शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

आकांक्षा-

ईश करे कि अंत:करण में धू-धू धधकती अक्षय ध्येयनिष्ठा की तीव्र प्रज्वलित ज्वालाओं में हमारे सभी संदेह और मनोविकार नष्ट हो जाएँ। अहर्निश ज्वलन से प्रदीप्त और कुंदन की भांति तपी हुई अपनी मानसिक ऊर्जा के वेगवती प्रवाह पर हम श्रेष्ठ विचार-तत्व का बांध निर्मित करें।संगठन के नेतृत्व और उसकी कार्यपध्दती में अटूट निष्ठां व अगाध श्रध्दा का भक्ति-भाव रख इस बांध से उत्सर्जित ऊर्जा को इस नित्य सिध्द शाखा के अज्रस्व,अखंड व् प्रचंड प्रवाह में विलीन कर दें।विवेक की छेनी से,बुध्दि की हथौडी से,ज्ञान के प्रकाश में,समर्पण की आखों के साथ,कर्म के हाथों हम अपने अंत:करण में भारत माँ की दिव्य प्रतिमा गढ़ संगठन  के कार्य में लय हो जांए।लय अर्थात जेसे दूध में शर्करा,घी में बूरा।
``लोटती है विजय चरणों पर उन्हीं के जो बढे हैं,
 तुच्छ कर स्व आपदाएं धर्म पथ पर जो अड़े हैं।
विश्व है झुकता उन्हीं के सामने जो हैं झुकाते
बदलकर बिगड़ी दशा बो गीत जय के गाते ।
बढ़ संभलकर बन उन्हीं सा,प्राप्त कर तू फल अभीप्सित ।
विजय है तेरी सुनिश्चित ,
विजय है तेरी सुनिश्चित।``



            

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