदिर की हो, पाठशाला की हो, दरवाजे पर लगायी हुई हो या घडी की हो - वह अपने नाद से हमें जगाती है। जागृतावस्था अर्थात् क्रियाशीलता। घंटा का मधुर नाद हमें प्रसन्न करता है। ‘आगमार्थं तु देवानां’ यह उपयुक्त है। किन्तु जब हम उसका फल ‘निर्गमनार्थं तु रक्षसाम्’ चाहते है, शत्रुहृदय को भयकंपित करना चाहते है तब उसका उपयोग शस्त्रसमान कठोरता से और तेजी से ही करना पडेगा। देवी महात्म्य में देवी के हाथ के घंटानाद से दैत्यों का हृदय कंपित हुआ ऐसा वर्णन है। गीता में भी वर्णित है ‘शंखं दध्मौ पृथक् पृथक्|’ शांतता के समय मंगलप्रद तो युद्ध के समय भयप्रद घंटारव।
कमल
 देवी को नमन करते हुएं हम बोलते है ‘सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यंबके गौरी। नारायणी नमोस्तुते|’ यह मंगल और शिव भाव व्यक्त होता है कमल से। अपनी सुंदरता से सभी को आकर्षित करता, लुभांता है। खास कर कवियों को बहुत प्यारा लगता है। मुखकमल, नयन कमल, चरणकमल, हस्तकमल, जैसे कई शब्दों का उपयोग उन्होंने किया है। केवल सुंदरता नही साथ में सुगंध भी है। अतः ईश्वरचरणों पर चढाने योग्य है। जितना सुंदर, सुगंधित उतना कोमल भी है। उसकी पंखुडियों की कोमलता हमारे मन को कोमल बनाती है और उनको हम अतीव कोमलता से स्पर्श करते है। यही कारण है कि उसमें रात्रि के समय बंदिस्त हुआ भ्रमर, बडे-बडे लकडीयों को खोखला बनाने की क्षमता होते हुए भी, पंखुडियों को जरा भी हानि नहीं पहुंचाता है। हम जानते है कि राक्षसियों के बीच रहते हुए भी सीता सुरक्षित रही। वास्तव में कमल का जन्म कीचड में होता है फिर भी उसकी डंठल कीचड से तथा पानी से भी ऊपर ऊठती है और अपने माथे पर कमल को धारण करती है। महारथी कर्ण के वचन ध्यान में आते है, ‘मदायत्तं तु पौरुषम्|’ जन्म के अनुसार नहीं कर्म के अनुसार चातुर्वण्र्य। प्रतिकूल परिस्थितिओं पर निश्चय से विजय पाना।
 प्राचीन काल में कमल पत्रों का उपयोग पत्र लिखने हेतु किया जाता था। इतने बडे-बडे पत्ते पानी के ऊपर तैरते रहते है। गोल आकार और सुंदर हरा रंग। दिनरात पानी में रहते हुए भी गीले नही होते है। यह निर्लेपता हमे भारतीय ऋषिमुनि, संतों की याद दिलाती है। हम जब किसी तालाब में कमल देखते है तग मुंहसे ‘वाह’ निकल जाती है किन्तु कमलफूल और कमलपत्र ही दिखाई देते है। डंठल का कही दर्शन भी नही हो पाता। जीवनरस देनेवाला तो वही है। अदृश्य रहते हुए भी सबकुछ। ईश्वर को हम कहते है ‘करुनि अकर्ता, जग निर्मयता|’ संतानों के कार्यकर्तृत्व से माँ का बडप्पन ध्यान में आता है। एक कुशल माँ के समान ही यह डंठल पंखुडियाँ भारी संख्या में होते हुए भी उनको इधर-उधर भटकने नहीं देता है, तितरबितर नहीं होने देता है। मानो, वह संगठन का बोधक है। विविधता में एकता का दर्शन कराता है।
 सुंदरता, सुगंधितता, कोमलता, निर्लेपता, विषम परिस्थिति से भी ऊपर उठने की क्षमता, संगठन कुशलता, इतने सारे गुणों से युक्त होते हुए भी उसकी चाह क्या है? श्रीहरी को अर्पण करने गजेंद्र ने जो कमल तोडा था वह अमर बन गया है जैसी ही अमरता उसे अपेक्षित है। एक कवि ने पुष्प की अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा है, ‘चाह है देशभक्तों के पैरों तले कुचले जाने की|’
 राष्ट्र सेविका समिति का केवल ऊपरी दृश्य रूप देखनेवाली महिलाओं के मन में प्रश्न उठता है ‘यह मूर्तिपूजा क्यों?’ यह मूर्तिपूजा है ही नही। हम तो पूजा के समान उसको गंध फूल अक्षत चढाते भी नही है। केवल पुष्पमाला और मनोभाव से किया हुआ प्रणाम। क्योंकि हम गुणपूजक है। सद्गुणों का, सत्कर्मका, तेज का सन्मान करनेवाले हम भारतीय है। भारत है। अष्टभुजा के गुण अपनाने का अधिकतम प्रयासकरनेवाली सेविकाओं का यह संगठन है।
 जिन्होंने चिन्तनपूर्वक यह प्रतिक कुशल चित्रकार से बनवा कर हेतुतः सेविकाओं के सामने रखा उनको वं. मौसीजी के उस चिन्तन को, उस प्रतिभा को शत शत प्रणाम।
साभार -

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