रविवार, 13 जुलाई 2014

तीन आदर्श

मातृत्व का आदर्श - जीजामाता

सूर्य से पहले अभिवादन करे पूर्व दिशा को
शिवबा से पहले अभिवादन जीजामाता को


$img_titleऐसा कहाँ गया है। शिवबाने स्वयंपराक्रम से हिन्दवी साम्राज्य निर्माण किया। परंतु जिसकी कोख से यह तेजस्वी वीर ने जनम लिया उसको प्रणाम करना अत्यंत आवश्यक है।
शिवाजी महाराज के जन्म से पूर्व ८ शतकों तक मुस्लिम के सतत आक्रमणों के कारण हिंदु समाज दुर्बल स्वत्वहीन बन गया था। उसकी प्रतिकार शक्ती लुप्त हो गयी थी। गुलामी की चूभन भी मिटती जा रहीं थी। ‘यहीं हमारी नियती है। भगवान रखेगा वैसा रहना है|’ ‘यह मानसिकता बन गयी थी। हम ‘स्वामी’ है। की भावना समाप्त होकर किसी ना किसी मुस्लिम राजा की नोकरी करना और उनका पक्ष ले कर दुसरे मुस्लिम राजाओं से लडना अर्थात हिन्दुओंसे ही लढना उनको काटना, मारना। मुस्लिम राजा की विजय अपनी विजय मानना यहीं मानसिकता बनी थी। हम हिन्दु है यह कहलानें में भी हीनता का भाव अनुभव होता था। राजा अर्थात वह मुसलमान ही होगा हम राजा नहीं बन सकते ऐसा क्षुद्रता का भाव हिन्दु समाज में भरा था। हिन्दुओं की उदासीनता के कारण विस्मृती में खोयी अस्मिता को जगानेवाली, हिन्दु राष्ट्र का चाणक्य नीती के अनुसार पुनर्निर्माण करनेवाली, हिन्दुस्थान को यवन भूमि बनने से रोकनेवाली, एक दृढ संकल्पित महिला १७ वी शताब्दी में सिंदखेड के राजा लखुजी जाधव के कुल में जन्मी नाम था जिजा।
बाल्यकाल से ही हिन्दु देवालयों,श्रद्धास्थानों का मुस्लिमोंद्वारा अपमान, महिलाओं का अपहरण, यह घटनाएँ नित्य देखती थी। यह देखकर उसका मन व्याकुल हो उठता-किसकी विजय के लिये हिन्दु मर रहे है? यह शौर्य वे अपनी स्वतंत्रता के लिये क्यों नहीं दिखा सकते? उनको कौन प्रेरित करेगा? उसके उन प्रश्नों का उत्तर देने में कोई भी समर्थ नहीं था। बाल जिजा के मन पर एक-एक खरोंच उठ रहा था।
लखुजी राजे जाधव के घर पर प्रति वर्ष रंग पंचमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाता था। १६०५ की रंगपंचमी महत्वपूर्ण थी। उस दिन मालोजी भोसले अपने पुत्र शहाजी को लेकर उपस्थित थे। शहाजी और जिजा परस्पर गुलाल खेलने लगे। मालोजी ने माजक में कहाँ, ‘बहोत ही योग्य जोडी है दोनों की। मालोजी समतुल्य होने के कारण मालोजी के साथ यह रिश्ता करने की जाधवराव की इच्छा नहीं थी। जाधव जैसे देवगिरी के यादव वंशज थे वैसे भोसले भी सिसोदिया राजपूत वंश के थे। अपनी सांपत्तिक स्थिती की बात मालोजी को खलती रहीं थी। कहा जाता है कि एक दिन उसको सपना आया की खेत में विशिष्ट स्थान पर खोदने से उसको विपुल धन मिलेगा, वैसा ही हुआ। निजामशहा ने भी मालोजी का दर्जा बढाया। निजामशहा का यह अप्रत्यक्ष आदेश है यह मानकर जिजा-शहाजी का विवाह ठाठ बाट से संपन्न हुआ।
वीररमणी तपस्विनी
शहाजी-जिजा का सहजीवन प्रारंभ हुआ। शहाजी राजा के मन में महत्वाकांक्षा जगी कि दक्षिण में मुस्लिम राज्यों पर हिन्दुओंका जीना दुर्भर होगा। इस उद्देश्य से दोनों में मित्रता नही हो ऐसा शहाजी का प्रयत्न चल रहा था। हिन्दुओं का स्वतंत्र राज्य निर्माण करने की भी शहाजी की कल्पना थी। शहाजी राजा को परिवार की ओर देखने को समय हीं नहीं मिलता था। परंतु जिजाबाई ने ससुराल के सभी लोगों का मन अपने शालीन व्यवहार से जीत लिया था।
फिर भी एक शल्य उसके मन में था। शहाजी राजे निजामशाही के आधार स्तंभ तो लखुजी जाधव  निजामशहा के-शत्रु की सेवा में। मायके ससुराल संबंधोंमें दरार बढ रहीं थी। ऐसी अवस्था में जिजा को पुत्र हुआ।  उसका नाम संभाजी रखा। निजामशहा ने लखुजी राजा को छलकपट से मारा। चीढकर दोनों कुल एक हो गये परंतु मुस्लिमों की विश्वासघाती वृत्ति से जीजा दुखी हुई। यवन विरोधी हिन्दु शक्ती खडी करने की अनिवार्यता बार-बार उसके मन में प्रतीत होने लगी। अर्भस्थ शिशु पर भी उसके संस्कार हाते रहे। ऐसी अवस्था में शिवनेरी पर शिवबा का जन्म हुआ। दिन था-१९/२/१६३० फाल्गुन कृष्ण तृतीया शके १५५१।
शहाजी राजा का सहवास बाल शिवबा को कम ही मिलता था। मुस्लिम अत्याचारों सें व्यथित  होकर जिजाबाई ने शिवबा के मन में स्वतंत्रता की आकांक्षा निर्माण की।  यवन हमारें देश के शत्रु है यह धीरे धीरे उसके मन में बैठने लगा। विजापुर के दरबार में बादशाह को उसने प्रणाम नही किया। बंगलोर में शहाजी राजा के साथ कुछ दिन रहते बाद जिजाबाई के ध्यान में आया कि विलासिता पूर्ण वातावरण में रहनें से वह शिवबा को अपनी चाह के अनुसार संस्कार नहीं दे सकेगी। अत:बंगलोर से पुणे में दादोजी कोंडदेव के संरक्षण में शिवबा के साथ जाकर रहने का निर्णय लिया। जिजाबाई की दृढ धारणा थी कि हिन्दुओंकी दैन्यावस्था-गुलामी दूरके लिये मुझे अपने पुत्र को ही तैयार करना है। गर्भावस्था से लेकर यहीं विचार प्रबल था। वैसे ही संस्कार बाल शिवाजी को देने हेतु पुणे जैसा और कोई स्थान नहीं था। पति को छोडकर इतने दूर रहना लोकापवाद था। परंतु यह एक महान योजना का अंश है ऐसी स्पष्ट कल्पनके कारण वह लोकापवाद सहन करती रहीं।
प्रभावी गृहस्थी
मुझे ही परिस्थिती बदलने वाला पुत्र निर्माण करना है। यह ध्यान में रखते हुए जिजाबाई ने दादोजी कोंडदेव की सहायता से शिवबा को युद्धकला के साथ- साथ रामायण, महाभारत के माध्यम से जीवन दृष्टी भी प्रदान की। दृढ धर्मनिष्ठा, महापुरूषोंको  के प्रति श्रद्धा, सादगी, शुद्ध चारित्र्य, स्वाभिमान आदि गुणों का बीजारोपण भी दोनों ने अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से किया। स्त्रीमाँ के समान है। उसका अपमान राष्ट्र का अपमान है। यह महत्वपूर्ण संस्कार दिया। पद्मिनी की कथा बताते हुए यवनोंको राज्य में स्त्री कितनी असुरक्षित है यह बताकर स्त्री का सम्मान तुम्हें ही पुन: प्रस्थापित करना है यह आकांक्षा जगायी।
कसबा पेठ के पुराने गणेशमंदिर का जीर्णोद्धार करके विघ्ननाशक देवता का आशीर्वाद प्राप्त किया और रहनेके लिये लालमहल बनवाया। अपराधियों को दंड दे कर धाक निर्माण किया। मालव क्षेत्र में चलनेंवालें आपसी झगडे न्याय देने हेतु बाल शिवबा और जिजाबाई के सामने लाने की पद्धति दादोजी कोंडदेव ने निर्माण की। प्रत्यक्ष न्यायदान का ही यह प्रशिक्षण था। रांझा के पाटील ने एक महिला का विनयभंग किया। अपराधी को शिवबा के सामने लाया गया। वह क्या न्याय देता है? सबकी आँखे उस ओर लगी रहीथी। उस पाटील की प्रतिष्ठा विचार न करते हुए शिवबा ने उसके हाथ पैर तोडने का दंड दिया। जिजा के संस्कार प्रभावी रहें। न्यायदान में किसी का पद, प्रतिष्ठा या रिश्तोंका दबाव नहीं होना चाहिए। उस क्षेत्र में रहने वाले मावल बालकोंको योजनापूर्वक शिवबा के साथ जिजाबाई ने युद्ध का प्रशिक्षण दिया। जिजामाता उनको भी संस्कारक्षम कथाएँ बताती थी। उनके गुणोंका शक्तीबुद्धि का उपयोग देश के शत्रु के साथ लडने के लिये सामुहिक रूपसे करने की प्रेरणा उनके मन में जगायी। यह करते करते सामाजिक समरसता की घूँटी भी पिलायी। भविष्य में प्राणोंकी बाजी लगानेवाले साहसी सरकारी भी शिवबा को इसीप्रक्रिया से प्राप्त हुए।
स्वराज्य संस्थापना की शपथ
स्वराज्य संस्थापना की कल्पना में साकार करते करते एक दिन शिवबा अपने साथियों को रायरेश्वर स्वयंभू शिव मंदिर में ले गया और अपने रक्त का अभिषेक करते हुए स्वराज्य स्थापना की प्रतिज्ञा ली। यह देखकर सभी साथियों ने भी शिवबा का अनुकरण किया। स्वतंत्र, ‘सार्वभौम हिन्दु साम्राज्य हो यह ईश्वर की इच्छा है। ‘ यह भाव स्वयं के और सभी के  मन में जगाया। जिजामाता को इसका पता चला तब उसने उनको शाबासी दी। इसे प्रोत्साहित होकर शिवाजी ने तोरणा किला जीतकर स्वराज्य का श्रीगणेश किया।
एक बार शिवबा और जिजामाता चौसर पट खेल रहे थे। शिवबा ने पुछा,‘ क्या शर्त रखना है विजय मिलने पर?’ जिजामाता के सामनेवाली खिडकी से कोंडाणा किले पर लहराने वाला हरा झंडा दिख रहा था। विधर्मीयोंकी अन्यायी सत्ता की वह निशानी थी। जिजामाता ने तुरंत कहां,‘ मेरी विजय होने पर वहाँ भगवा निशान चाहियें।’ कितनी सूचक व प्रेरक शर्त। आज बेट द्वारका जाते समय श्रीकृष्ण मंदिर से पहलेही जो आँखों को चूभता है वह भी अतिक्रमणकारियोंका हरा झंडा। परंतु आज कोर्स जिजामाता नहीं जिसकी आखोंमें वह चूभेगा।
सौभाग्य वा स्वराज्य
शिवबा का प्रताप विजापुर दरबार तक पहुँचा तब उसको रोक लगाने हेतु बादशाह ने शहाजी राजे को अकस्मात बंदी बनाया और पैरोंमें बेडियां डालकर विजापुर के रास्ते पर घुमाया। शिवाजी शरण आयेगा। शहाजी के प्राणोंकी भीक माँगेगा, ऐसी उसकी अपेक्षा थी। स्वराज्य या सौभाग्य ऐसा प्रश्न खडा हुआ तब जिजामाता ने स्वराज्य को अग्रक्रम दिया और कांटे निकलने की नीति अपनायी। दिल्ली के बादशाह से संधान बाँध कर उनको दोस्ती का आश्वासन देकर उनका दबाव विजापुर के बादशाह पर डाला।
शहाजी राजे का ज्येष्ठ पुत्र संभाजी भी विजापुर दरबार में था। अफझल के साथ १६५५ में युद्ध पर गया था। ऐसा कहां जाता है की अफझल खान ने कपट से उसकी हत्या की। जिजाबाई वह भूल नहीं पायी। अत: अफझल खान को मिलने जाते समय शिवबा को याद दिलायी। यहीं वै अफझलखान है जिसनें संभाजी को कपट से मारा है। अफझल खान इतना पराक्रमी हैकि तुम उसके साथसंधि करो- मिलने मत जाओ ऐसा कायरता का संदेश नहीं दिया।
शुद्धिकरण की नींव रखी
अफझलखान के मन में शहाजी राजे के बारे में द्वेषभाव था। शिवबा तंग करने के लिये उसने बजाजी qनबालकर को अचानक बंदी बनाया। गलें में संखल बाँधकर हाथी के पैरो तलें कुचलने की सजा दी। नार्सक राजे पांढरे ने मध्यस्थी करके वहसजा रद्द करने के लिये यशस्वी प्रयत्न किये। परंतु खान ने एक शर्त रखी। बजाजी को मुसलमान बनना पडेगा। बजाजी ने भी बादशाह  अपनी बेटी से उसका विवाह करायेगा ऐसी शर्त लगायी। बादशाह ने वह तुरंत मान्य की। यह घटना फलटन का qनबालकर परिवार व शिवबा को बहुत ही अपमानास्पद लगी। परंतु हिन्दु धर्म में पुन: उसको लाने का कोई रास्ता नहीं था। एक बार नित्यक्रमानुसार जिजामाता शिखर शिंगणापुर में दर्शन करने गयी तब वहाँ बजाजी को बुलाया और जैसे ही उसनें जिजामाता को देखां, उनके पैंर पकडकर रोने लगा, तब  जिजामाता ने उसको पुन: हिन्दु धर्म स्वीकारने के लिये कहां। बजाजी तो आने के लिये उत्सुक था ही। जिजामाता ने मंत्रीमंडल को बुलाया-धर्मांतरण कैसे गलत जबरदस्ती से था और अब तक यह मामला एक तरफा रहने के कारण हिन्दु समाज का कितना संख्यात्मक राष्ट्रात्मक नुकसान हुआ है। इसलिये इच्छा होने पर शुद्धिकरण नीति कैसी आवश्यक है यह समझाया- बजाजी पुन: हिन्दु बन गया। उसको समाज में प्रतिष्ठा दिलाने के लिये शिवबा की पुत्री सखुबाई का विवाह बजाजी पुत्र के साथ करवाया। शुद्धिकरण की प्रक्रिया को प्रतिष्ठा देने के लिये जिजामाता ने यह एक अति साहसी, क्रांतीकारी कदम उठाया।
इसका परिणाम बहुत ही दूरगामी हुआ। मुस्लिमोंको भी धक्का लगा। हिन्दु समाज की मानसिकता बदली  परंतु बाद के काल में शासनकर्ताओं को समाज नेताओंको यह भान नहीं रहा और मस्तानी का पुत्र समशेर बहादूर को मुस्लिम ही रहना पडा।  जिजामाता का अभिनंदन इसलिये अधिक करना चाहिये की एक स्त्री ने यह राष्ट्र हितके लिये सामाजिक क्रांति करायी। स्वराज्य के मंत्रिमंडल के कामों में शुद्धिकरण का एक स्वतंत्र विभाग बनाया। मेधातिथी तथा देवल  ऋषि के ५०० साल बाद स्वधर्में लोटने का मार्ग खुला करनेवाली, अलौकिक दृष्टि वाली एक महिला थी यह अभिमानास्पद था। नेताजी पालकर, पिलाजी तथा बाजी प्रभू देशपांडे का घर वापसी उदाहरण प्रसिद्ध है। केवल हिन्दु धर्म में वापस लाने तक बात सीमित नहीं थी। परंतु धार्मिक अत्याचार करके धर्मांतरण करने वालों को कठोर दंड शिव छत्रपति देते थ। गोवा के पोर्तुगीज लोगोंने धर्मांतरित हिन्दुओं को वापस देने को नकारने पर पोर्तुगीजों का शिरच्छेद किया। गवर्नरको घबराकर अपना आज्ञापत्र वापस लेना पडा। आज भारत के अनेक भागों में जबरदस्ती से धर्मांतरण और उत्पीडन हो रहा है। काश! स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों ने शिवचरित्र पढा होता। स्वा. सावरकर ‘छ: स्वर्णिम पृष्ठों में लिखते है..
मुस्लिम धर्म में गये हिन्दुओं को वापस लानाधर्म विरूद्ध है। इस हिन्दु धर्मीयों की धारणा के कारण मुस्लिमों को इस्लामी धर्म के संरक्षण के लिये कुछ भी चिन्ता करनेका कारण नहीं रहा। उनकी एकमेव चिन्ता थी की अपना धार्मिक आक्रमण लगातार बढाकर हिन्दुओं के पास  राजसत्ता आयी तो भी इस्लामी धर्म सत्ता की कक्षा भारत भर फैलान के  भगीरथ प्रयत्न चलाना है।
जिजामाता कार्य को और एक प्रशस्तीपत्र
अफझल खान अतुलित बलशाली, हिन्दु द्वेष्टा सरदार था। उसको मारकर शिवाजी,जिजामाता को मिलने राजगढ गयें, तब उन्होंने कहां, ‘संभाजी का बदला लिया,पराक्रम की शर्थ की मेरी आखें तृप्त हो गयी। भगवान की कृपा से यहस्वर्ण दिन आया है। अफझल खान वध से हिन्दुओं की शक्ति और मुस्लिम भयव्याप्त हुए।
सिद्दी जौहरने पन्हालगढ को घेर लिया था। दूसरी और से शाहिस्तेखान आक्रमण कर रहा था। कोई सेनापति नहीं था। फिर भी मराठी सेना ने वृकयुद्ध के सहारे छापे मारे। पन्हाळगढ का घेरा इतना पक्का था कि चींटी  भी घुस नहीं सकती थी। सिद्दी जौहर पर बाहर से आक्रमण करने से ठीक होगा ऐसा शिव छत्रपती सोच रहे थे। अपना पुत्र इस प्रकार फंस गया है यह देखकर जिजामाता स्वयं हाथ में शस्त्र लेकर सिद्ध हुई। नेताजी पालकर ने उनको रोका। शिवबा बहोत चतुराई से पन्हालगढ से निकल गये। माँ बेटे की भेट हुई इसका शब्दों में वर्णन करना असंभव है।
१६४२ से शहाजी राजे, जिजामाता की भेट नहीं हुई थी। स्वयं को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये पति विरह के दावानल में झोंककर उनकी तपस्या चल रही थी। १६६१ में शहाजी राजे महाराष्ट्र में आये। स्वराज्य प्राप्ति का जिजाबाई को सौंपा हुआ कार्य पुत्र के द्वारा सफल हुआ देखकर अनको बहोत आनंद  हुआ। परंतु वापस जाने के लिये वे मजबूर थे। तीन वर्ष बाद उनकी अपघाती मृत्यू हो गई। जिजाबाई सती जाना चाहती थी। परंतु शिवबा ने ने उनको रोका। स्वराज्य स्थापना के  कार्य में उन्होंने अपरंपार संकट झेले थे। परंतु शहाजी राजा का दु:ख जबरदस्त था। फिर भी खवास खान के आक्रमण का समाचार मिलते ही मंगलोर की ओर नौदल मोर्चे में व्यस्त शिवबा को उन्होंने पत्र लिखकर सचेत किया और उसका पराभव करने की सूचना दी। ‘हमारी मनोकामना पूर्ण करनेवाले सुपुत्र आप है।’ ऐसी आशा प्रकट की। विश्वासघातकी बाजी घोरपडे को और सावंत उनको भी छोडना नहीं था। राज्यकर्ता में कितना स्वाभिमान व चतुरस्त्रता चाहिए इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। १६६५ में  अपनी दिव्यचरिता मातोश्री की सुवर्णतुला शिवबा ने सूर्यग्रहण के समय की और वह सारा सुवर्ण दान कर दिया।
शिवाजी हर संकट के बाद अधिक बलशाली होता है यह देखकर औरंगजेब ने और एक चाल चली। जयसिंह और दिलेर खान को संयुक्त मोर्चे की आज्ञा दी। जयसिंह एक नैष्ठिक हिन्दु कहलाता था। वह दुसरे क हिन्दु को - जो हिन्वी स्वराज्य स्थापना के लिये कृतसंकल्प था। उसको  नामोहरम करनें में तैय्यार हुआ। शिवबा तो तह करना पडा। जब वह औरंगजेब से मिलने आग्रा गया तब उसको औरंगजेब ने कैद किया। औरंगजेब की कैद से शिवबा कैसे बाहर निकले यह सब जानते है। परंतु वे जब वापस आकर माँ को मिले तब जिजामाता को कितना आनंद हुआ होगा। आगरा में शेर की घुफा में जाना, प्राण बचाकर आना यह योजना अद्भूत थी । उसमें जिजामाता भी सहभागी थी।
प्रथम विवाह कोंडाणा का
जिजामाता स्वराज्य की प्रेरणा सभी में कितनी बलिष्ठ निर्माण की थी यह तानाजी मालुसरे कोंडाणा लेने के लिये अपने पुत्र का विवाह छोडकर जाते है इससे सिद्ध होता है।  परंतु धीरे धीरे जिजामाता ने अपना निवास पाचाड में किया। राज्यव्यवस्था से अपना मन हटाकर वे ईश्वरभक्ति में समय व्यतीत करने लगी। अब उनका पुत्र सक्षमता से राज्य संभाल रहा था। स्वप्न साकार हो रहा था।
स्वप्न साकार हुआ
अब जिजामाता की  एक ही इच्छा थी, ऐसे दिग्विजयी पुत्र का राज्याभिषेक देखने की। वह भी समारोह अत्यंत गरिमामय रीती से संपन्न हुआ। जिजामाता का जीवन कृतार्थ हुआ। इसी दिन के लिये जीवनभर उन्होंने प्रयास किये थे। वह उनके बेटे का राज्याभिषेक ही नही था। अपितु हिन्दु अस्मिता सिंहासनाधिष्ठित हो रही थी। हिन्दु शब्द उच्चारने के लिये थर्राने वाले हिन्दु का स्वत्व, स्वाभिमान आज गर्व से सिंहासन पर अभिषिक्त होने वाला था। यह हो ऐसी ईश्वर की इच्छा थी। क्योंकी यह ईश्वरीय देश है।  ईश्वरी इच्छापूर्ती का साधन बनने की कृतकृत्यता उसमें थी। यह समारोह देखने के बाद अपना जीवित कार्य पूर्ण हो गया है, यह शरीर छोडना चाहिए ऐसा उन्होंने सोचा और केवल दो सप्ताह के अंदर सचमुच वह चल बसी। इतने वर्ष अत्यंत ममता से लालन-पालन किया हुआ अपना पुत्र तथा स्वराज्य जनता को सौंपकर उन्होंने शरीर का मोह छोड दिया।

पुस्तक -जिजाऊ मातृत्व का महान मंगल आदर्श - सेविका प्रकाशन


धन्य जिजाई
स्वयं झुका है जिसके आगे हर क्षण भाग्य विधाता।
धन्य धन्य है धन्य जिजाई ,जगत वंद्य माता ।।धृ ।।
जाधव कन्या स्वाभिमानिनी क्षत्रिय कुल वनिता।
शाह पुत्र शिवराज जननी तू अतुलनीय माता। ।
माँ भवानी अराध्य शक्ति से तुझको बल मिलता।।१।।
राज्य हिन्दवी स्वप्न युगों का
अश्व टाप शिव सैन्य, काँपती मुगल सलतनत मन में ।
अमर हो गई तव वचनों हित सिंहगढ की गाथा ।।२।।
हर हर, हर-हर महादेव हर घोष गगन गुंजा।
महापाप तरू अफझलखां पर प्रलयंकर टूटा।
मूर्तिभंजन अरिशोणित से मातृचरण धुलता ।।३।।
छत्रपति का छत्र देखकर तृप्त हुआ तनमन ।
दिव्य देह के स्पर्श मात्र से सार्थ हुआ चंदन।
प्रेरक शक्ति बनी हर मन की जीवन जनसरिता  ।।४।।


देवी अहल्याबाई होलकर


$img_titleकर्तृत्व का महामेरू

राष्ट्र सेविका समिती ने प्रारंभकाल से ही देवी अहल्याबाई को कर्तृत्व के आदर्श रूप में माना है। गंगाजल के समान शुद्ध, पुण्यश्लोक, देवी अहल्याबाई अपने इतिहास का एक सुवर्णपृष्ठ है। देवी अहल्याबाई के प्रति अपने जनसामान्योंकी श्रद्धा, आदर तथा अपनेपन की भावनाओं को प्रतिबिम्बित करनेवाली एक लोककथा बतायी जाती है।
लोकमाता अहल्याबाई
वर्षा ऋतु में नर्मदा उफनती हुई बह रही थी। उसकी लहरे होलकर जी के राजगृह की दीवारोंसे टकरा रही थी। गांजा के नशें में धुत कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे। अचानक उन लोगोंमें से एक उठकर अपने हाथोंसे दीवार को सहारा देता हुआ खडा हो गया। अन्य साथी भी उसके बुलानें पर हाथों से दीवार को सहारा देने लगे। वहां खडे अन्य लोगोंने जब पुछा कि वे इस प्रकार क्यों खडे है, तब उत्तर आया, ‘क्या इतना भी नही समझते हो? अरे, अपनी माताश्री अंदर है। आओ, तुम लोग भी आ कर माँ को बचाने के काम में जुट जाओ।’
नशें में बेहोश व्यक्ति भी अहल्याबाई की सुरक्षा के बारें में कितना सजग है यह देखकर ऐतिहासिक सत्यासत्यता के अतिरिक्त जनमानस की भावना का दर्शन होता है।
व्यक्तिगत जीवन
देवी अहल्याबाई का जन्म जन्म इ. १७२५ में वर्तमान अहमदनगर जिले के जामखेड तहसील के चौडी नामक छोटे से ग्राम में हुआ। माणकोजी शिंदे की यह कन्या १२ साल की हुई। एक बार पेशवे महाराज ने शिव मंदिर में शिवजी के पूजा में लीन अहल्या को देखा । उन्होंने मल्लरराव से इस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने को कहां और २० में १७७३ इस शुभ दिन अहल्याबाई का विवाह खंडेराव के साथ संपन्न हुआ। वैभवसंपन्न होलकर कुल में गुण संपन्न अहल्याबाई ने पदार्पण किया। ऐसा ही मानसिक अवस्था में वह सन १७४५ में पुत्र मालेराव एवं सन १७४८ में कन्या मुक्ताबाई की माता बनी। पुत्र की दुराचारी वृत्ति से व्यथित सुभेदार मल्हरराव ने अहल्याबाई की योग्यता को परखते हुए उन पर कारोबार का अधिकाधिक दायित्व सौंपना शुरू किया।
अग्निपरीक्षा के क्षण
दि. २४ मार्च १७५४ में कुंभेरी की लडाई में खंडेराव की मृत्यू हुई। मल्हरराव के आग्रह पर अहल्याबाई ने सती होने का निश्चय बदलकर प्रजजनों की माता बनाना श्रेष्ठ माना। अहल्याबाई राजनीति का एक-एक पाठ मल्हरराव से ग्रहण कर पति के चिरवियोग का दु:ख कम करने का प्रयास कर रहीं थी। तभी सन १७६१ में उनको माँ की ममता देनेवाली उनकी सांस गौतमाबाई का स्वर्ग वास हुआ। और तीन साल के बाद ही सन १७६४ में उनके गुरू, मार्गदर्शक पितृसदृश आधारस्थान मल्हरराव की मृत्यू हो गई।
अब शासन का संपूर्ण दायित्व अहल्याबाई पर आया। उनका पुत्र मालेराव अपने दादजी जैसा दूरदर्शी राजनीति कुशल नहीं था। राजकार्य से भी उसे अधिक रूचि थी। जंगली जानवरों का शिकार खेलने में रूचि थी। पूजापाठ के लिये आनेवाले पंडितों कोजूतों में तथा दान पात्रोंमें बिच्छू इ. रखना और उनके दंश से पीडित पंडितों की  चीखें सुननें में उसे असुरी आनंद मिलता था। इन हरकतों को धेखकर तथा एक दर्जी के दुवर्तन से आशांकित मालेराव ने उसकी क्रुरता से की हुई हत्या से व्यथित अहल्याबाई ने अपने पुत्र को माहेश्वर में स्थानबद्ध किया। वहाँ पर ही उसकी मृत्यू हो गई।
देवी अहल्याबाई की कन्या मुक्ताबाई का पति यशवंत फणसे, एक होनहार युवक था। मुक्ताबाई का पुत्र जो जन्म से ही कुछ दुर्बल था, उसकी मृत्यु हुई। उनकी उत्तराधिकारी बनाने का देवी अहल्याबाई का सपना टूट गया। यशवंतराव इस सदमे को सह नहीं सका। उससे वो बीमार हो गये। तीन साल के अंदर ही वह भी अपने पुत्र के रासते चल पडें। मुक्ताबाई ने पति के साथ सती होने का निश्चंय किया। अहल्याबाई अपनी कन्या को इस निश्चय से परावृत्त नहीं कर पायी। देवी तीन दिकतक अपने कक्ष से बाहर नहीं आयी। नियती को अपनी विजय का आभास हुआ। परंतु लोकमाता अपनी भूमिका नहीं भूल सकी। अहल्याबाई ने राजकर्तव्य क कठरो;तापूर्वक पालन करते हुए मन:शांति एवं आत्मिक बल के लिये धर्मकृत्य में समय बिताती रही।
सदैव प्रतिकूल परिस्थितीयों और दुर्भाग्य से संघर्ष करने के कारण शरीर क्षीण होता गया। दि. १३ अगस्त १७९५ श्रावण ९भाद्रपद० कृष्ण चतुर्दशी का दिन. गंगाजल सम निर्मल जीवन प्रवाह अखंड शिवनाम स्मरण करते हुये शिवप्रवाह में विलीन हुआ।
श्रेष्ठ प्रशासक
देवी अहल्याबाई ने संस्थशन का कार्यभार संभाला। तब अनेक संकट उनके सामने थे। राज्य का पुराना अधिकारी गंगाधर चंद्रचूड राघोबादादा के सहयोग से बडी सेना लेकर इंदौर आ धमके। अहल्याबाई ने अपनी सेना के महिला पथ को सतर्क किया। और राघोबाको कहाँ, ‘मेरे पुरखोंनेअपने परिश्रम और पराक्रम से यह राज्य प्राप्त कियाहै। आक्रमण करने वालोंको मूंहतोड उत्तर दिया जाएगा। ‘अहल्याबाई ने पत्र भेजा कि, मेरी महिला सेना पर आपने विजय प्राप्त तो की तो भी आपको कोई बड्डपन नहीं मिलेगा। परंतु उल्टा हुआ तो आपकी हंसी उडाई जायेगी। इसका विचार करकेही आप युद्ध के लिये आगे बढे|’
राघोबा दादा हालात को समझ गयें उन्होंने देवी अहल्याबाई को संदेश भेजा। ‘मै आपसे लडाई नही अपितु आपके उकलौते पुत्र की मृत्यू परशोक प्रकट करने आया हूँ|’ अहल्याबाई ने प्रत्युत्तर भेजा। ‘शोक प्रकट करने के लिये इतनी बडी सेना का क्या काम? आप अकेले पधारे, घर आपका है। आपका स्वागत है|’ राघोबा बाजी हार गये। पालकी में बैठकर आयें। इस तरह से देवी ने राज्य को युद्ध के संकट से बचाया।
नारो गणेश नाम के अधिकारी की प्रमाणिकता पर देवी अहल्याबाई को संदेह था। इसलिये उस बंदी बनाया। तुकडोजी होलकर ने देवी अहल्याबाई को पुछे बिना ही उसे  रिहा कर दिया और पूर्व पद पर बिठा दिया। लेकिन अहल्याबाई अपने प्रशासन में यह परिवर्तन सहन नहीं करेगी इस भय से वह बहोत बेचैन हुआ। इसलिये महादजी शिंदे के पास जाकर अहल्याबाई को समझाने की प्रार्थना की। महादजी ने कहां, ‘श्रीमंत पेशवे, मुगल, भोसले इनमें किसी को कुछ समझाना है तो समझा सकता हूँ। किन्तु अहल्याबाई के बारें में यह असंभव है। क्योंकि वह बहुत सोच समझकर निर्णय लेती है अत: उसे बदलना कठिन है।
देवी अहल्याबाई के प्रशासन को दिया गया यह एक मौलिक प्रमाणपत्र  ही है।
सेनापति तुकोजी, सेना के व्य के लिये धन की माँग करता था। उसके बारें में सेना खर्च के लिये राज्य कोष पर निर्भर नही रहना चाहिए ऐसी स्पष्ट विचारधारा थी।  आवश्यक मात्रा में धन जरूर देती थी। परंतु पहले दिये गये धन का पुरा हिसाब प्राप्त होने के उपरान्त ही अगले किश्त देने की उनकी नीति थी।
वीरता का परिचय
देवी अहल्याबाई ने बार बार अपने अधिकारी नही बदले। परंतु किसी का एकाधिकार न हो इसके संदर्भ में वो सतर्क रहती थी। सेना में भर्ती के बारे में वो ध्यान देती थी। कर्नल बॉयड इंदौर में रहकर संस्थान की सेना को प्रामाणिकता से प्रशिक्षित करने के लिये लिखित रूप से वचनबद्ध था। अपराधी चाहे कितना भी बडा हो, इसकी गलती माफ नहीं की जाती थी। निर्धारित राशी से अधिक धन किसीसे नहीं लिया जोता था। देवी अहल्याबाई ने बार- बार युद्ध नही किया। एक बार चंद्रावत से युद्ध उसने होलकर शासन से किये हुए विद्रोह के कारण हुआ। अहल्याबाई को सामान्य महिला समझकर उन्होंने बडी भूल की। अहल्याबाई ने सेनानि शरीफभाई को बडी सेना के साथ भेजा और स्वयं युद्ध का संचालन किया। होलकर सेना की विजय हुई। सौभाग्य सिंह को तोफ के मूँह बाँधकर उडा दिया। उससे सारे देवी के शरण में आये।
न्याय व्यवस्था
देवी अहल्याबाई की निष्पक्ष न्याय व्यवस्था निश्चित ही अनुकरणीय एवं अभिमानास्पद है। महत्पुर के राजमूतोंने अपनी शिकयत प्रस्तुत करने पर देवी अहल्याबाई ने संबंधित कर्मचारियों को बुलाया और ११ सूत्रीय पत्रक दिया जो उनकी न्यायबुद्धि का द्योतक है।
रघुनाथसिंह निवाडी नामक एक रसोइयां के मरने के बाद वह निपुत्रिक ही थश ऐसे समझकर उसकी ४२६ रू. ३ आने ६ पाई की संपत्ती राजकोष में जमा कर दी गई। परंतु उनका एक पुत्र है। ऐसा पता चलने पर वह राशि तुरंत उस पुत्र को वापस देने को आदेश नदे दिया।
उनके राज्य में न्याय पाना बहोत ही सरल था। नागरिकों की उकने न्याय पर इतनी श्रद्धा थी कि उनकी आज्ञा न मानना वे पाप समझतो थे। श्रीमंत पेशवे द्वारा भी अगर किसीपर अन्याय हुआ तो देवी स्वयं उनसे बात करके न्याय दिलवा देती थी।
लुटेरे भील बने शूर सैनिक
उन दिनों भीलोंका उपद्रव बढा था। उनको कुछ सामंतो का आश्रय था। देवी अहल्याबाई ने उनके मुखिया को दरबार में बुलाया और लुटमार करके यात्रियों को परेशान करके का कारण पुछा-‘सीधे रास्ते से जीने का कोई साधन न होने के कारण यात्रियों को लुटना पडता है। ‘यह जवाब सुनकर उन्हें शस्त्र, वेतन और इज्जत देने की इच्छा देवी अहल्याबाई ने प्रकट की औरभीलों पर यात्रियों की सुरक्षाकी जिम्मेदारी सौंपी गयी। यात्रियों से एक कौंडी करके रूप में लेने की व्यवस्था शुरू की गयी, जो ‘भील कौंडी’ नाम से प्रसिद्ध है।
डाक व्यवस्था
इसवी १७८३ मेंअहल्याबाई ने महेश्वर से पुणे तक डक व्यवस्था चलाने का दायित्व पद्मसी नेन्सी नामक कंपनी को सौपा था। डाक लाने-ले जाने के लिये २० जोडियां थी। डाक पहुँचने में विलंब होने पर प्रतिदिन उत्तरोत्तर देर राशि में कटौती होती थी। कुछ हानि होने पर कंपनी से क्षतिपूर्ति ली जाती थी।
अपमानों का चिन्ह मिटाया
तीर्थयात्रा करते समय देवी अहल्याबाई ने जब भग्न मंदिरोंके अवशेष देखे तो उनका मन पीडा से व्यथित हुआ। इन मंदिरोंमें फिर से पूजन, धार्मिक ग्रंथों का पठन हो इसलिये योजना बनाई। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से बद्री नारायण से लेकर रामेश्वर तक व द्वारका से लेकर भुवनेश्वर तक अनेक मंदिरो का पुन:निर्माण किया। धर्मस्थल शासनावलंबी न हो स्वावलंबी हो इसलिये उन्होंने उनको भूखंड दान दिये। इस प्रकार के धार्मिक कार्य के लिये संपूर्ण व्यय देवी अहल्याबाई ने अपनी व्यक्तिगत संपत्ती से ही किया। व्यक्तिगत संपत्ती का हिसाब के समान रखती थी। व्यक्तिगत धर्म से अधिक महत्व राष्ट्र धर्म को देती थी। उन्होंने धर्म धर्म क्षेत्र को राजाश्रय दिया। परंतु राष्ट्रीय स्वरूप भी प्रदान किया। राजनीतिक प्रदेश भिन्न होंगे परंतु उनको सांस्कृतिक एकात्म रूप दिया अहल्याबाईने। उनके मानव धर्म का लाभ पशु-पक्षियों को भी मिला। अनेक विद्वान अभ्यासकोंको राजाश्रय दिया। गंगाजल की कावड निर्धारित स्थान पर और निर्धारित समय पर पहुँचाने की व्यवस्था स्थायी रूप से की है। बुनकर उद्योग को प्रोत्साहन स्वरूप अन्न, वस्त्र, निवारा, उद्योग के लिये धन एवं तैयार कपडे बेचने की वयवस्था की। महेश्वर को राजधानी बनाते समय वहाँके ग्रामजनों का पूर्ण सहयोग लिया। अपनी राजधानी सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बनाने के पयास किये। राजकीय व धार्मिक दृष्टि से देवी अहल्याबाई का जीवन बेजोड था।
जयजयतु अहल्यामाता
हे कर्मयोगिनी । जयतु अहल्यामाता। जयजयतु अहल्यामाता ।
युगो युगों तक अमर रहेगी यशकीर्ति की गाथा। जय जयतु अहल्या माता  ।।धृ।।

दीप ज्योतिसम तिल तिल जलकर, स्वार्थ भावना परे त्यागकर
पूज्य बन सकी सतत प्रवाहित, उज्जवल जीवन सरिता ।।१।।

कर्म भविष्य की प्रबल धारणा, कभी किसी से की न याचना
यज्ञ रूप जीवन ज्वाला में प्रखर हुई तब आभा ।। २।।

जीवन भर स्वजनों का सह दु:ख, कर्तव्यों से हुई न परमुख
नीलकंठ सम गरल पानकर क्षण-क्षण जीवन बीता ।।३।।

अन्न क्षेत्र धर्मात्म चलायें मंदिर घाट कुएँ खुदवाएँ
परार्थ- सुख जीवन को सार्थक दिव्य चरित्र की गाथा ।।४।।


नेतृत्व की तेजस्वी ज्योति - रानी लक्ष्मीबाई



$img_title१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम को अपने नेतृत्व से नया आयाम देनेवाली साहसी, शूर युवती का चरित्र नित्य प्रेरणा देनेवाला है। उनकी तेजस्विता स्वदेशाभिमान, स्वातंत्र्य प्रेम अभूतपूर्व था।
उनका जन्म वाराणसी में कार्तिक कृ. १४ नवम्बर १८३५ को हुआ। मोरोपंत तांबे तथा भागिरथी की यह कन्या का मनकर्णिका मनु छबेली नाम से परिचित थी। ब्रह्मावर्त में दुसरे बाजीराव पेशवा के आश्रय से तांबे परिवार रहता था। बाजीराव के पुत्र रावसाहब और नानासाहब के साथ मनु की भी शिक्षा प्रारंभ हुई। पेशवा ओंके सान्निध्य से उनके मन में स्वतंत्रता का स्फुल्लिंग सुलग उठा। उसकी ही प्रलयंकार ज्वालांएँ १८५७ में प्रकट हुई।
तेजस्वी बाल्यकाल
मनु के बालजीवन की एक दो घटनांएं प्रसिद्ध है। वह छोटी थी तब उसको गंगा माता के किनारे जाकर बैठने की आदत थी। ऐसे ही एक दिन घांट पर नदी प्रवाह में पैर डालकर वह बैठी थी तब दो- चार अंग्रेजी सिपाही आये और घाटों पर बैठनेवाले सभी को हटाने लगे और ‘मॅडम आ रही है उठो, हटों ‘का शोर मचा। सभी लोग डर के मारे भागने लगे परंतु मनु वैसे ही बैठी रही। ऐसा देखकर सिपाही गुस्सा हो गये। छोटी सी मनु निर्भयता से उनको पुछती है। कौन आ रहा है? सबको क्यूँ हटा रहे हो? ‘जब पता चला की कोई अंग्रच अधिकारी की पत्नी आ रही है तो मनुने कहां, ‘वह कौन होती है हमें हटानेवाली? गंगामैय्या हमारी है। हम नहीं हटेंगे।’ वे जबरदस्ती से हटाने लगे तो वह चिल्लाकर प्रतिकार करती रहीं। नानासाहब और रावसाहब घुडसवारी का अभ्यास कर रहें थे तब घोडा एकबार बेकाबू हो गया। और नाना साहब गिर गये। मनु ने यह देखा तो वह जोर से हंस पडी। नानासाहब को बहोत गुस्सा आया। नोकर उनको उठाकर ले गये। दुसरे दिन मनु उन्हें देखने गई। नाना साहब का गुस्सा उतरा नहीं था। मनु आती हुई देखकर उन्होंने दीवार की ओर मुंह फेर लिया। मनु के पुछने पर उन्होंने बताया कि, ‘हम गिर गये, और तुम हस रहीं थी? अगर तुम गिर जाती तो? ‘मनु अबतक मजाकी मानसिकता में थी। अब गंभीर होकर बोली, ‘एक तो मै घोडे पर ऐसी पकड रखूंगी की घोडा बेकाबू होकर मै कभी गिरूंगी नहीं और यदा कदा गिरूंगी तो रोऊँगी नहीं। जो कुछ होगा धैर्य से सह लूँगी’ मनु की नियती ही मानो बोल रहीं थी।
राज परिवार के होने का कारण नाना साहब राव साहब हाथी पर बैठ रहे थे। छोटी मनु के मन में भी हाथी पर बैठने की इच्छा हो रही थी तब उसको कहां गया, ‘तुम तो आश्रित की बेटी हो, राजवंश के लोग ही हाथी पर बैठते है। ‘मनु को घोर अपमान महसूस हुआ। उसने कहां कि आप भी देखेंगे की मेरे दरवाजें पर ४-४ हाथी झूलेंगे। और सचमुच मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर पंत नेवालकर से हुआ। हाथी पर बैठकर रानी की शांन सेही उन्होंने झांसी में प्रवेश किया। तुरंत उसने एक हाथी बहोत सजाधजाकर ब्रह्मावर्त में भेट रूप भेज दिया। ऐसी है यह मानिनी।
नेवालकर पूर्व इतिहास
गंगाधर पंत के पूर्वज रघुनाथराव इ. स. १७७० में झांसी के सूबेदार बने। उनके भाई शिवराम भाऊ १७७१ में सूबेदार बने। बसई समझौते के पश्चात १८०४ में अंग्रेजी और शिवराम भाऊ में समझौता हुआ उसके अनुसार झांसी का राज्यवंश परंपरागत शिवरामभाऊ के वंशजों को ही मिलेगा ऐसा तय हुआ। शिवरामभाऊ के पुत्र गंगाधर राव इ.स. १८४२ में झांसी के अधिपति बने। ३० लाख रू. आमदनीवाला हिस्सा अंग्रजों ने झांसी में व्यवस्था हेतु रखी अपनी सेना की व्यवस्था के लिये रख लिया।
वैभव संपन्नता
गंगाधर राव के राज्य में शासन तथा न्याय की उत्तम व्यवस्था थी। ठाकुर, बुंदेले का विद्रोह उन्होंने दबाया। परंतु वे रसिक, कलाप्रेमी थे। कलाकारों को आश्रय देते थे। उनका महालक्ष्मी का मंदिर जगमगाता था। उनके पास ९२ हाथी, १०० घोडे ,५०० घुडसंवार और ५००० पदाति थे। स्थान-स्थान पर बगीचे, तालाब नाट्यगृह थे।
ऐसे सुंदर, वैभव संपन्न राज्य की स्वामिनी मनु बनी थी। गंगाधर राव को पुत्र नहीं था। पत्नी का स्वर्गवास हुआ था। कला सक्त राजा को संभालने वाली रानी आयेगी तो वह झांसी को बचायेगी। अंग्रजों की आखें इस राज्य पर गडी थी। मनु जैसी दृढ निश्चयी , देशप्रेमी युवती उनसे टक्कर ले सकती है। इस राजनीतिक उद्देश्य से यह विवाह हुआ ऐसे माना जाता है।
१८४२ में गंगाधर पंत और मनु का विवाह हुआ। दोनों की आयु में अंतर था। १८५१ में लक्ष्मीबाई को पुत्र हुआ परंतु वह अल्पायु रहा। इस आघात से गंगाधर राव का स्वास्थ्य गिरने लगा। राजवैद्या की दवाइयां व रानी लक्ष्मीबाई की सेवा का विशेष उपयोग नहीं हो रहा था। अत: एक बालक गोद लेने का निर्णय किया। गोद लिये हुए बालक का नाम दामोदर रखा गया। इस समारोह में झाँसी राज्य के पॉलीटिकल एजेंट एलिस, सेना का प्रमुख अधिकारी मेजर मार्टिन मोरोपंत आदि लोग उपस्थित थे। कंनी सरकार को दत्तक विधान की स्वीकृती देने हेतु आवेदन पत्र गंगाधर राव ने भेजा। समय-समय पर अंग्रेजी को दी हुई सहायता एवं उनके साथ किये हुए संधी की ९ वी शर्त का स्मरण दिलाया गया।
झांसी अनाथ हुई
आखिर गंगाधर राव का शरीर दि. २० नवंबर १८५३ को शांत हुआ। झांसी शहर शोक सागर में डूब गया। लक्ष्मीबाई पर कुटराघात हुआ। मेजर मार्टिन और एलिस ने सांत्वनापत्र भेजा परंतु उसी समय उन्होंने राज्य का खजाना मुहरबंद किया। शिंदे की ६वी टुकडीको उसके संरक्षण का दायित्व दिया। श्री. गंगाधर राव के पत्र का उत्तर नहीं आने पर लक्ष्मीबाई ने १९ फरवरी १८५४ को गवर्नर जनरलके पास पुन: आवेदन पत्र भेजा।
विस्तारवादी नीति
लॉर्ड डलहौसी की नीति थी कि किसी का भी दत्तक विधान मंजूर नहीं करनाऔर वह राज्य कंपनी राज्य से जोडना तथा अंग्रेजी राय का विस्तार करना। अत: रानी लक्ष्मीबाई के पत्र का एकही उत्तर आनेवाला था आया भी। झांसी का राज्य अंग्रजी राज्य में विलीन करो। ‘दत्तक विधान को मान्यता नहीं दे सकते। ‘एलिस यह पत्र लेकर रानी लक्ष्मीबाई के दरबार में पहुँचा। तब सिहनी जैसी गरजकर वो बोली, ‘ मै मेरी झांसी नहीं दूंगी। ‘एलिस को ऐसी अपेक्षा नहीं थी। अपनी भुमि, अपने राज्य विदेशियों को सौंपकर गुलाम बनना स्वीकार करना रानी के लिये असंभव था। परंतु अंग्रेजी बलशाली थे। उनकी हडपनीति के शिकार झांसी जैसे पंजाब, सातारा,  नागपूर, अयोध्या,  आदि अनेक राज्य थे।
महारानी लक्ष्मीबाई ने राजनीति के तहत अपना गुस्सा पी लिया और प्रतिशोध का अवसर खोजती रहीं। जांसी आते ही युद्धकाल का अपना शौक पति को बताकर महिला पथक तैय्यार करवाये थे। उसने कभी गहनें की वस्त्र की चाह नहीं रखी। इसका गंगाधरराव को आश्चर्य लगता था। उन दिनों में महिलाओं को घर से बाहर मैदान में आना समाज को पान्य नहीं था। परंतु रानी लक्ष्मीबाई ने अपना शौक पूरा करने के लिये पति को मना लिया। उसका अब उपयोग होगा यह सोचकर रानी ने अपने व्यक्तिगत आपत्ती के कारण शोक में न डूबते हुए महिला सैनिकों का अभ्यास चलता रहे यह देखा।
विस्फोट की ज्वालाएं
७ मार्च १८५४ को झांसी राज्य की स्वतंत्रता पूरी तरह समाप्त हुई। अंग्रेजों की सत्ता आकर १०० साल पूरे होनेवाले थे। अंग्रेजों के अत्याचार बढते ही जा रहें थे। अपनी भारत माता का धीरे-धीरे गुलामी की शिकंजे में फसाने का उनका कुटिल षडयंत्र सभी के ध्यान में आया था। विदोह की ज्वाला भीतर ही सुलग रहीं थी। ३१ मई सार्वत्रिक विद्रोह एक साथ करने की योजना में अनेक लोग सम्मिलित हो रहे थे। रोटी और कमलपुष्प का संकेत चिन्ह था। परंतु अचानक १० मई १८५७ को विस्फोट हुआ मेरठ की छावनी में बंदूक की गोलियों को गाय या सुअर की चरबी लगायी जाती है वह मूंह से खोलना पडता था। यह धर्मविरूद्ध आचरण का पाप हम कर रहें है, ऐसी भावना फैलती गयी। सैनिक जब बाजार में जाते थे। तब महिलायें उन्हें चिढाती थी या कभी चूडियाँ भेट करती थी। चरबी की घटना के कारण छावनी में क्षोभ फैलाव १० मई को मंगल पांडे ने विद्रोह कर दिया उसको तोप से उडाया गया। अन्य ९० सैनिकों को १० साल के लिये कारावास में भेजा गया। इस घटना ने तो आग में घी डाल दिया। अंग्रेज अधिकारियों की हत्या करना, उनके बंगलों को आग लगाना, कारागृह तोडना आदि का सिलसिला चल पडा। सैनिक अपनी छांवनी छोडकर दूसी छावनीयों में जाकर वहां विद्रोह की ज्वाला जलानें में लगे। ४ जून १८५७ को झांसी सेना की ७ वी टुकडी झांसी के किलें में प्रवेश कर अपना अधिकार जमा लिया। गोरे अधिकारी गोलियों से भूने जाने लगे। उन्होंने किले में आश्रय लिया। क्रांतिकारी वहां भी पहुँचे। वहां भी गोलियां चली। अंग्रजों ने संधि का निशान फहराया। किला क्रांतिकारियों की घोषणा थी। ‘खुल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अंमल रानी साहिब का’ ८ जून को किला रानी को सौंपकर क्रांतिकारी दिल्ली की ओर बढे।
८ जून १८५७ से ४ अप्रैल १८५८ तक रानी का अत्यंत गौरवशाली कार्यकाल रहा। परंतु उनको घर के शत्रुओंसे ही निपटना पडा। साशिवराव पारोलकर झांसी के राज्य उत्तराधिकारी के नाते खडे और करेरा का किला अधिकार में लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने  सेना की सहायता से वह किला जीत लिया।  ओरछश के दीवान नत्थे खां का आकमण भी रानी ने सफलता पूर्वक लौटाया। उसे युद्ध का खर्चा वसूल किया।
तेजस्वी व्यक्तिमत्वकी धनी
रानी लक्ष्मीबाई अत्यंत तेजस्विनी थी। दरबार में वह अत्यंत आत्मविश्वास से शुभ्र वेश धारण कर या पुरूषी वेश पहन कर फेटा बांधकर आती थी। कुशल रीती से न्याय करना, गुणवंतो का सम्मान करना, निर्भयता धैर्यशीलता, साहस ये  ये उनके कुछ विशेष गुण थे। शूरवीर सैनिकों को भी उदार उदार मन से सहाय्य करती थी। युद्ध में घायाल हुए सैनिकोंकी वह खुद पुछताछ करके मलमपट्टी करती थी। बहोत घायल या मरणोन्मुख सैनिककी अंतिम इच्छा पुछती थी। कुछ सैनिक उनके मातृस्पर्श की अपेक्षा रखते थे। उनके मन में विश्वास थाकी हमारी रानी हमारे परिवार की पूरी चिन्ता करेगी। मातृत्व की झालर होनेवाला जैसा नेतृत्व यहीं हमारी परंपरा है। नेता के बारें में पूर्ण विश्वास यहीं नेता का बल है।
अपने ११ मांस के कार्यकाल में रानी लक्ष्मीबाई ने काफी शस्त्र व बारूद का संग्रह किया। तोपें व बारूदे बनाने के कारखाने भी प्रारंभ किये। दूरदर्शिता के कारण उसने समझ लिया था अग्रेजो से घनघोर युद्ध करना पडेगा। और सच २१ मार्च को ह्यू रोज झांसी में पहुंचा। मार्ग में सागर, वाणपूर,शहागढ,के क्रांतिकारियों पर विजय प्राप्त की थी। ह्यू रोज ने मौके के स्थान पर मोर्चे लगायें। रानी लक्ष्मीबाई के पास शक्तीशाली ८० तोपे थी। खुदाबक्ष और गौसखान ये ये दो अत्यंत एकनिष्ठ तोपची थे। बारूद खाद्य सामुग्री आदि में स्त्रियां भी पीछे नहीं ती।
एक बुंदेला सैनिक ने अंग्रजों का मोर्चा लगाने का मौके का स्थान बताया। रानी साहिबा के निवास स्थान के सामने वाले मैदान पर ही गोल-बारूद का कारखाना थां। वहां एक गोला आकर गिरा। जोरदार धमाका हुआ और अपरिमित हानी हुई
दि. १ अप्रैल को २० हजारकी सेना लेकर सहाय के लिये तात्या टोपे आ रहें थे। उनके सैनिक प्रशिक्षित तो थे नही। रास्ते में उनको घेरकर अंग्रजों ने हमला किया तो उनको भागना पडा। फिर भी अंग्रेज झांसी के किलें में घुंस नहीं पाये। झांसी के नागरिक, हर सैनिक ने प्रतिकार किया। भेदवृत्तीके जयचंद की कुछ कमी नहीं रहती, ऐसा ही एक जयचंद निकला उसने किले का दरवाजा खोल दिया। अंग्रज आसानी से अंदर घुंस गये। रानी चडिका अवतार लेक वहां दौड गई और शत्रु की जोरदार कत्तल करना शुरू किया लेकिन अंग्रेज की संख्या जादा होने के कारण उन्हें लौटना पडा। झांसी के रास्ते रास्ते पर नागरिकों की कत्तल लगातार तीन दिन होती रहीं। शव ही शव बिखरे थे। दुर्गंध सभी और फैल गयी। रानी महाल भी टूट गया। उनका अमूल्य ऐसा ग्रंथ संग्रह भी उध्वस्त किया गया। काफी क्षति पहुंची थी। परंतु वे हमारी बुद्धी तो नहीं जला पायें।
प्रजावत्सल रानी माँ का ह्रदय अपने लोगांकी यह दुर्दशा देखकर द्रवित हुआ। वह अतीव निराश हो गयी। फिर भी सभी से की हुई बात के अनुसार किले से बाहर निकलकर राव साहब की सेना से मिलकर प्रयत्न करने का तय हुआ। इस युद्ध में रानी ने युद्ध का उत्कृष्ट संचालन किया।
सर ह्यू रोज को यह पता चलने पर वह आश्चर्यचकित हुआ। झांसी पे कालपी १३० मील की दूरी २२ घंटो के अंदर काटकर वहीं कोलपी पहुंची। तात्या टोपे ने युद्ध का नेतृत्व किया परंतु यश नहीं मिला। परंतु विचलित न होते हुए रानी ग्वालियर की ओर बढी। परंतु शिंदे साथ नही मिली। युद्ध में सेना की व्यूहरचना बडी ही कुशल थी। उस दिन उनके हाथ में नेतृत्व नहीं था। इस भीषण रन में उनकी सखी सुंदराबाई पर हमला करनेवालोंपर उसने मौत के घाट उतार दिया। महारानी लक्ष्मीबाई पकडकर देनेवालों को २०,००० रु. का इनाम अंग्रज सरकारने रखा था। रणक्षेत्र में ही उनकी प्राणज्योत शांत हुई। गंगादास बाबा ने कुटी में ही उनपर अग्नि संस्कार कर दिये। ‘मै क्या मेरा एक बाल भी अंग्रजों को नही मिलेगा’ यह उनकी प्रतिज्ञा उन्होंने सच कर दिखायीं। वह दिन था दि. १८ जून १८५८ ज्येष्ठ शुद्ध ७
क्रांतियुद्ध में सतत अग्रेसर रहकर हजारों वीरों का स्फूर्ति स्थान होनेवाली रानी लक्ष्मीबाई की युद्धकुशलता किसी पुरूष से कई गुना श्रेष्ठ थी। उनकी तेजस्विता का प्रभाव शत्रु पर ही पडा था। राजमाता के नाते उन्होंने काफी समाज कार्य किया। सामान्य लोगों में वो घुल-मिलकर बातचीत करती थी। उनके सुखदुख पुछती थी। अपनों के लिये ममतामयी माँ होनेवाली यह सुजनता की मूर्ति राष्ट्रीय भावना से प्रेरित हुई थी। हाथ में तलवार लेकर रणरागिणी बनकर बिजली जैसी चमकती थी तब शत्रु थर्रा गये।

अध्ययन हेतु पुस्तके 
१) झांसी की रानी-वृंदावनलाल शर्मा 
२) क्रांतिकथाएँ- श्रीकृष्ण सरल

खड्गधारिणी तुम्हें देत मानवंदना,
शत्रुसंहारिणी तुम्हारी आज अर्चना  ।।धृ।।
 शाम शांत धी मूर्ति तेजोमयि दिव्यकांति
अश्वारूढ देवि क्रान्ति! बार बार वंदना  ।।१।।
स्वाभिमरन दीप्त ज्योति बिजलीसे चंचल गति
वीरों को दे रहीं चंडीमूर्ति चेतना  ।।२।।
बीत गया वत्सरशत युद्धानल सर्व शांत
स्वतंत्र राष्ट्र आज स्मरें तुम्हारी तप: साधना  ।।३।।
राणी लक्ष्मी अमर नाम आर्य नारी का विक्रम
पुण्यरूप लो हमारी नम्र पूज्य भावना  ।।४।। 
जय जय कार करो लक्ष्मी का
जय जयकार, जयजयकार.जय जयकार करो लक्ष्मी का जो रणचंडी अवतार ।।धृ।।
तांबे कुल में जनम लिया, जिन मातुपिता यश फैलाया

रानी बन झांसी में आयी,राजवंश का मान बढाया
सैनिक शिक्षण दे सखियों को, महिला पथक किया तैय्यार ।।१।।
हुआ आक्रमण जब झांसी पर, शासन छोडो बोला गोरा
मेरी झांसी कभी न दूँगी, कडक बिजली काँप उठी घरा
रक्षण करने हिन्दु राष्ट्र का, हुई भवानी तब साकार  ।।२।।
स्वतंत्रता के प्रथम समय की, सेनानी यह वीर शिरोमणि
किया युद्ध का सफल संचलन, सरण में चमकी थी रणलक्ष्मी
दुष्ट दुर्जनोंका महिषासुर का मर्दिनी ने ही किया संहार ।। ३।।
एक बार पुनि आज दुहिते करती माता तुझे स्मरण है
पारतंत्र्य की लोह शृंखला, करने लगी पुन: झन झन है
स्वतंत्रता की ग्योति जलाओ, सुनो हमारी आर्त पुकार  ।। ४।।
                                                                                 संकलित 

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