सोमवार, 13 मई 2013

अपने देशवासियों के प्रति


स्वामी विवेकानंद
ND
एक ओर नया भारत कहता है कि हमको पति-पत्नी चुनने में पूरी स्वतंत्रता चाहिए, क्योंकि जिस विवाह पर हमारे भविष्य जीवन का सारा सुख-दु:ख निर्भर है, उसका हम अपनी इच्छा से चुनाव करेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत की आज्ञा होती है कि विवाह इंद्रिय-सुख के लिए नहीं वरन् सन्तानोत्पत्ति के लिए है। इस देश की यही धारणा है। संतान उत्पन्न करके समाज में भावी हानि-लाभ के तुम कारण हो, इसलिए जिस प्रणाली से विवाह करने में समाज का सबसे अधिक कल्याण होना संभव है, वही प्रणाली समाज में प्रचलित है। तुम समाज के सुख के लिए अपने सुख-भोग ‍की इच्छा त्यागो।
        एक ओर नया भारत‍ कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खान-पान और वेशभूषा का अवलम्बन करने से ही हम लोग पाश्चात्य जातियों की भाँति शक्तिमान हो सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भार‍‍त कहता है कि मूर्ख ! नकल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है? बिना उपार्जन किए कोई वस्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है? 
       एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य जातियाँ जो कुछ कर रही हैं, वही अच्छा है। अच्छा नहीं है, तो वे बलवान कैसे हुए? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है, पर क्षणिक होती है। बालक! तुम्हारी आँखें चौंधियाँ रह‍ी हैं, सावधान! 
        तो क्या हमें पाश्‍चात्य जगत से कुछ भी सीखने को नहीं है? क्या हमें चेष्टा या प्रयत्न करने की जरूर‍त नहीं है? क्या हम सब प्रकार से पूरे हैं? क्या हमारा समाज पूर्णतया निश्छद्र है? नहीं, सीखने को बहुत कुछ है। प्रयत्न तो हमें जीवनभर करना चाहिए। प्रयत्न ही मनुष्‍य जीवन का उद्देश्य है। श्री रामकृष्‍ण देव कहा करते थे, 'जब तक जिऊँ, तब तब सीखूँ।' जिस व्यक्ति या समाज को कुछ सीखना ही नहीं है, वह मृत्यु के मुँह में जा चुका। सीखने को तो है, परंतु भय भी है।
       एक कम बुद्धिवाला लड़का श्री रामकृष्‍ण देव के सामने सदा शास्त्रों की निंदा किया करता था। उसने एक बार गीता की बड़ी प्रशंसा की। इस पर श्री रामकृष्‍ण देव ने कहा, 'किसी अँग्रेज विद्वान ने गीता की प्रशंसा की होगी। इसलिए यह ‍भी उसकी प्रशंसा कर रहा है।' 
       ऐ भारत ! यही विकट भय का कारण है। हम लोगों में पाश्‍चात्य जातियों की नकल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती है कि भले-बुरे का निश्चय अब विचार-बुद्धि, शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भाव और आचार की प्रशंसा करें, वहीं अच्छा है और वे जिसकी निंदा करें, वही बुरा ! अफसोस ! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय और क्या होगा? 
       पाश्चात्य स्त्रियाँ स्वाधीन भाव से फिरती हैं, इसलिए वही चाल अच्छी है, वे अपने लिए वर आप चुन लेती हैं, इसलिए वही उन्नति का उच्चतम सोपान है, पाश्चात्य पुरुष हम लोगों की वेश-भूषा, खान-पान को घृणा की दृष्‍टि से देखते हैं, इसलिए हमारी ये चीजें बहुत बुरी हैं, पाश्चात्य लोग मूर्ति-पूजा को खराब कहते हैं, तो वह भी बड़ी ही खराब होगी, क्यों न हो? 
       पाश्‍चात्य लोग एक ही देवता की पूजा को कल्याणप्रद बताते हैं, इसलिए अपने देव-देवियों को गंगा में फेंक दो। पाश्‍चात्य लोग जाति-भेद को घृणित समझते हैं, इसलिए सब वर्णों को मिलाकर एक कर दो। पाश्‍चात्य लोग बाल्य विवाह को सव अनर्थों का कारण कहते हैं, इसलिए वह भी अवश्‍य ही बहुत खराब होगा। 

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