गुरुवार, 9 मई 2013

स्वामी विवेकानन्द के जीवन के स्मरणीय प्रसंग-

१-सत्य के प्रति निष्ठा -
         स्वामी जी ने अपनी माँ तथा बाद में अपने गुरुदेव में सत्य के प्रति जो अटल निष्ठां देखी,उसे अपने जीवन की प्रत्येक क्रिया में प्रकट किया । स्वामी जी अनेक बार कहा करते थे- अपने ज्ञान के विकास के लिए मैं अपनी माँ का ऋणी हूँ। स्कूल में एक दिन नरेन्द्र को विना किसी गलती के सजा भुगतनी पड़ी।भुगोल की क क्षा में सही उत्तर देने पर भी मास्टर जी को लगा कि नरेन्द्र ने गलत उत्तर दिया है।  नरेन्द्र के वारंवार विरोध करने पर मास्टर जी क्रोधित होकर उन्हें और भी अधिक पीटने लगे। फिर भी अंत तक नरेन्द्र यही कहते रहे कि मैंनें सही उत्तर दिया है।  घर पर आकर नरेन्द्र ने रोते हुए माँ को सारी बात बताई।  माँ ने सांत्वना देते हुए कहा-वेटा यदि तुमसे कोई गलती नहीं हुई है तो फिर इस बिषय में तुम चिंता ही क्यों करते हो।  फल चाहे जो  हो, सभी अवस्थाओं में सत्य को हमेशा पकड़े रहना चाहिए \ बाद में नरेन्द्र को अपने गुरुदेव में माँ के इस उपदेश की जीबन्त प्रतिमूर्ति देखने को मिली।  श्री रामकृष्ण कहते- हर अवस्था में सत्य का पालन करना चाहिए।  इस कलियुग में यदि कोई सत्य को पकडे रहता है तो बह निश्चय ही ईश्वर का दर्शन पा लेगा। अपनी माँ और गुरु के इस उपदेश का निर्वाह स्वामी विवेकानंद ने जीवन भर किया। इसीलिए परवर्ती काल में जगत ने उनकी यह स्वाभाविक घोषणा सुनी- सत्य के लिए सब कुछ का त्याग किया जा सकता है, परन्तु किसी भी चीज के लिए सत्य का त्याग नही किया जा सकता।

२-एकाग्रता का चमत्कार-
         स्वामी जी पुस्तकों के बड़े प्रेमी थे। १८९० में मेरठ में स्वामी विवेकानंद के कहने पर स्वामी अखंडानन्द प्रतिदिन एक स्थानीय पुस्तकालय से सर जाँन लबक की ग्रंथावली का एक बड़ा सा खण्ड ले आते और दूसरे दिन उसे लौटकर उसके बाद का खंड ले आते।  ग्रंथपाल ने सोचा स्वामी जी केबल दूसरों पर रौब डालने के लिए ही रोज इतनी मोटी पुस्तक मंगाकर दूसरे दिन दूसरी पुस्तक मंगाते हैं,क्योंकि एक दिन में इतना पढना तो संभव ही नहीं हैं। आखिर एक दिन ग्रन्थपाल ने अपनी शंका स्वामी अखंडानन्द जी के सामने रख ही दी। अखंडानंद जी ने स्वामी जी को जाकर यह बात बताई।  इसे सुनकर स्वामी जी स्वयं ही दूसरे दिन पुस्तकालय में उपस्थित हुए और विनम्रता के साथ ग्रंथपाल से बोले- महाशय मेनें बड़े ध्यानपूर्वक इन ग्रंथों को पद़ा है यदि आप चाहें तो कहीं से भी अपनी इच्छानुसार पूँछ सकते हैं। इस पर ग्रंथपाल ने स्वामी जी से कई प्रश्न पूँछे और स्वामी जी ने उन सभी प्रश्नों के सटीक जवाव दिए। यह देख ग्रंथपाल आश्चर्य चकित हो उठा।
                            खेतड़ी के राजा भी स्वामी जी के पढने की पध्दिती देखकर बड़े विस्मित हुए थे।  स्वामी जी कोई भी पुस्तक हाथ में लेकर शीध्रतापूर्वक उसके पृष्ठ पलटते जाते, इतने से ही उनकी पढाई पूरी हो जाती। राजा ने पूंछा यह भला कैसे सम्भब है तो स्वामी जी ने वताया कि जैसे एक शिशु जव पढना सीखता है तो सर्वप्रथम बह किसी शब्द के किसी विशेष अक्षर पर अपना ध्यान एकाग्र करता है उसका दो तीन बार उच्चारण करता है फिर अगले अक्षर के साथ भी ऐसा ही करने के बाद बह पूरे शब्द का उच्चारण करता है। जब बह पढने की कला में और आगे बढता है तो बह प्रत्येक शब्द पर ध्यान देता है।  काफी अभ्यास के बाद बह दृष्टि मात्र डालकर ही पूरा वाक्य पढ जाता है इसी प्रकार यदि कोई अपनी एकाग्रता की शक्ति को बढाता जाये तो बह पलक झपकते ही पूरा पृष्ठ पढ़ सकता है। स्वामी जी ने वताया कि बे ऎसा ही करते हैं।  साथ ही यह भी बताया कि इसके लिए अभ्यास तथा एकाग्रता की भी आवश्यकता होती है इसका आश्रय लेकर कोई भी व्यक्ति यह क्षमता अर्जित कर सकता है । 

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