शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

गीता में पर्यावरण पर विचार

गीता में परस्पर पोषण और समभागीदारी का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है।उसे यज्ञ माना गया है।यज्ञ साधना का प्रयोजन प्रकृति के चक्र को वनाये रखना है।इसके लिए हितकर और उपयोगी वस्तुयों का आदान-प्रदान आवश्यक है।जो इस सिद्धांत का उल्लंघन करता है वह चोर है। गीता के श्लोक ३/१२ में इसका उल्लेख किया  गया   है। प्रकृति हवा और शुद्ध पानी देती है।पेड़ वनस्पति हमें भोजन देते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हबा को साफ रखें। जव हम पानी प्रदूषित करते हैं तो समूचा चक्र खंडित होता है।इसलिए योगीराज कृष्ण कहते हैं कि ऐन्द्रिक  उपभोग को नियंत्रित करो।जो प्रकृति के चक्र को बाधित करता है वह पाप कर्म करता है\ जव हम सवका हित अपने सामने रखते हैं तो दोहन की अवधारणा सामने आती है।उदाहरण के लिए-वध केवल एक वार किन्तु दूध से पोषण बर्षों तक प्राप्त किया जा सकता है।इसलिए हिन्दू गाय से दूध प्राप्त कर धन्य होता है।गीता के यज्ञ साधना के मूल में यही सिद्धांत है कि प्रकृति का दोहन तो हो किन्तु शोषण कदापि नही। गीता का कर्म सिद्धांत , पाप की अवधारणा ये सभी पर्यावरण संरछन के ही उपाय हैं।  

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